shri moti dunagri ganesh bhagwan

भगवान श्रीगणेश को सिन्दूर अत्यन्त प्रिय है । सिन्दूर के बिना गणेश-पूजन अधूरा माना जाता है । पूजा में श्रीगणेश के मस्तक पर सिन्दूर लगाया जाता है । श्रीगणेश को सिन्दूर अर्पण करने से मनुष्य को कार्यों में सिद्धि मिलती है । विवाह की इच्छा से यदि सिन्दूर अर्पण किया जाए तो सुन्दर और सुयोग्य जीवनसाथी मिलता है । संतान की इच्छा रखने वाले को स्वस्थ और मेधावी संतान की प्राप्ति होती है और घर में सुख-शान्ति रहती है ।

भगवान गणेश की सिंदूर-प्रियता की कथा

द्वापर युग की बात है । एक बार चतुर्मुख ब्रह्मा आनन्दमग्न होकर शयन कर रहे थे । जब उनकी निद्रा पूर्ण हुई, तब जँभाई लेते समय उनके मुख से एक महाघोर पुरुष प्रकट हुआ । जन्म लेते ही उसने त्रिलोकी को कंपा देने वाली गर्जना की । उस पुरुष की अंगकान्ति जपाकुसुम के समान लाल थी ।

ब्रह्माजी ने उससे पूछा—‘तुम कौन हो और तुम्हारा जन्म कहां हुआ ?’

उस पुरुष ने उत्तर दिया—‘जँभाई लेते समय मैं आपके मुख से प्रकट हुआ हूँ; इसलिए आपका पुत्र हूँ । आप मेरा नामकरण कर दीजिए ।’

विधाता अपने पुत्र के सौंदर्य पर मुग्ध हो गए । अत्यंत लाल वर्ण का होने से उन्होंने उसका नाम ‘सिन्दूर’ रख दिया और उसे वर देते हुए कहा—‘त्रिलोकी में जो स्थान तुझे प्रिय लगे वहां निवास कर । त्रिलोकी को अधीन करने की तुझमें अद्भुत क्षमता होगी, तू जिसको भी अपनी विशाल भुजाओं में पकड़ कर दबोचेगा, उसके शरीर के सैंकड़ों टुकड़े हो जाएंगे ।’

वर प्राप्त होने पर मदोन्मत्त सिन्दूर ने उनके वर की परीक्षा पिता पर ही करनी चाही और उन्हें बांहों में दबोचने लगा । उसकी कुचेष्टा को भांप कर दु:खी होकर पितामह ब्रह्माजी ने उसे शाप दिया—‘सिन्दूर ! अब तू असुर हो जा । सिन्दूर-प्रिय गजानन तेरे लिए अवतरित होकर तेरा वध करेंगे ।’

शाप देकर ब्रह्माजी दौड़ते हुए वैकुण्ठ पहुंचे और अपनी सारी व्यथा श्रीविष्णु से निवेदन की । युद्ध के लिए फड़कती भुजाएं लेकर सिन्दूर भी वहां पहुंच गया । भगवान विष्णु द्वारा समझाने पर भी जब सिन्दूर न माना तो विष्णुजी ने उसे भगवान शंकर से युद्ध करने के लिए कहा । बलोन्मत्त सिन्दूर समाधिस्थ भगवान शंकर के पास पहुंचा । उसने पास ही बैठी माता पार्वती पर कुदृष्टि डाली और उनकी वेणी पकड़कर खींचने लगा, जिससे शंकरजी की समाधि भंग हो गयी और वे सिन्दूर को मारने के लिए दौड़े । 

उसी समय माता पार्वती ने गणेशजी का स्मरण किया । ब्राह्मणवेश में मयूरेश उपस्थित हो गए और उन्होंने असुर से कहा—‘माता गिरिजा को तुम मेरे पास छोड़ दो, फिर शिव के साथ युद्ध करो । युद्ध में जिसकी विजय होगी, पार्वती उसी की होगी ।’

मयूरेश के वचन सुन कर सिन्दूर ने पार्वती को छोड़ दिया । शंकरजी और दुष्ट सिन्दूर का युद्ध हुआ जिसमें असुर पराजित होकर पृथ्वी लोक को चला गया ।

माता पार्वती ने ब्राह्मण वेशधारी मयूरेश से पूछा—‘आप कौन हैं ?’

ब्राह्मण वेशधारी मयूरेश अपने स्वरूप में प्रकट होकर माता से बोले—मां ! मैं आपका पुत्र हूँ । द्वापर में शीघ्र ही ‘गजानन’ नाम से अवतरित होकर इस दुष्ट दैत्य का संहार करुंगा और भक्तों की मनोकामना पूर्ति कर उन्हें सुख-शान्ति दूंगा । मैं गजानन नाम से प्रसिद्ध होऊंगा‘ ।’

इधर सिन्दूर ने पृथ्वी लोक में पहुंचते ही अत्याचारों की बाढ़ लगा दा । धर्म और सत्कर्म का लोप हो गया । देवताओं ने गुरु बृहस्पति के आदेश से विनायक की स्तुति की । गणपति ने प्रकट होकर सबको आश्वस्त किया और अंतर्धान हो गए ।

भगवान श्रीगणेश का गजानन अवतार

कुछ समय बाद माता पार्वती के सम्मुख एक दिव्य बालक ‘गजानन’ आविर्भूत हुआ । वह रक्तवर्ण, चतुर्भुज व सूंड से सुशोभित था । उसके मस्तक पर चन्द्रमा और हृदय पर चिंतामणि थी । आंखें छोटी और उदर विशाल था ।

देवता अपने भक्त का कष्ट देख नहीं पाते हैं, वे उनके कष्ट दूर करने में लगे रहते हैं । श्रीगणेश का एक भक्त था महिष्मती का राजा वरेण्य जिसके नवजात शिशु को एक राक्षसी उठा कर ले गई । उनकी पत्नी पुष्पिका प्रसव-कष्ट से मूर्च्छित थी; इसलिए उसको इस बात का पता नहीं चला ।

ऊधर आविर्भूत शिशु गजानन ने माता-पिता से कहा—‘मेरे भक्त का अनर्थ होने वाला है । उसकी पत्नी पुष्पिका को होश आने से पहले मुझे उसके पास पहुंचा दीजिए । देर होने पर वह सच्चाई जान लेगी और जीवित नहीं बचेगी ।’

गजानन की बात सुनकर भगवान शंकर ने नन्दी के द्वारा नवजात शिशु को चुपचाप महिष्मती नगर की महारानी पुष्पिका के पास रखवा दिया । प्रात:काल पुष्पिका को जब होश आया तो अपने बगल में अलौकिक बालक—रक्तवर्ण, चतुर्बाहु, गजवक्त्र, कस्तूरी तिलक लगाए, पीताम्बर पहने व दिव्य आभूषणों से सुशोभित—देखा तो राजा वरेण्य और पुष्पिका भयभीत हो गए । सभी ने राजा को सलाह दी कि ऐसे विचित्र बालक को घर में नहीं रखना चाहिए । राजा के दूत शिशु को वन में  एक सरोवर के पास छोड़ आए ।

संसार में बुद्धिमान माने जाने वाले मनुष्य का ज्ञान कितना थोथा होता है कि ब्रह्मा का पुत्र स्वस्थ और सुन्दर होने पर उसे देखकर विधाता इतने प्रसन्न हुए कि पात्र-कुपात्र का विचार किए बिना उसे वरदान की अनमोल निधि सौंप दी और माता पार्वती के पुत्र गजमुख थे, देखने में सुन्दर नहीं थे तो उन्हें हिंसक पशुओं के आहार के लिए निर्जन वन में फेंक दिया गया ।

वन में जब महर्षि पाराशर ने दिव्य तेज और शुभ लक्षणों से युक्त बालक को देखा तो वे समझ गए कि ये तो साक्षात् परमात्मा ही अवतरित हुए हैं । बालक के नन्हें-नन्हें चरणकमलों में ध्वज, अंकुश और कमल की रेखाएं थीं ।

करबद्ध होकर उन्होंने शिशु की स्तुति की और गोद में उठा कर बालक को तेजी से अपने आश्रम में ले आए । उनकी पत्नी वत्सला का शिशु को देखकर वात्सल्य उमड़ आया और वे अपने भाग्य की भूरि-भूरि प्रशंसा करने लगीं । दोनों तपस्वी बच्चे का पालन-पोषण बड़े लाड़ से करने लगे । गजानन के चरण पड़ते ही महर्षि का आश्रम भी दिव्य हो गया । वहां के सूखे वृक्ष भी पल्लवित हो उठे, गायें कामधेनु के समान हो गयीं ।

धन्य है प्रभु की लीला ! जो सम्पूर्ण विश्व का भरण करने वाले हैं, वे ही प्रभु अपनी लीला से आश्रम में पोषित हो रहे हैं । राजा वरेण्य तक भी यह समाचार पहुंच गया ।

भगवान गणेश को सिंदूर क्यों लगाया जाता है ?

गजानन नौ वर्ष के हुए तो अपनी कुशाग्र बुद्धि से समस्त वेद, उपनिषदों व शास्त्रों में पारंगत हो गए । इधर पृथ्वी पर अत्यंत उदण्ड और आतातायी सिन्दूर दैत्य का अत्याचार पराकाष्ठा पर पहुंच गया । अधिकांश सत्वगुण-सम्पन्न धर्मपरायण देव और ब्राह्मण सिन्दूर के कारागार में यातना सह रहे थे ।

इससे क्षुब्ध गजानन अपने पिता महर्षि पाराशर के पास जाकर बोले—‘सिन्दूरासुर के अत्याचार से धरती त्रस्त हो गयी है, अत: आप और मां मुझे आशीर्वाद दें, जिससे मैं अधर्म का नाश और धर्म की स्थापना कर सकूं ।’

गद्गद् महर्षि के मुख से केवल अधूरा वाक्य ही निकल पाया—‘माता-पिता तो अपने प्राणों से प्यारे पुत्र को सदा ही विजय ………..।’

‘गजानन’ का अवतार तो दुष्टों के विनाश के लिए हुआ था । गजानन अपने चारों हाथों में पाश, अंकुश, परशु और कमल धारण कर मूषक पर बैठ कर भीषण गर्जना करते हुए वायु वेग से चले । सिन्दूर के पास पहुंचने पर उन्होंने विराट् रूप धारण कर लिया । उनका मस्तक ब्रह्माण्ड को और दोनों पैर पाताल को छूने लगे । गजानन का सहस्त्रशीर्ष, सहस्त्राक्ष और सहस्त्रपाद वाला विराट रूप सर्वत्र व्याप्त हो गया ।

उन्होंने शीघ्र ही सिन्दूर और उसकी दानव सेना को युद्ध में परास्त कर दिया । उस समय क्रुद्ध गजानन ने उस सिन्दूर का रक्त अपने दिव्य अंगों पर पोत लिया । तभी से वे सिन्दूरहा, सिन्दूरप्रिय तथा सिन्दूरवदन कहलाए ।

गजानन को सिन्दूरलिप्त देकर सभी देवगण आकाश से पुष्पवृष्टि करने लगे । राजा वरेण्य और रानी पुष्पिका ने आकर अपनी भूल के लिए गजानन से माफी मांगी । तब गजानन ने कहा—‘तुम दोनों ने पूर्वजन्म में सूखे पत्तों पर जीवन-निर्वाह करते हुए सहस्त्र वर्षों तक तपस्या कर मुझे पुत्र रूप में प्राप्त करने की इच्छा की थी और तब तुमने मेरे लिए मोक्ष को भी छोड़ दिया था । अत: इस जन्म मे सिन्दूर का वध करने और सुख-शान्ति की स्थापना करने के लिए मैं तुम्हारे यहां पुत्र रूप में अवतरित हुआ था, अन्यथा मैं तो निराकार रूप में अणु-परमाणु में व्याप्त हूँ । अब मेरे अवतार का प्रयोजन पूर्ण हो चुका है और मैं स्वधाम गमन करुंगा ।’

ऐसा कह कर सबको प्रसन्न कर भगवान गजानन अन्तर्धान हो गए । अपने भक्त वरेण्य को गजानन ने जो ज्ञानोपदेश दिया, वह ‘गणेश-गीता’ के नाम से प्रसिद्ध है ।

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