श्रीमद् आदि शंकराचार्य भगवान शंकर के अंशावतार थे । असाधारण प्रतिभा के धनी बालक शंकर ने केवल सात वर्ष की आयु में ही वेद, वेदान्त और वेदांगों का पूरा अध्ययन कर लिया । उनकी असाधारण प्रतिभा को देखकर गुरुजन भी आश्चर्यचकित रह जाते थे । गुरु ने इनका नाम ‘भगवत्पूज्यपादाचार्य’ रखा । श्रीद् आदि शंकराचार्य ने भारतवर्ष के चारों कोनों पर चार मठों की स्थापना की । इन मठों के मठाधीश आदि शंकराचार्यजी के नाम पर ‘शंकराचार्य’ कहलाते हैं जबकि इन्हे ‘श्रीमद् आद्य शंकराचार्य’ या ‘श्रीमद् आदि शंकराचार्य’ कहते हैं ।

बालक शंकर ने ब्राह्मणी के घर करायी स्वर्ण की वर्षा

जब बालक शंकर गुरुकुल में थे, तब एक दिन भिक्षाटन करते हुए वह एक निर्धन ब्राह्मणी के घर पहुंचे । लेकिन उस ब्राह्मणी के घर अन्न का एक दाना भी न था । कहीं से उसे एक आंवले का फल मिल गया, उसी को उसने ब्रह्मचारी शंकर को दे दिया और घर में कुछ न होने के कारण अन्न की भिक्षा न दे सकने के लिए क्षमा मांगी ।उस ब्राह्मणी की दशा देखकर बालक शंकर का मन करुणा से भर गया । उन्होंने उसी समय ‘श्रीकनकधारा स्तोत्र’ की रचना कर देवी महालक्ष्मी की स्तुति की । देवी महालक्ष्मी ने प्रसन्न होकर उस ब्राह्मणी के घर को सोने के आंवलों की वर्षा से भर दिया ।

‘कनकधारा’ शब्द दो शब्दों कनक + धारा से मिलकर बना है । ‘कनक’ का अर्थ है स्वर्ण (सोना) और ‘धारा’ का अर्थ है ‘निरन्तर गिरना या धारा रूप में वर्षा होना’ । इसलिए ‘कनकधारा स्तोत्र’ का अर्थ हुआ वह स्तोत्र जिसके पाठ से लगातार स्वर्ण की वर्षा हुई । इसी स्तोत्र का पाठ करके आचार्य शंकर ने ब्राह्मणी के घर सोने के आंवलों की वर्षा करायी थी ।

‘श्रीकनकधारा स्तोत्र’ के श्रद्धा-विश्वासपूर्वक पाठ-अनुष्ठान करने से मनुष्य को कर्ज-भार (ऋणों) से मुक्ति मिलती है और जन्म-जन्मान्तर के दारिद्रय मिट कर लक्ष्मी की प्राप्ति होती है । 

श्रीकनकधारा स्तोत्र (हिन्दी अर्थ सहित)

अंगं हरे: पुलकभूषणमाश्रयन्ती भृंगांगनेव मुकुलाभरणं तमालम् ।
अंगीकृताखिलविभूतिरपांगलीला मांगल्यदाऽस्तु मम मंगलदेवताया: ।। १ ।।

अर्थात्—जैसे भ्रमरी अधखिले पुष्पों से सुशोभित तमालवृक्ष का आश्रय लेती है, उसी प्रकार समस्त ऐश्वर्य और मंगलों की अधिष्ठात्री देवी महालक्ष्मी की कृपा कटाक्ष (दृष्टि), जो श्रीहरि के अंगों पर निरन्तर पड़ती रहती है, मेरे लिए मंगलदायिनी हो ।

मुग्धा मुहुर्विदधती वदने मुरारे: प्रेमत्रपाप्रणिहितानि गतागतानि ।
माला दृशोर्मधुकरीव महोत्पले या सा मे श्रियं दिशतु सागरसम्भवाया: ।। २ ।।

अर्थात्—जैसे भ्रमरी कमलदल पर आती-जाती या मंडराती रहती है, उसी प्रकार समुद्र-कन्या लक्ष्मी की वह मनोहर मुग्ध दृष्टि बारंबार मुर दैत्य के शत्रु श्रीहरि के मुखारविन्द पर प्रेमपूर्वक जाती और लज्जा के कारण लौट आती है, वह दृष्टिमाला मुझे धन-सम्पत्ति प्रदान करे ।

विश्वामरेन्द्रपदविभ्रमदानदक्षमानन्दहेतुरधिकं मुरविद्विषोऽपि ।
ईषन्निषीदतु मयि क्षणमीक्षणार्द्धमिन्दीवरोदरसहोदरमिन्दिराया: ।। ३ ।।

अर्थात्—जो समस्त देवताओं के अधिपति इन्द्र के पद का वैभव देने में समर्थ हैं, मुरारि श्रीहरि को भी अधिकाधिक आनन्द देने वाली हैं, जो नीलकमल के भीतरी भाग के समान मनोहर जान पड़ती हैं, वह लक्ष्मीजी के अधखुले नयनों की दृष्टि क्षण भर के लिए थोड़ी-सी मुझ पर भी पड़े ।

आमीलिताक्षमधिगम्य मुदा मुकुन्दमानन्दकन्दमनिमेषमनंगतन्त्रम् ।
आकेकरस्थितकनीनिकपक्ष्मनेत्रं भूत्यै भवेन्मम भुजंगशयांगनाया: ।। ४ ।।

अर्थात्—शेषशायी भगवान विष्णु की धर्मपत्नी लक्ष्मीजी का वह नेत्र हमें ऐश्वर्य प्रदान करने वाला हो, जिसकी पुतली एवं बरौनियां (कामदेव के वशीभूत) प्रेमपरवश होकर अधखुली हैं, साथ ही निर्निमेष नयनों से देखने वाले आनन्दकन्द भगवान मुकुन्द को अपने निकट पाकर कुछ तिरछी हो जाती हैं ।

बाह्नन्तरे मधुजित: श्रितकौस्तुभे या हारावलीव हरिनीलमयी विभाति ।
कामप्रदा भगवतोऽपि कटाक्षमाला कल्याणमावहतु मे कमलालयाया: ।। ५ ।।

अर्थात्—जो भगवान मधुसूदन के कौस्तुभमणि से सजे वक्ष:स्थल में इन्द्रनीलमणि के हारों के समान शोभायमान हैं तथा उनके मन में काम (प्रेम) का संचार करने वाली हैं, उन कमलवन में निवास करने वाली कमला की कृपा कटाक्षमाला मेरा कल्याण करे ।

कालाम्बुदालिललितोरसि कैटभारेर्धाराधरे स्फुरति या तडिदंगनेव ।
मातु: समस्तजगतां महनीयमूर्तिर्भद्राणि मे दिशतु भार्गवनन्दनाया: ।। ६ ।।

अर्थात्—जैसे बादलों की घटा में बिजली चमकती है, उसी प्रकार जो कैटभ के शत्रु भगवान विष्णु के काले बादलों के समान वक्ष:स्थल पर प्रकाशित होती हैं, जिन्होंने अपने आविर्भाव (उत्पति) से भृगुवंश को आनन्दित किया है तथा जो समस्त लोकों की जननी हैं, उन देवी लक्ष्मी की पूजनीया मूर्ति मुझे कल्याण प्रदान करे ।

प्राप्तं पदं प्रथमत: किल यत्प्रभावान्मांगल्यभाजि मधुमाथिनी मन्मथेन ।
मय्यापतेत्तदिह मन्थरमीक्षणार्द्धे मन्दालसं च मकरालयकन्यकाया: ।। ७ ।।

अर्थात्—समुद्रकन्या कमला की वह मन्द, अलस, मन्थर और अर्धोन्मीलित दृष्टि जिसके प्रभाव से कामदेव ने भगवान मधुसूदन के हृदय में पहली बार स्थान प्राप्त किया था, यहां मुझ पर पड़े ।

दद्याद् दयानुपवनो द्रविणाम्बुधारामस्मिन्नकिंचनविहंगशिशौ विषण्णे ।
दुष्कर्मघर्ममपनीय चिराय दूरं नारायणप्रणयिनीनयनाम्बुवाह: ।। ८ ।।

अर्थात्—भगवान नारायण की प्रेयसी लक्ष्मी का नेत्ररूपी मेघ दयारूपी पवन से प्रेरित हो, दुष्कर्म रूपी ग्रीष्म को हमेशा के लिए हटाकर शोक में पड़े मुझ दीन चातक पर धनरूपी जलधारा की वर्षा करे ।

इष्टा विशिष्टमतयोऽपि यया दयार्द्रदृष्टया त्रिविष्टपपदं सुलभं लभन्ते ।
दृष्टि: प्रहृष्टकमलोदरदीप्तिरिष्टां पुष्टिं कृषीष्ट मम पुष्करविष्टराया: ।। ९ ।।

अर्थात्—विशिष्ट बुद्धि वाले मनुष्य जिनके प्रिय पात्र बनकर उनकी दया-दृष्टि से स्वर्ग को सहज ही प्राप्त कर लेते हैं, उन्ही पद्मासना लक्ष्मी की विकसित कमल-गर्भ के समान कांतिमयी दृष्टि मुझे मनवांछित पुष्टि प्रदान करे ।

गीर्देवतेति गरुड़ध्वजसुन्दरीति शाकम्भरीति शशिशेखरवल्लभेति ।
सृष्टिस्थितिप्रलयकेलिषु संस्थितायै तस्यै नमस्त्रिभुवनैकगुरोस्तरुण्यै ।। १० ।।

अर्थात्—जो सृष्टि-लीला के समय वाग्देवता (ब्रह्म शक्ति) के रूप में स्थित होती हैं, पालन-लीला करते समय भगवान गरुड़ध्वज की सुन्दर पत्नी लक्ष्मी (वैष्णवी शक्ति) के रूप में विराजमान होती हैं तथा प्रलय-लीला में शाकम्भरी (दुर्गा) रूप में या चन्द्रशेखर शिव की पत्नी पार्वती (रुद्र शक्ति) के रूप में अवस्थित होती हैं, उन त्रिलोकी के एकमात्र गुरु भगवान नारायण की नित्ययौवना प्रेयसी लक्ष्मीजी को नमस्कार है ।

श्रुत्यै नमोऽस्तु शुभकर्मफलप्रसूत्यै रत्यै नमोऽस्तु रमणीयगुणार्णवायै ।
शक्त्यै नमोऽस्तु शतपत्रनिकेतनायै पुष्टयै नमोऽस्तु पुरुषोत्तमवल्लभायै ।। ११ ।।

अर्थात्—माता ! शुभ कर्मों का फल देने वाली श्रुति के रूप में आपको नमस्कार है । रमणीय गुणों की सिन्धुरूप रति के रूप में आपको नमस्कार है । कमलवन में निवास करने वाली शक्तिस्वरूपा लक्ष्मी को नमस्कार है तथा पुरुषोत्तम प्रिया पुष्टि को नमस्कार है ।

नमोऽस्तु नालीकनिभाननायै नमोऽस्तु दुग्धोदधिजन्मभूत्यै ।
नमोऽस्तु सोमामृतसोदरायै नमोऽस्तु नारायणवल्लभायै ।। १२ ।।

अर्थात्—कमलवदना कमला को नमस्कार है । क्षीरसिन्धु से उत्पन्न श्रीदेवी को नमस्कार है । चन्द्रमा और सुधा की सगी बहिन को नमस्कार है । भगवान नारायण की वल्लभा को नमस्कार है ।

सम्पत्कराणि सकलेन्द्रियनन्दनानि साम्राज्यदानविभवानि सरोरुहाक्षि ।
त्वद्वन्दनानि दुरिताहरणोद्यतानि मामेव मातरनिशं कलयन्तु मान्ये ।। १३ ।।

अर्थात्—कमल के समान नेत्रों वाली माननीया मां ! आपके चरणों में की हुई वन्दना सम्पत्ति प्रदान करने वाली, समस्त इन्द्रियों को आनन्द देने वाली, साम्राज्य देने में समर्थ और सारे पापों को हर लेने के लिए सदैव उद्यत है । मुझे आपकी चरणवन्दना का शुभ अवसर सदा प्राप्त होता रहे ।

यत्कटाक्षसमुपासनाविधि: सेवकस्य सकलार्थसम्पद: ।
संतनोति वचनांगमानसैस्त्वां मुरारिहृदयेश्वरीं भजे ।। १४ ।।

अर्थात्—जिनके कृपा-कटाक्ष के लिए की हुई उपासना भक्त के सभी मनोरथों को पूर्ण करने वाली है व सम्पत्ति का विस्तार करती है, श्रीहरि की हृदयेश्वरी, उन्हीं आप लक्ष्मीदेवी का मैं मन, वाणी और शरीर से भजन करता हूँ ।

सरसिजनिलये सरोजहस्ते धवलतमांशुकगन्धमाल्यशोभे ।
भगवति हरिवल्लभे मनोज्ञे त्रिभुवनभूतिकरि प्रसीद मह्यम् ।। १५ ।।

अर्थात्—भगवती हरिप्रिये ! तुम कमलवन में निवास करने वाली हो, तुम्हारे हाथों में लीला-कमल सुशोभित है । तुम अत्यन्त उज्ज्वल वस्त्र, गन्ध और माला आदि से शोभा पा रही हो । तुम्हारी झांकी अत्यन्त मनोहर है । त्रिभुवन का ऐश्वर्य प्रदान करने वाली देवि ! मुझ पर प्रसन्न हो जाओ ।

दिग्घस्तिभि: कनककुम्भमुखावसृष्टस्वर्वाहिनीविमलचारुजलप्लुतांगीम् ।
प्रातर्नमामि जगतां जननीमशेषलोकाधिनाथगृहिणीममृताब्धिपुत्रीम् ।। १६ ।।

अर्थात्—दिग्गजों (हाथियों) द्वारा सुवर्ण-कलश के मुख से गिराये गये आकाशगंगा के निर्मल एवं मनोहर जल से जिनके श्रीअंगों का अभिषेक होता है, समस्त लोकों के अधीश्वर भगवान विष्णु की गृहिणी और क्षीरसागर की पुत्री उन जगन्जननी लक्ष्मीजी को मैं प्रात:काल प्रणाम करता हूँ ।

कमले कमलाक्षवल्लभे त्वं करुणापूरतरंगितैरपांगै: ।
अवलोकय मामकिंचनानां प्रथमं पात्रमकृत्रिमं दयाया: ।। १७ ।।

अर्थात्—कमलनयन केशव की कमनीय कामिनी कमले ! मैं दीन-हीन मनुष्यों में अग्रगण्य हूँ, इसलिए तुम्हारी कृपा का स्वाभाविक पात्र हूँ । तुम उमड़ती हुई करुणा की बाढ़ की तरल-तरंगों के समान कटाक्षों से मेरी ओर देखो ।

स्तुवन्ति ये स्तुतिभिरमूभिरन्वहं त्रयीमयीं त्रिभुवनमातरं रमाम् ।
गुणाधिका गुरुतरभाग्यभागिनो भवन्ति ते भुवि बुधभावितशया: ।। १८ ।।

अर्थात्—जो लोग इन स्तुतियों द्वारा प्रतिदिन वेदत्रयीस्वरूपा, त्रिभुवन जननी देवी लक्ष्मी की स्तुति करते हैं, वे इस भूतल पर महान गुणवान और अत्यन्त सौभाग्यशाली होते हैं तथा विद्वान पुरुष भी उनके मनोभाव को जानने के लिए उत्सुक रहते हैं ।

।। श्रीभगवत्पादशंकरविरचितं कनकधारा स्तोत्रं सम्पूर्णम् ।।

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