Katyayni Devi

हरियश गावत चली ब्रजसुंदरी नदी यमुना के तीर।
लोचन लोल बांह जोड़ि कर श्रवणन झलकत बीर।।
बेनि शिथिल चारु कांधे पर कटिपट अंदर लाल।
हाथन लिये फूलन की डलियां उर मुक्ता मणिमाल।।
जल प्रवेश कर मज्जन लागी प्रथम हेम के मास।
जैसे प्रीतम होय नंदसुत व्रत ठान्यो यह आस।
तबतें चीर हरे नंदनंदन चढ़े कदंब की डारि।
परमानंद प्रभु वर देवे को उद्यम कियो है मुरारि।।

भगवान श्रीकृष्ण की तरह गोपियां अलौकिक, अप्राकृत और दिव्य

भगवान चिन्मय हैं अत: उनकी लीलाएं भी चिन्मयी होती हैं। भगवान की तरह गोपियों का स्वरूप भी अलौकिक, अप्राकृत और दिव्य है। आचार्यों ने ‘गोपी’ शब्द के अनेक अर्थ किए हैं। ‘गोपायती श्रीकृष्ण इति गोपी’ अर्थात् जिसके शरीर में श्रीकृष्ण का स्वरूप गुप्त है, जिसके हृदय में श्रीकृष्ण को छोड़कर कुछ नहीं है, उसे गोपी कहते हैं। श्रीमद्भागवत में ‘गोपी’ शब्द का भावार्थ ‘परमात्मा को प्राप्त करने की तीव्र इच्छा’ बताया है। ‘गोभि: पिबति इति गोपी’ अर्थात् जो प्रत्येक इन्द्रिय से भक्तिरस का पान करती है, वह गोपी है।

गोपियां अपनी समस्त इन्द्रियों–आंखों से श्रीकृष्ण का दर्शन, कानों से कृष्ण लीला का श्रवण, मुख से कृष्णलीला का गायन और मन से भगवान का सतत् ध्यान करती हैं इसलिए उनका शरीर भगवान जैसा दिव्य बन गया है। श्रीकृष्ण योगेश्वरेश्वर, पूर्ण पुरुषोत्तम हैं, गोपी शुद्ध जीव हैं। शुद्ध जीव द्वारा ईश्वर मिलन के लिए  की गयी साधना ही इस प्रसंग का विषय है।

श्रीमद्भागवत के दसवें स्कन्ध के २१वें अध्याय में बताया गया है कि भगवान श्रीकृष्ण की रूपमाधुरी, वेणुवादन और लीलाओं को देखकर गोपियां मुग्ध हो जाती हैं और २२वें अध्याय में उसी कृष्णप्रेम को प्राप्त करने के लिए साधना में लग जाती हैं। प्रेम का आरम्भ द्वैत (दो) से होता है किन्तु प्रेम की समाप्ति अद्वैत (एक) में होती है। मन के पूर्ण निष्काम होने के बाद अब गोपियां परमात्मा से अलग नहीं रह सकतीं। काम एक कांटा है। कांटे को कांटे से ही निकालना पड़ता है। ऋषिरूपा गोपियां ‘काम’ को परमात्मा को अर्पण करती हैं। निष्काम परमात्मा को अर्पण किए हुए ‘काम’ से विकार उत्पन्न नहीं होता।

गोपिकाओं का कात्यायनी व्रत-पूजन

हेमन्ते प्रथमे मासि नन्दब्रजकुमारिका:।
चेरुर्हविष्यं भुज्जाना: कात्यायन्यर्चनव्रतम्।। (श्रीमद्भा. १०।२२।१)

हेमन्त ऋतु का प्रथम महीना मार्गशीर्ष भगवान की विभूतिस्वरूप है। श्रीमद्भगवद्गीता के दसवें अध्याय (३५वां श्लोक) में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है–‘मासानां मार्गशीर्षोऽहमृतुनां कुसुमाकर:।’

मार्गशीर्षमास (अगहन) में व्रजबालाओं ने अपने प्राणप्रियतम श्रीकृष्ण को पति रूप में प्राप्त करने के लिए मां कात्यायनी के पूजन का व्रत आरम्भ किया। सारी गोपियां उषाकाल में शय्या त्यागकर एक दूसरे को नाम लेकर पुकारतीं और एकजुट होकर आपस में गलबहियां डालकर ऊंचे स्वर में श्रीकृष्ण के गुण-लीला और कीर्तन गाती हुई यमुनातट की ओर चल देतीं। उनमें आपस में ईर्ष्या-द्वेष नहीं था। वे श्रीकृष्ण के लिए इतनी व्याकुल हो गईं थीं कि माता-पिता और गांववालों का भी उन्हें संकोच नहीं रह गया था। उन्होंने अपना कुल, परिवार, धर्म, संकोच  सब कुछ भगवान के चरणों में समर्पित कर दिया था।

गोपियां यमुना किनारे जाकर अपने कपड़े वृक्षों की डालियों पर डाल देतीं और यमुनाजी में स्नान करतीं। स्नान के बाद वस्त्र धारणकर वहीं तट पर बालुका से देवी की मूर्ति बनातीं। फिर सुगन्धित चंदन, अगरु, कस्तूरी, कुंकुम, अक्षत, पुष्पहार, धूप, दीप, सुन्दर पल्लव, फल, नैवेद्य और मणि, मोती, मूंगे आदि चढ़ाकर अनेक प्रकार के बाजे बजाकर बड़े मनोयोग से मां कात्यायनी की पूजा करतीं। कात्यायनीदेवी श्रीकृष्ण मन्त्राधिष्ठात्री हैं, दुर्गा हैं। गोपियों ने केवल हविष्यान्न खाकर एक मास तक मां की आराधना की। गोपियां मूंगे की माला से इस मन्त्र का एक सहस्त्र जप करतीं–

कात्यायनि महामाये महायोगिन्यधीश्वरि।
नन्दगोपसुतं देवि पतिं मे कुरु ते नम:।। (श्रीमद्भा. १०।२२।४)

अर्थात्–हे कात्यायनी! हे महामाये। हे महायोगिनी! हे अधीश्वरि! आप नन्दनन्दन श्रीकृष्ण को हमारा पति बना दीजिए! देवि! हम आपके चरणों में नमस्कार करती हैं।

गोपियां सबसे परे हैं क्योंकि वे सर्वस्व निछावर करके श्रीकृष्ण से प्रेम करती हैं। वे चिरकाल से श्रीकृष्ण के प्राणों में अपने प्राण मिला देने के लिए उत्कंठित हैं। श्रीकृष्ण पतिरूप में मिलें–इसका अर्थ है मुझे परमात्मा से मिलना है, परमात्मा के साथ एकाकार होना है। मां कात्यायनी ब्रह्मविद्या का स्वरूप हैं जो परमात्मा से मिलन कराती हैं।

श्रीकृष्ण चराचर जगत की आत्मा, समस्त क्रियाओं के कर्ता-भोक्ता-साक्षी, सर्वव्यापक और अन्तर्यामी हैं। ऐसा एक भी पदार्थ नहीं है जो बिना किसी परदे के उनके सामने न हो। गोपियां श्रीकृष्ण के वास्तविक रूप को जानती थीं और उनको भगवान, पूर्ण पुरुषोत्तम जानते हुए पति के रूप में प्राप्त करना चाहती थीं।

व्रजांगनाओं द्वारा निष्ठापूर्वक किए गए व्रतार्चन ने महामाया कात्यायनी और सांवले-सलोने कन्हैया दोनों का मन मोह लिया। गोपियों की भक्ति से प्रसन्न होकर मां कात्यायनी की कृपा से स्वयं मनमोहन यमुनातट पर आ पहुंचे।

यमुना तट देखे नंदनन्दन।
मोर मुकुट मकराकृत कुंडल पीत वसन तन चर्चित चंदन।।
लोचन तृप्त भये दरशन तें उर की तपत बुझानी।
प्रेम मग्न तब भई ग्वालिनी तन की दशा भुलानी।।
कमल नयन तट पर रहे ठाढे तहां सकुच मिली नारी।
सूरदास प्रभु अंतरयामी व्रत पूरन वपुधारी।।

गोपियां श्रीकृष्ण को प्राप्त करने के लिए जो साधना कर रही थीं, उसमें एक त्रुटि थी। वे शास्त्र-मर्यादा का उल्लंघन करके यमुनाजी में निर्वस्त्र-स्नान करती थीं। भगवान के द्वारा इसका सुधार होना आवश्यक था और भगवान ने इसका उनसे प्रायश्चित भी करवाया।

श्रीकृष्ण गोपियों के वस्त्रों के रूप में उनके समस्त संस्कारों के आवरण अपने हाथ में लेकर पास ही कदम्ब के वृक्ष पर जाकर बैठ गए। गोपियां आकण्ठ जल में डूबीं थी; वे जल में सर्वदृष्टा भगवान श्रीकृष्ण से मानो अपने को गुप्त समझ रहीं थीं। वे इस बात को भूल गयीं थीं कि श्रीकृष्ण जल में ही नहीं अपितु जलस्वरूप भी हैं। वे श्रीकृष्ण के लिए सबकुछ भूल गयीं थी पर अबतक अपने को नहीं भूलीं थी।  भगवान को चाहना और माया के परदे को बनाए रखना–भगवत्प्राप्ति में यही सबसे बड़ी बाधा है।

गोपियों के इसी संस्कार को दूर करने के लिए श्रीकृष्ण लगे गोपियों से परिहास करने। ऋषिरूपा गोपियों के लिए श्रीमद्भागवत में ‘कुमारिका’ शब्द का प्रयोग किया गया है। कन्हैया ने कहा–’मुझसे अनन्य प्रेम करने वाली कुमारियो! संस्कारशून्य होकर, माया का परदा हटाकर आओ, तभी तुम्हारी चिरकाल से संचित आकांक्षाएं पूरी होंगी। तुम लोग अपने-अपने वस्त्र आकर ले जाओ। तुम्हारी इच्छा हो तो अलग-अलग आकर वस्त्र ले लो या फिर सब एक साथ ही आ जाओ।’

भगवान के इस दिव्य लीला विनोद से जल में कण्ठ तक डूबी हुई गोपियों ने लजाते हुए कहा–’हे कृष्ण! देखो अनीति मत करो। तुम हमारे प्यारे हो, हम तुम्हारी दासी है, तुम जो कुछ कहोगे, उसे हम करने को तैयार हैं। पर तुम हमारे वस्त्र (आवरण) लौटा दो; नहीं तो हम जाकर नन्दबाबा से कह देंगीं।’

अहो हरि हम हारी तुम जीते।
नागर नट पट देहो हमारे कांपत है तन सीते।।
कानन कुंडल मुकुट विराजत कान्ह कुंवर के हों वारी।
हाहा खात पैयां परत हों अब हों चेरि तुम्हारी।।
तब तेरो अंबर देहों री सजनी जल तें होय सब न्यारी।
सूरदास प्रभु तिहारे मिलन कों तुम जीते हम हारी।।

गोपियां भगवान से यही प्रार्थना कर रही हैं कि हम आपकी दासी हैं। हम संसाररूपी अगाध जल में कण्ठ तक डूबी हुई हैं। जाड़े का भी कष्ट है। हम आपके चरणों में नतमस्तक हैं।

श्रीकृष्ण ने व्रजकुमारिकाओं से कहा–’तुमने व्रत धारण करके जो वस्त्रहीन होकर जल में स्नान किया है, इससे जल के अधिष्ठातृ देवता वरुण का तथा यमुनाजी का अपराध हुआ है। इसलिए हाथ जोड़कर नतमस्तक होकर इनसे क्षमा मांगो। अब यह आवरण तुम्हारा नहीं, हमारा है। हम रखेंगे तो रहेगा और मिटायेंगे तो मिटेगा। यदि तुम मेरी बात मानने को तैयार हो तो यहां आकर अपने-अपने वस्त्र ले लो।’

परमपिता परमात्मा श्रीकृष्ण का यह आह्वान, परमात्मा के मिलन का यह मधुर आमन्त्रण जिसके हृदय में प्रकट हो जाता है, वह सब कुछ छोड़कर परमात्मा श्रीकृष्ण के चरणों में दौड़ पड़ता है। न तो उसे वस्त्रों का ध्यान रहता है और न ही जगत की परवाह।

अब गोपियां क्या करतीं? सब-की-सब ठंड से ठिठुरती हुई अपने अंगों का गोपन करती हुई यमुनाजी से बाहर निकलीं और श्रीकृष्ण के चरणों के पास मूकभाव से खड़ी हो गयीं। गोपियों की दृष्टि श्रीकृष्ण के मुखकमल पर पड़ी और दोनों हाथ अपने-आप जुड़ गए। भगवान ने उन पर अपनी एक दृष्टि डालकर उनके अंदर जो कुछ लज्जा, शंका, भय, जुगुप्सा, कुल, जाति, शील का पाश था, वह सब छिन्न-भिन्न कर दिया।

जल में निर्वस्त्र स्नान से व्रत खंडित होने की बात सुनकर गोपियां व्याकुल हो गईं। उन्होंने समस्त कर्मों के साक्षी सूर्यमण्डल में विराजमान अपने प्रियतम श्रीकृष्ण से अपराध क्षमा करने की प्रार्थना की। श्रीकृष्ण अपने भक्तों की मर्यादा की रक्षा करने वाले हैं। वे स्वयं गोपियों को वस्त्र देते हैं। भगवान के सम्मुख जाने में (पूर्ण समर्पण में) जो वस्त्र पहले बाधक थे, वे ही भगवान के प्रेम, स्पर्श और वरदान से ‘प्रसाद’ बन गये। भगवान ने अपने हाथ से उन वस्त्रों को उठाया था इसलिए उनके स्पर्श से वे वस्त्र भी ‘कृष्णमय’ हो गये।

श्रीकृष्ण ने गोपियों से कहा–’हे बालाओ! तुम सती-साध्वी हो। तुम्हारा संकल्प, तुम्हारी कामना मुझे मालूम है, इसलिए तुम अपने घरों को लौट जाओ। तुम मेरी पूजा करना चाहती हो। मेरे साथ विहार करने के जिस उद्देश्य से तुम लोगों ने यह व्रत रखा था और कात्यायनीदेवी की पूजा की थी, तुम्हारा वह मनोरथ आगामी शरद्ऋतु की रात्रि में फलीभूत होगा।’

जब काम संसार के विषय के लिए होता है, तब वह अंकुरित होता है और उससे पुनर्जन्म, परलोक, स्वर्ग और नरक उत्पन्न होते हैं। परन्तु यदि किसी ने अपनी वृत्ति को, अपने चित्त को भगवान में अर्पित कर दिया हो तब वह काम संसार का हेतु नहीं होता।

भगवान श्रीकृष्ण के शब्दों में–‘मुझमें समाहित चित्त वालों की कामनाएं उन्हें सांसारिक भोगों की ओर नहीं ले जा सकतीं; जैसे भुने हुए धान फिर कभी बीज का कार्य नहीं कर सकते।’

श्रीवल्लभाचार्यजी का कहना है कि–’भगवान आप्तकाम और अकाम हैं। उनके प्रति की गयी कामना अकाम हो जाती है और कामी और काम्य दोनों एक हो जाते हैं।’

भगवान ने गोपियों को कह दिया कि जाओ, तुम सिद्ध हो गयीं। जिसके लिए तुमने देवी की पूजा की थी, वह तुम्हें प्राप्त हो गया। भगवान की बात मानकर व्रजगोपिकाएं अपने घर को लौट गईं। इस प्रकार मां कात्यायनीव्रत के अनुष्ठान से उन्होंने अपना मनोवांछित फल प्राप्त किया।

इस कथा का गूढ़ार्थ

इस लीला का तात्त्विक अर्थ है–जीव और ईश्वर के बीच में एक आवरण (पर्दा) आ गया है। चाहे वह धर्म-कर्म का हो, संचित संस्कारों का हो या अज्ञान का। हमारे हृदय में घृणा, शंका, भय, लज्जा, कुलाभिमान, शील आदि का आवरण रहता है। सच्चे सेवक व स्वामी के बीच कुछ दुराव नहीं रहना चाहिए। यही हमारी वृत्तिरूपी गोपियों का आवरण-भंग है। यही आवरण-भंग ही चीर-हरण लीला है।

इस प्रसंग के महत्वपूर्ण तथ्य

  • शास्त्रों में बताये गये व्रतों के अनुष्ठान से भगवान की दुर्लभ कृपा भी सहज प्राप्त हो जाती है; जैसे गोपियों ने कात्यायनी व्रत-पूजन से श्रीकृष्ण को पतिरूप में प्राप्त किया।
  • भगवान का आश्रय लेकर किए गए कार्यों में होने वाली त्रुटियों का परिमार्जन भगवान स्वयं करा देते हैं जैसे भगवान श्रीकृष्ण ने गोपियों के जल में विवस्त्र-स्नान के दोष को दूर किया।
  • सच्ची लगन व विश्वास के साथ उपासना करने से भगवान स्वयं भक्तों के समीप चले आते हैं; जैसे गोपियों द्वारा किए गए कात्यायनी-व्रत से श्रीकृष्ण स्वयं यमुना-तट पर चले आए।
  • गोपियों के चीरहरण लीला द्वारा श्रीकृष्ण ने नदी की पवित्रता की रक्षा की और यह संदेश दिया कि भगवान का सांनिध्य प्राप्त करने के लिए मनुष्य को ऊपरी दोषों को हटाना होगा, तभी भगवान के साथ मिलन संभव होगा।

जीव अपनी शक्ति से, बल से और संकल्प से भगवान के सामने पूर्ण समर्पण नहीं कर सकता। अन्तरात्मा का पूर्ण समर्पण तब होता है, जब भगवान स्वयं आकर वह संकल्प और संकल्प करने वाले को स्वीकार करते हैं। मनुष्य तो केवल पूर्ण समर्पण की तैयारी कर सकता है।

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