दूसरों की तुलना में खुद को ऊंचा, श्रेष्ठ व पूज्य समझना; मान-बड़ाई, प्रतिष्ठा और पूजा करवाने की भावना रखना और इन सबके प्राप्त होने पर प्रसन्न होना और दूसरों को तुच्छ समझकर उनकी अवहेलना करना—ये सब अहंकार के ही लक्षण हैं । मनुष्य में तरह-तरह के अभिमान भरे पड़े हैं । जैसे–सौंदर्य का अभिमान, पद का अभिमान, ज्ञान का, बल का, धन का, त्याग का, सेवा का और न जाने कितने तरह के अभिमान ।
अहंकारी व्यक्ति सदैव अपनी ही प्रशंसा करता है । दूसरे लोग चाहे कितने ही बड़े क्यों न हों, उसे अपने से बौने ही लगा करते हैं । इस तरह अहंकार व्यक्ति के अज्ञान और मूर्खता का परिचायक है । जहां-जहां अभिमान है, वहां-वहां भगवान की विस्मृति हो जाती है । इसलिए भक्ति का पहला लक्षण है दैन्य अर्थात् अपने को सर्वथा अभावग्रस्त, अकिंचन पाना । भगवान ऐसे ही अकिंचन भक्त के कंधे पर हाथ रखे रहते हैं ।
भगवान अहंकार को शीघ्र ही मिटाकर भक्त का हृदय निर्मल कर देते हैं । उस समय थोड़ा कष्ट महसूस होता है; लेकिन बाद में उसमें भगवान की करुणा ही दिखाई देती है । भगवान को अपने प्रियजनों का जरा-सा भी अहंकार नहीं सुहाता है और उनके गर्व-हरण के लिए वे तरह-तरह की लीलाएं करते हैं ।
गरुड़, सुदर्शन चक्र और श्रीकृष्ण की पटरानियों के गर्व-हरण की कथा
एक बार भगवान श्रीकृष्ण ने महसूस किया कि मेरे वाहन गरुड़ को अपने बल और गति का, सुदर्शन चक्र को शक्ति का और पटरानियों को सौंदर्य का अभिमान है । उन्होंने उनके गर्व-हरण के लिए एक लीला का आयोजन किया ।
एक दिन भगवान श्रीकृष्ण ने गरुड़ को यक्षों के राजा कुबेर के सरोवर से सौगन्धिक कमल लाने का आदेश दिया । अपने बल और गति के अहंकार में गरुड़ वायु को चीरने की ध्वनि से दिशाओं को कम्पित करते हुए गंधमादन पर्वत पर पहुंचे और सरोवर से पुष्प तोड़ने लगे ।
परम बलशाली महावीर हनुमान वहीं गंधमादन पर्वत पर निवास कर रहे थे । गरुड़ को पुष्प चयन करते देख कर हनुमान जी ने उनसे कहा—‘तुम कुबेर की आज्ञा के बिना ही पुष्प क्यों तोड़ रहे हो और किसके लिए यह पुष्प ले जा रहे हो ?’
गरुड़ ने उत्तर दिया—‘हम भगवान के लिए इन पुष्पों को ले जा रहे हैं । भगवान के काम के लिए हमें किसी की अनुमति की जरुरत नहीं है ।’
यह सुनकर हनुमान जी क्रोधित हो गए और उन्होंनें गरुड़ को पकड़ कर अपनी कांख (बगल) में दबा लिया और आकाशमार्ग से द्वारका की ओर उड़ चले । हनुमान जी के वेग से बड़ी भीषण ध्वनि होने लगी जिससे द्वारकावासी भयभीत हो गए । सुदर्शन चक्र हनुमान जी को रोकने के लिए उनके सामने आ गया । हनुमान जी ने तुरंत उसे अपनी दूसरी कांख में दबा लिया ।
भगवान श्रीकृष्ण ने ही यह लीला रची थी । इस लीला को आगे बढ़ाने के लिए उन्होंने अपने बगल में बैठी हुई पटरानियों से कहा—‘देखो, हनुमान क्रुद्ध होकर आ रहे हैं । यहां उन्हें यदि श्रीसीताराम के दर्शन न हुए तो वे द्वारका को समुद्र में डुबो देंगे । अत: तुममें से कोई तुरंत सीता का रूप बना लो, मैं तो देखो, राम बन गया ।’
इतना कह कर श्रीकृष्ण राम के रूप में परिणत हो कर बैठ गए । भगवान की पटरानियों ने सीता का रूप धारण करने का बहुत प्रयास किया, किंतु कोई भी सीता बनने में सफल न हुई ।
अंत में सभी पटरानियों ने श्रीराधा का स्मरण किया । तुरंत ही श्रीराधा प्रकट हो गईं और सीताजी का स्वरूप बन गईं ।
तभी हनुमान जी वहां पहुंच गए । वहां पर वह अपने इष्ट श्रीसीताराम जी को देख कर उनके चरणों पर गिर पड़े । उस समय भी गरुड़ और सुदर्शन चक्र उनकी दोनों बगलों में दबे हुए थे ।
भगवान श्रीकृष्ण ने राम-वेश में उन्हें आशीर्वाद दिया और पूछा—‘हनुमान ! तुम्हारी काँखों में यह क्या दिखलाई पड़ रहा है ?’
हनुमान जी ने उत्तर दिया—‘कुछ नहीं भगवन् ! यह तो एक दुबला-सा क्षुद्र पक्षी निर्जन स्थान में मेरे राम-भजन में बाधा डाल रहा था, इसी कारण मैंने इसे पकड़ लिया । दूसरा यह चक्र-सा एक खिलौना है, वह मेरे साथ टकरा रहा था; इसलिए मैंने इन्हें काँख में दबा लिया है । आपको यदि पुष्पों की आवश्यकता थी तो मुझे क्यों नहीं याद किया ? यह बेचारा पक्षी शिवभक्त और महाबली यक्षों के सरोवर से पुष्प लाने में कैसे समर्थ हो सकता है ?’
भगवान श्रीकृष्ण ने हंसते हुए कहा—‘अब तुम इन बेचारों को छोड़ दो । मैं तुमसे अत्यंत प्रसन्न हूँ । अब तुम अपने स्थान पर जाकर स्वच्छंदतापूर्वक भजन करो ।’
भगवान की आज्ञा मिलते ही हनुमान जी ने गरुड़ और सुदर्शन चक्र को छोड़ दिया और ‘श्रीराम जय राम जय जय राम’ गाते हुए गंधमादन पर्वत की ओर चल दिए ।
इस प्रकार भगवान ने अपने ही परिकर गरुड़, सुदर्शन चक्र और अपनी पटरानियों का गर्व हरण कर दिया ।