वैदिक सूक्त

वेद समस्त ज्ञात-अज्ञात ज्ञान के स्तोत्र हैं। वेदों में मनुष्य के अभीष्ट साधन के लिए सूक्त रूपी मणियां हैं। ‘सूक्त’ का अर्थ है ‘अच्छी रीति से कहा गया विशेष वैदिक मन्त्रसमूह।’ सूक्त में देवी या देवता विशेष के ध्यान, पूजन तथा स्तुति का वर्णन होता है। इन सूक्तों के जप और पाठ से सभी प्रकार के क्लेशों से मुक्ति मिल जाती है और व्यक्ति पवित्र हो जाता है, उसे  मनो अभिलाषित की प्राप्ति होती है। इस ब्लॉग में ‘श्रीगणपति सूक्त’ के रूप में श्रीगणपति अथर्वशीर्ष हिन्दी अनुवाद सहित दिया जा रहा है।

भगवान गणपति का वैदिक स्तवन : श्रीगणपति अथर्वशीर्ष

वर्तमान समय के व्यस्त एवं भौतिक जीवन में शीघ्र सफलता एवं विघ्नों के नाश के लिए श्रीगणेश सर्वाधिक पूज्यनीय देवता हैं। वेदों में गणपति का नाम ‘ब्रह्मणस्पति’, पुराणों में ‘श्रीगणेश’ तथा उपनिषदों में साक्षात ‘ब्रह्म’ बताया गया है। मांगलिक कार्यों में गणपति-पूजन के बाद प्रार्थनारूप में श्रीगणपति अथर्वशीर्ष का पाठ किया जाता है।

अथर्वशीर्ष का अर्थ

अथर्वशीर्ष शब्द में अ+थर्व+शीर्ष इन शब्दों का समावेश है। ‘अ’ अर्थात् अभाव, ‘थर्व’ अर्थात् चंचल एवं ‘शीर्ष’ अर्थात् मस्तिष्क–चंचलता रहित मस्तिष्क अर्थात् शांत मस्तिष्क। मन बड़ा प्रबल है। मन का कार्य संकल्प-विकल्प करना है। मन ही सारे संसार-चक्र को चला रहा है। मन का समाहित हो जाना ही परम योग है। गणपति अथर्वशीर्ष मन-मस्तिष्क को शांत रखने की विद्या है।

अथर्वशीर्ष में मात्र दस ऋचाएं हैं। इसमें बताया गया है कि शरीर के मूलाधार चक्र में श्रीगणेश का निवास है। मूलाधार चक्र शरीर में गुदा के पास है। मूलाधार चक्र आत्मा का भी स्थान है जो ओमकारमय है। यहां ओमकार स्वरूप गणेशजी विराजमान हैं। मूलाधार चक्र में ध्यान केन्द्रित करने से मन-मस्तिष्क शांत रहता है।

श्रीगणेश का वक्रतुण्ड-आकार ओंकार को प्रदर्शित करता है। ‘अकार’ गणेशजी के चरण हैं, ‘उकार’ उदर और ‘मकार’ मस्तक का महामण्डल है। इस प्रकार गणपति अथर्वशीर्ष में ओंकार और गणपति दोनों एक ही तत्त्व हैं। ओंकार रूप गणपति सत्ता, ज्ञान और सुख के रक्षक हैं। जीवन के कष्ट, संकट, विघ्न, शोक एवं मोह का नाश कर अथर्वशीर्ष परमार्थिक सुख भी प्रदान करता है। श्रीगणेश कष्टों का निवारण कर बिना भेदभाव के सभी का मंगल करते हैं।

अथर्वशीर्ष का सार है–ॐ गं गणपतये नम:। अथर्वशीर्ष के प्रतिदिन एक, पांच अथवा ग्यारह पाठ करने का शास्त्रीय विधान है। जो इसका नित्य पाठ करता है, वह ब्रह्मीभूत होता है और हर प्रकार से सुखी हो जाता है। वह किसी प्रकार के विघ्नों से बाधित नहीं होता।

श्री गणपत्यथर्वशीर्षम् (हिन्दी अर्थ सहित)

ॐ नमस्ते गणपतये। त्वमेव प्रत्यक्षं तत्वमसि। त्वमेव केवलं कर्तासि। त्वमेव केवलं धर्तासि। त्वमेव केवलं हर्तासि। त्वमेव सर्वं खल्विदं ब्रह्मासि। त्वं साक्षादात्मासि नित्यम्।।१।।

ॐकाराकृति भगवान गणपति को नमस्कार है। तुम्हीं केवल साक्षात् तत्त्व हो। तुम्ही केवल कर्ता हो। तुम्ही केवल धारणकर्ता हो। तुम्ही केवल संहारकर्ता हो। तुम्हीं केवल समस्त विश्वरूप ब्रह्म हो। तुम साक्षात् नित्य आत्मा हो।।१।।

ऋतं वच्मि। सत्यं वच्मि।।२।।

मैं न्याय युक्त वचन बोलता हूँ। सर्वथा सत्य कहता हूँ।।२।।

अव त्वं माम्। अव वक्तारम्। अव श्रोतारम्। अव दातारम्। अव धातारम्। अव अनूचानम्। अव शिष्यम्। अव पश्चातात्। अव पुरस्तात्। अव वोत्तरात्तात्। अव दक्षिणात्तात्। अव चोर्ध्वात्तात्।। अवाधरात्तात्। सर्वतो मां पाहि पाहि समन्तात्।।३।।

तुम मेरी रक्षा करो। वक्ता की रक्षा करो। श्रोता की रक्षा करो। दाता की रक्षा करो। धाता की रक्षा करो। उपदेशक (आचार्य) की रक्षा करो। शिष्य को सुरक्षा प्रदान करो। आचार्य और शिष्य दोनों को अभय दो। पीठ पीछे पश्चिम दिशा से रक्षा करो। मुख के सामने पूर्व दिशा से रक्षा करो। उत्तर एवं दक्षिण से मेरी रक्षा करो। ऊपर से और नीचे से मेरी रक्षा करो। सब ओर से मुझे सब तरह की सुरक्षा उपलब्ध कराओ।

त्वं वाङ्‍मयस्त्वं चिन्मय:। त्वमानन्दमसयस्त्वं ब्रह्ममय:। त्वं सच्चिदानन्दाद्वितीयोऽसि।
त्वं प्रत्यक्षं ब्रह्मासि। त्वं ज्ञानमयो विज्ञानमयोऽसि।।४।।

तुम वाङ्‍मय हो, तुम चिन्मय हो। तुम आनन्दमय हो। तुम ब्रह्मस्वरूप हो। तुम सच्चिदानन्द हो। तुम अद्वितीय हो। तुम प्रत्यक्ष ब्रह्म हो। तुम ज्ञानमय हो। तुम विज्ञान (शुद्ध ज्ञान) के मालिक एवं दाता हो।

सर्वं जगदिदं त्वत्तो जायते। सर्वं जगदिदं त्वत्तस्तिष्ठति। सर्वं जगदिदं त्वयि लयमेष्यति। सर्वं जगदिदं त्वयि प्रत्येति। त्वं भूमिरापोऽनलोऽनिलो नभ:। त्वं चत्वारि वाक्पदानि।।५।।

यह सारा जगत तुमसे उत्पन्न होता है। यह सारा जगत तुम में ही स्थित है। यह सारा जगत तुममें में ही विलीन  होता है। यह अखिल विश्व तुममें ही प्रतीत होता है। तुम्हीं भूमि, जल, अग्नि, वायु और आकाश हो। परा, पश्यन्ती, वैखरी और मध्यमा वाणी के ये चार रूप तुम्हीं हो।।५।।

त्वं गुणत्रयातीत:। त्वमवस्थात्रयातीत:। त्वं देहत्रयातीत:। त्वं कालत्रयातीत:। त्वं मूलाधारस्थितोऽसि नित्यम्। त्वं शक्तित्रयात्मक:। त्वां योगिनो ध्यायन्ति नित्यम्। त्वं ब्रह्मा त्वं विष्णुस्त्वं रूद्रस्त्वं इंद्रस्त्वं अग्निस्त्वं वायुस्त्वं सूर्यस्त्वं चंद्रमास्त्वं ब्रह्म  भूर्भुव: स्वरोम्।।६।।

तुम सत्व, रज और तम तीनों गुणों से परे हो। तुम जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति इन तीनों अवस्थाओं से परे हो। तुम स्थूल, सूक्ष्म और कारण तीनों देहों से परे हो। तुम भूत, भविष्य और वर्तमान तीनों कालों से परे हो। तुम मूलाधार चक्र में सर्वदा स्थित रहते हो। प्रभु शक्ति (इच्छा), उत्साह शक्ति (क्रिया) और मन्त्र शक्ति (ज्ञान)–तीनों प्रकार की शक्तियां तुम्हीं हो। योगीजन नित्य तुम्हारा ध्यान करते हैं। तुम ब्रह्मा हो, तुम विष्णु हो, तुम रुद्र हो, तुम इन्द्र हो, तुम अग्नि हो, तुम वायु हो, तुम सूर्य हो, तुम चन्द्रमा हो, तुम (सगुण) ब्रह्म हो, तुम (निर्गुण) त्रिपाद भू:, भुव:, स्व: तथा ऊँकार (प्रणव)  तुम्हीं हो।।६।।

गणादिं पूर्वमुच्चार्य वर्णादिं तदनन्तरम्। अनुस्वार: परतर:। अर्धेन्दुलसितम्। तारेण रुद्धम्। एतत्तव मनुस्वरूपम्। गकार: पूर्वरूपम्। अकारो मध्यमरूपम् । अनुस्वारश्चान्त्यरूम्। बिन्दुरुत्तररूपम्। नाद: सन्धानम्। संहिता संधि:। सैषा गणेशविद्या। गणक ऋषि: निचृद् गायत्री छन्द:। श्रीमहागणपतिर्देवता। ॐ गं गणपतये नम:।।७।।

‘गण’ शब्द के आदि अक्षर गकार का पहले उच्चारण करके वर्णाक्षर अ का उच्चारण करें। उसके बाद अनुस्वारपूर्ण कर अर्द्धचन्द्र बिन्दु को अनुनासिक उच्चारण करें। इससे गं स्वरूप सिद्ध होगा। यह ओंकार के द्वारा रुद्ध हो, अर्थात् उसके पहले भी और पीछे भी ओंकार हो। यही तुम्हारे मन्त्र का स्वरूप (ॐ गं ॐ) है। ‘गकार’ पूर्वरूप है, ‘अकार’ मध्यमरूप है, ‘अनुस्वार’ अन्त्य रूप है। ‘बिन्दु’ उत्तररूप है। ‘नाद’ संधान है। ‘संहिता’ सन्धि है। ऐसी यह गणेशविद्या है। इस गणेश विद्या के गणक ऋषि (दृष्टा) हैं। निचृद् गायत्री छंद है और गणपति देवता हैं। ॐ गं गणपतये नम:, यह अष्टाक्षरी मन्त्र है इसके साथ नमस्कार करें।।७।।

गणेश गायत्रीमन्त्र

एकदन्ताय विद्महे  वक्रतुण्डाय धीमहि। तन्नो दन्ती प्रचोदयात्।।८।।

एकदन्त को हम जानते हैं, वक्रतुण्ड का हम ध्यान करते हैं। वह दन्ती (गजानन) हमें भक्ति की प्रेरणा प्रदान करें।।८।।

ध्यान

एकदन्तं चतुर्हस्तं पाशमंकुशधारिणम्।
अभय वरदं हस्तैर्विभ्राणं मूषकध्वजम्।।

रक्तं लंबोदरं शूर्पकर्णकं रक्तवाससम्।
रक्तगंधानुलिप्तांगं रक्तपुष्पै: सुपुजितम्।।
भक्तानुकम्पिनं देवं जगत्कारणमच्युतम्।
आविर्भूतं च सृष्ट्यादौ  प्रकृ‍ते: पुरुषात्परम्।
एवं ध्यायति यो नित्यं स योगी योगिनां वर:।।९। ।

गणपति एकदन्त और चतुर्बाहु हैं। वे अपने चार हाथों में पाश, अंकुश, अभय, और वरदान की मुद्रा धारण किए  हैं। उनके ध्वज में मूषक का चिह्न है। वे लाल वर्ण, विशाल उदर वाले, सूप जैसे बड़े-बड़े कानों वाले और लाल वस्त्रधारी हैं। शरीर पर लाल चंदन का लेप किए हुए हैं। वे लाल पुष्पों से भलीभांति पूजित हैं। वे भक्त के ऊपर अनुकम्पा करने वाले देवता, जगत के कारण, अच्युत, सृष्टि के आदि में आविर्भूत, प्रकृति और पुरुष से परे हैं।जो इस रूप में श्रीगणेश का नित्य ध्यान करता है वह योगी सब योगियों में श्रेष्ठ है।।९।।

नमो व्रातपतये नमो गणपतये नम: प्रमथपतये नमस्तेऽस्तु लंबोदरायैकदंताय विघ्नविनाशिने शिवसुताय श्रीवरदमूर्तये नमो नम:।।१०।।

देव समूह के नायक को नमस्कार, गणपति को नमस्कार, प्रमथपति (शिवजी के गणों के अधिनायक) को नमस्कार, लम्बोदर को, एकदन्त को, विघ्नविनाशक श्रीशिवजी के पुत्र को तथा श्रीवरदमूर्ति को बारम्बार नमस्कार है।।१०।।

गणपति अथर्वशीर्ष के पाठ का फल

एतदथर्वशीर्ष योऽधीते। स ब्रह्मभूयाय कल्पते। स सर्व विघ्नैर्नबाध्यते। स सर्वत: सुखमेधते। स पञ्च महापापात् प्रमुच्यते।।११।।

इस अथर्वशीर्ष का जो पाठ करता है, ब्रह्म को प्राप्त करने का अधिकारी हो जाता है। उसके कार्यों में कोई भी विघ्न बाधा नहीं आती। वह सब तरह के सुख पाता है। वह पांचों प्रकार के महापापों (ब्रह्महत्या, गोहत्या, सुरापान, गुरुस्त्रीगमन, सुवर्णचोरी) से मुक्त हो जाता है।।११।।

सायमधीयानो दिवसकृतं पापं नाशयति। प्रातरधीयानो रात्रिकृतं पापं नाशयति। सायं प्रात: प्रयुंजानो अपापो भवति। सर्वत्राधीयानोऽपविघ्नो भवति। धर्मार्थकाममोक्षं च विन्दति।।१२।।

सायंकाल पाठ करने से दिन में किए हुए पाप नष्ट हो जाते हैं। प्रात:काल पाठ करने से रात्रि में किए गए पापों का नाश होता है। जो प्रात: सायं दोनों समय यह पाठ करता है वह निष्पाप हो जाता है। जो हर समय पाठ करता है, वह विघ्नविहिन हो जाता है एवं धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष चारों पुरुषार्थों को प्राप्त करता है।।१२।।

इदम् अथर्वशीर्षम् अशिष्याय न देयम्।
यो यदि मोहाद्‍दास्यति स पापीयान् भवति।
सहस्रावर्तनात् यं यं काममधीते तं तमनेन साधयेत्।१३।।

यह अथर्वशीर्ष उसको नहीं देना चाहिए जो शिष्य न हो। यदि कोई मोह के वश अशिष्य को उपदेश देता है तो वह पातकी हो जाता है। इसका हजार बार पाठ करने से जो-जो कामनाएं की जाती हैं, वे सब पूरी हो जाती हैं।।१३।।

विविध प्रयोग

अनेन गणपतिमभिषिंचति स वाग्मी भवति। चतुर्थ्याम् अनश्नन् जपति स विद्यावान भवति। इत्यथर्वणवाक्यम्। ब्रह्माद्याचरणं विद्यात्। न बिभेति कदाचनेति।।१४।।

जो इस मन्त्र के द्वारा गणपति का अभिषेक करता है वह वक्ता बनता है। जो चतुर्थी तिथि को उपवास करके जपता है वह विद्यावान हो जाता है। यह अथर्वण ऋषि का वचन है। आदि ब्रह्मा के आवरण को जो व्यक्ति जान जाता है वह कभी भी भय को प्राप्त नहीं होता।।१४।।

यज्ञ-प्रयोग

यो दूर्वांकुरैर्यजति स वैश्रवणोपमो भवति। यो लाजैर्यजति स यशोवान् भवति। स मेधावान् भवति। यो मोदकसहस्रेण यजति स वाञ्छित फलमवाप्नोति। य: साज्यसमिद्भिर्यजति स सर्वं लभते स सर्वं लभते।।१५।।

जो दूर्वांकुरों के द्वारा भगवान गणपति का यजन करता है वह कुबेर के समान हो जाता है। जो लाजों (धान की खील) के द्वारा यजन करता है, वह यशस्वी व मेधावी होता है। जो हजार मोदकों के द्वारा यजन करता है, वह मनोवांछित फल को प्राप्त करता है। जो घृत सहित समिधा से हवन करता है वह सब कुछ प्राप्त करता है, वह सब कुछ पाता है।।१५।।

अन्य प्रयोग

अष्टौ ब्राह्मणान् सम्यग्ग्राहयित्वा सूर्यवर्चस्वी भवति। सूर्यग्रहे महानद्यां प्रतिमासंनिधौ वा जप्त्वा सिद्धमन्त्रो भवति। महाविघ्नात् प्रमुच्यते। महादोषात् प्रमुच्यते। महापापात् प्रमुच्यते। स सर्वविद्भवति। स सर्वविद्भवति।
य एवं वेद। इत्युपनिषद्‍।।१६।।

आठ ब्राह्मणों को सम्यक् रीति से अथर्वशीर्ष ग्रहण कराने पर मनुष्य सूर्य के समान तेजस्वी होता है। सूर्यग्रहण के समय महानदी में अथवा प्रतिमा के समक्ष जपने से मन्त्र सिद्ध होता है। वह व्यक्ति सभी महाविघ्नों से मुक्त हो जाता है। महापाप से मुक्त हो जाता है। महादोषों से मुक्त हो जाता है। वह सर्वज्ञ हो जाता है। यह निश्चित रूप से वेद है, यही उपनिषद् है।।१६।।

स्पष्ट है कि गणपति पूजन के द्वारा परमेश्वर का ही पूजन होता है।

7 COMMENTS

  1. Kripya margshir Shukla paksh ki Ekadasi ki jankari den
    Ekadasi vrat Karne ki Vidhi tatha vrat samapt Karne ki Vidhi
    Kya kuttu atta khaya ja sakta ha
    Kripya bataye ki Kripa karen

  2. नमस्कार मधुजी! मार्गशीर्ष शुक्ल पक्ष की एकादशी को ‘मोक्षा एकादशी’ कहते हैं। एकादशी को भगवान दामोदर की चंदन, तुलसी की मंजरी, धूप-दीप, फल व नैवेद्य से पूजा करें। विष्णु या गोपाल सहस्त्रनाम का पाठ या कोई भी कृष्ण या विष्णु की स्तुति और हरे राम हरे कृष्ण महामन्त्र की एक माला करने से विशेष पुण्य मिलता है। इस एकादशी का व्रत रखने वाला यदि अपने व्रत का पुण्य पितरों को दान करता है तो नीच योनि में पड़े पितरों की मुक्ति हो जाती है। एकादशी को फलाहार किया जाता है। इस व्रत में कुट्टु का आटा, सिंघाड़े का आटा, राजगीरा का आटा, साबूदाना, आलू, अरबी आदि कन्द, सेंधा नमक व काली मिर्च का प्रयोग किया जाता है। जीरा, हरीमिर्च व अदरक का प्रयोग भी कर सकते हैं। पर अन्य मसाले नहीं खाये जाते हैं।

  3. जहॉ धर्म है वहॉ हर प्रकार कीसुख संपत्ति है

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