पार्वतीनंदन श्रीगणेश का संपूर्ण शरीर मानव का है; किंतु मस्तक हाथी के शिशु के मुख के समान है । नर और गज का अद्भुत मिश्रण—यही उनके रूप की असाधारण विचित्रता है । ऐसा क्यों है ? श्रीगणेश के ऐसे स्वरूप का क्या है आध्यात्मिक अर्थ—इसी का उत्तर इस ब्लॉग में दिया गया है ।
शिवपुराण में कथा है कि–एक दिन पार्वती जी स्नान के लिए जा रही थीं । उन्होंने अपने शरीर के अनुलेप (उबटन) के मैल से एक मानव आकृति (पुतला) निर्मित की और उसमें प्राण-प्रतिष्ठा कर दी; साथ ही गृहरक्षा के लिए द्वारपाल के रूप में उसे स्थापित कर दिया । पार्वती जी ने उसे आज्ञा दी कि मैं स्नान के लिए जा रही हूँ; जब तक मैं नहीं कहूँ, तब तक तुम घर के अंदर किसी को मत आने देना । ये ही गृहद्वार रक्षक शक्ति गणेशजी के नाम से जाने जाते हैं ।
थोड़ी देर बाद जब भगवान शंकर आए और घर में प्रवेश करने लगे तो द्वारपाल ने उनको रोक दिया । शिवा और शिव के संयोग में कौन बाधक बन सकता है ? शंकर जी ने क्रोधित होकर रुद्र रूप धारण कर लिया और उनका द्वारपाल से युद्ध हुआ; जिसमें उन्होंने द्वारपाल का मस्तक काट दिया । पार्वती जी को जब अपने कल्पित पुत्र के नाश का पता लगा तो वे रुष्ट हो गईं । उनके रोष के आगे शंकर जी विनत हो गए और उन्होंने हाथी का मस्तक उस शव पर लगा कर उसे पुनर्जीवित कर दिया । गज का सिर जुड़ने के कारण श्री गणेश का नाम ‘गजानन’ हुआ ।
जब भगवान शंकर ने गज का मस्तक जोड़कर श्रीगणेश को पुनर्जीवित कर दिया, तब सभी शिवगण नाचते-गाते हुए उन्हें अपने से श्रेष्ठ मानकर ‘गणपति’ शब्द से जय-जयकार करने लगे ।
श्रीगणेश के जन्म की पौराणिक कथा का आध्यात्मिक रहस्य
इस पौराणिक कथा का बहुत ही गहन आध्यात्मिक रहस्य है—
बर्फ से ढके हुए कैलास में रहने वाली शक्तिस्वरूपा पार्वती जी को रक्षा की कोई आवश्यकता नहीं है ? जगज्जननी परान्बा पार्वती जी शक्तिस्वरूपा हैं । उन्हें आत्मरक्षा की आवश्यकता नहीं है । अर्धनारीश्वर रूप में वे शिवजी के आधे अंग में समायी हुई हैं । भगवान शंकर संसार की रक्षा के लिए सदैव तत्पर रहते हैं । कालकूट पीकर उन्होंने संसार को भस्म होने से बचाया । भागीरथी गंगा को सिर पर धारणकर भारतवर्ष को शस्य-श्यामल किया । डमरु के निनाद से ब्रह्म को ध्वनिरूप प्रदान किया । भगवान शंकर मंत्रशास्त्र के जनक हैं । उन्होंने अपना सारा गुह्य ज्ञान पार्वती जी को दिया है । इतना विशाल व गुप्त मन्त्र-ज्ञान रखने वाली पार्वती जी अपनी रक्षा के लिए एक पुतले का निर्माण करती हैं जो आगे चलकर गणेश के नाम से प्रसिद्ध हुए ।
इसका आध्यात्मिक रहस्य यह है कि यह पुतला शब्द-स्वरूप (मंत्र) है जो रक्षा करने का प्रतीक है । पार्वती जी अपनी शक्ति से उस मन्त्र में प्राण-प्रतिष्ठा कर देती हैं । इस बीच भगवान शंकर आते हैं और उस मन्त्र की परीक्षा करते हैं । मंत्र उनके सामने अपनी रक्षा करने में असमर्थ रहता है । भगवान शंकर को मंत्र की अक्षमता रुचि नहीं और वे उसे निष्प्राण कर देते हैं ।
शिव-गणेश संग्राम में गणेश की पराजय क्यों हुई ? शिव-गणेश संग्राम में गणेश की पराजय का अर्थ यह है कि अकेली शक्ति (पार्वती) या उसका तेजोमय अंश (श्रीगणेश) शिव के बिना विजयी नहीं हो सकता । शक्ति शिव के बिना अधूरी है और शिव भी शक्ति के बिना अधूरे हैं ।
संसार जब जीर्ण होने लगता है तो शिव प्रलयंकर हो जाते हैं और ताण्डव नृत्य कर नया सृजन शुरु करते हैं । इसीलिए वे ‘महारुद्र’ ही नहीं वरन् ‘सदाशिव’ भी कहलाते हैं । पार्वती निर्मित मंत्र को नष्ट करने के बाद शिव उसका पुनर्निर्माण करते हैं । वह पुतले के धड़ पर हाथी का मस्तक लगा देते हैं । इस प्रकार धड़ पार्वती निर्मित रहता है; किंतु मस्तक शिव द्वारा प्रतिष्ठित होता है ।
भगवान शंकर ने नष्ट हुए पुतले के धड़ पर हाथी का मस्तक ही क्यों लगाया ?
गणपत्यथर्वशीर्षोपनिषद् में कहा गया है कि ‘ॐ’ (ओंकार) और गणपति एक ही तत्त्व हैं । श्रीगणेश की मूर्ति का आकार और ‘ॐ’ समान है अर्थात् श्रीगणेश स्वरूप में प्रणवाकार हैं । ‘अकार’ श्रीगणेश के दोनों चरण हैं, ‘उकार’ विशाल उदररूप है और ‘मकार’ मस्तकरूप है । उनका वक्रतुण्ड आकार ओंकार को प्रदर्शित करता है—प्रथम भाग उदर, मध्य शुण्ड, ऊपर अर्धचन्द्र दांत, अनुस्वार मोदक ।
श्रीगणेश के मस्तक के लिए हाथी का सिर मंत्र के स्वरूप का रहस्य बतलाता है । हाथी के गण्डस्थल और सूँड़ से जो ‘ॐ’ (ओंकार) का प्रतीक बनता है, वह किसी और प्राणी के सिर से नहीं बनता है । भगवान शंकर ने पार्वतीजी के मंत्र को अमोघ बनाने के लिए उसमें प्रणव-मंत्र (ॐ) जोड़ दिया । प्रणव मंत्र आत्मरक्षित होता है और उसकी तीव्र प्रतिरोधक शक्ति है । गणेश रूपी मंत्र में हाथी का मस्तक रूपी प्रणव जुड़ जाने से उसकी रक्षात्मकता इतनी प्रबल हो गई कि जो कोई भी उसे खंडित करने जाता है, वहीं समाप्त हो जाता है; इसीलिए भगवान गणेश विघ्नविनायक और अग्रपूज्य हैं । जिस प्रकार श्रीगणेश सभी अनुष्ठानों में प्रथम पूजनीय हैं; उसी प्रकार सभी मंत्रों के प्रारम्भ में प्रणव-मंत्र लगाया जाता है । गणेशजी की आराधना का यही फल है ।
मनुष्य के बाद प्राणियों में हाथी सबसे अधिक बुद्धिमान और गम्भीर स्वभाव का है । हाथी का मस्तक लगाने का तात्पर्य यही है कि श्रीगणेश बुद्धि प्रदाता हैं । मस्तक ही बुद्धि का प्रधान केन्द्र है । हाथी में बुद्धि, धैर्य और गंभीरता की प्रधानता होती है । वह अन्य पशुओं की तरह भोजन देखकर उस पर टूट नहीं पड़ता; अपितु धैर्य और गंभीरता के साथ उसे ग्रहण करता है ।
भगवान शंकर पार्वती जी को श्रीगणेश के स्वरूप में नर-गज संयोजन का उद्देश्य बताते हुए कहते हैं—‘हाथी और मनुष्य की आयु समान (१२० वर्ष) निश्चित की गई है । उसी को समझाने के लिए तुम्हारे पुत्र ने यह रूप धारण किया है । अत: मानव को भी यह आयु प्राप्त करने का यत्न करना चाहिए । संसार में हाथी की पूजा करने वाला मनुष्य धन्य माना जाता है और जिसे हाथी स्वयं अपनी सूंड से सिर पर चढ़ाये, उसकी धन्यता का तो कहना ही क्या ? श्रीगणेश की आराधना से भी मनुष्य सब प्रकार की धन्यता प्राप्त कर लेता है ।’