mahalaxmi ambabai devi

‘करवीर-क्षेत्र जिसे कोल्हापुर (कोलापुर) भी कहते हैं, एक महान सिद्ध पीठ है, जहां महालक्ष्मी सदैव विराजती हैं ।’ (देवी गीता)

यहां का महालक्ष्मी मन्दिर जिसे लोग अंबाबाई मन्दिर भी कहते हैं, 51 शक्तिपीठों में से एक हैं । सती के तीनों नेत्र यहीं गिरे थे । यहां की शक्ति महिषमर्दिनी और भैरव क्रोधीश हैं । महालक्ष्मी मन्दिर ही महिषमर्दिनी का स्थान है । पांच नदियों के संगम से एक नदी बहती है, जिसे ‘पंचगंगा’ कहते है, उसी के तट पर यह सिद्ध पीठ स्थित है । यहां महालक्ष्मी को ‘करवीर-सुवासिनी’, ‘कोलापुर-निवासिनी’ और ‘अंबाबाई’ कहते हैं । 

महालक्ष्मी अंबाबाई की प्रतिमा

महालक्ष्मी अंबाबाई की अत्यन्त सुन्दर स्वयम्भू प्रतिमा साढ़े तीन फुट ऊंची है जो हीरे मिश्रित रत्नशिला की है । प्रतिमा के मध्य में स्थित पद्मरागमणि भी स्वयम्भू है । यहां देवी की प्रतिमा पश्चिममुखी है । देवी के चारों हाथों में मातुलिंग (बिजौरा नींबू), गदा, ढाल और अमृतपात्र है । मस्तक पर नागवेष्टित शिवलिंग और योनि है । स्वयम्भू मूर्ति में ही सिर पर किरीट उत्कीर्ण है जिस पर शेषनाग के फण छाया कर रहे हैं । देवी के चरणों के पास उनका वाहन सिंह प्रतिष्ठित है ।

महालक्ष्मी अंबाबाई : सूर्यकिरणें पखारती हैं जिनके चरण

कोल्हापुर महालक्ष्मी मन्दिर की वास्तुकला में कुछ ऐसा कमाल है कि साल में छह दिन सूरज की किरणें माता की मूर्ति और चरणों पर पड़ती हैं । मन्दिर की पश्चिमी दीवार पर एक छोटी-सी खुली खिड़की है । इस खिड़की से सूरज की किरणें हर साल 31 जनवरी, 1 और 2 फरवरी को और नवम्बर में 9,10, 11 तारीख के आसपास मां के मुख को स्पर्श करती हैं । इन छह दिनों में मन्दिर में ‘किरणोत्सव’ मनाया जाता है ।

महालक्ष्मी मन्दिर कहलाता है करवीर शक्तिपीठ

महालक्ष्मी का मन्दिर अत्यन्त पुरातन, भव्य और शिल्पकला का बेजोड़ नमूना है । ऐसा माना जाता है कि इसकी वास्तु-रचना श्रीयन्त्र या सर्वतोभद्रमण्डल पर स्थापित है । महालक्ष्मी का ऐसा वैभव है कि गर्भागार में सोने, चांदी के सामान, रत्नजड़ित आभूषण देखकर आंखें चौंधिया जाती हैं । मन्दिर परिसर में ही काशी विश्वनाथ, कार्तिक स्वामी, सिद्धिविनायक, महासरस्वती, महाकाली, श्रीदत्तात्रेय और श्रीराम विराजमान हैं । यहां आद्यशंकराचार्यजी द्वारा स्थापित विशाल चक्रराज श्रीयन्त्र है ।

महालक्ष्मी की उपासना यहां व्यक्तिगत और सामूहिक दोनों रूपों में अत्यन्त वैभव से होती है और अभिषेक के समय अधिक-से-अधिक श्रीसूक्त का पाठ किया जाता है । मां के भोग में खीर और मिष्ठान का विशेष महत्व है । अक्षय तृतीता को महालक्ष्मी का दिन माना जाता है; इसलिए इस दिन व नवरात्रों में भक्तगण विशेष रूप से माता का आशीर्वाद लेने पहुंचते हैं ।

करवीर-क्षेत्र का कोल्हापुर नाम पड़ने का क्या कारण है ?

अत्यन्त प्राचीन काल में ‘कोलासुर’ नामक एक शक्तिशाली असुर था, जिसे यह वरदान मिला था कि स्त्री-शक्ति के अतिरिक्त कोई भी उसका वध नहीं कर सकता था । उस असुर के अत्याचारों से पीड़ित होकर देवतागण महाविष्णु की शरण में गए । भगवान विष्णु ने कोलासुर के वध के लिए अपनी ही शक्ति स्त्री रूप में प्रकट कर दी । यही वे महालक्ष्मी हैं । सिंह पर आरुढ़ होकर महादेवी करवीर नगर में आईं जहां उनका कोलासुर से घमासान युद्ध हुआ, जिसमें असुर ने परम गति पाई ।

मरने से पहले कोलासुर ने देवी की शरण ली, इसलिए महादेवी ने उससे वर मांगने को कहा । कोलासुर ने कहा—‘इस क्षेत्र को मेरा नाम प्राप्त हो ।’ देवी के तथास्तु कहने पर उसके प्राण देवी में लीन हो गए । तभी से देवी इस स्थान पर प्रतिष्ठित हो गईं और यह करवीर-क्षेत्र ‘कोलापुर’ के नाम से प्रसिद्ध हो गया ।

समर्थ गुरु स्वामी रामदास ने महालक्ष्मी की स्तुति करते हुए उन्हें ‘कोलासुर-विमर्दिनी’ कहा है ।

‘दक्षिण की काशी’ नाम से प्रसिद्ध है कोल्हापुर

इस सिद्ध पीठ को ‘दक्षिण की काशी’ भी कहा जाता है क्योंकि काशी की तरह यहां भी पंचगंगा, कालभैरव, काशी तीर्थ, मणिकर्णिका तीर्थ आदि पंचकोशी के स्थान हैं ।

स्कन्दपुराण के काशीखण्ड के अनुसार महर्षि अगस्त्य अपनी पत्नी लोपामुद्रा के साथ काशी से दक्षिण आए और वहीं बस गए । महर्षि अगस्त्य महालक्ष्मी अंबाबाई की स्तुति करते हुए कहते हैं—

मातर्नमामि कमले कमलायताक्षि,
श्रीविष्णुहृत्कमलवासिनी विश्वमात: ।
क्षीरोदजे कमलकोमलगर्भगौरि,
लक्ष्मि प्रसीद सततं नमतां शरण्ये ।। (महर्षि अगस्त्य)

अर्थात्—कमल के समान विशाल नेत्रों वाली माता कमले ! मैं आपको प्रणाम करता हूँ । आप भगवान विष्णु के हृदयकमल में निवास करने वाली तथा संपूर्ण विश्व की जननी हैं । कमल के कोमल गर्भ के समान गौर वर्ण वाली क्षीरसागर की पुत्री महालक्ष्मी ! आप अपनी शरण में आए हुए प्रणतजनों का पालन करने वाली हैं । आप सदा मुझ पर प्रसन्न हों ।

अविमुक्तपुरी काशी में भगवान शिव मुक्ति प्रदान करते हैं किन्तु करवीर-क्षेत्र में भगवान शिव के साथ महालक्ष्मी विराजती हैं जो भोग और मोक्ष दोनों प्रदान करती हैं; इसलिए वाराणसी से इस क्षेत्र का माहात्म्य जौ के बराबर अधिक है ।

सिद्धिबुद्धिप्रदे देवि भुक्तिमुक्तिप्रदायिनि । 
मन्त्रपूते सदा देवि महालक्ष्मि नमोऽस्तु ते ।।
महालक्ष्म्याष्टक ४।।

अर्थात्—सिद्धि, बुद्धि, भोग और मोक्ष देने वाली हे मन्त्रपूत भगवति महालक्ष्मि ! तुम्हें सदा प्रणाम है ।

भगवान दत्तात्रेय का सिद्ध स्थान भी यहीं होने के कारण ऐसा माना जाता है कि भगवान दत्तात्रेय मध्याह्न-स्नान के बाद देवी की स्तुति के लिए यहां आते हैं । इस कारण इस स्थान का माहात्म्य और बढ़ जाता है ।