bhagwan narsimha vishnu avatar

नमो नमस्ते जयसिंहरूप,
नमो नमस्ते नरसिंहरूप ।
नमो नमस्ते रणसिंहरूप ।
नमो नमस्ते नरसिंहरूप ।।

परमात्मा जब अपने भक्तों के कष्ट हरने और उन्हें सुख देने के लिए पृथ्वी पर अवतरित होते हैं तो वह तिथि और मास भी पुण्यमय हो जाता है । वैशाख शुक्ल चतुर्दशी को भगवान विष्णु अपने भक्त प्रह्लाद का संकट हरने के लिए नृसिंह रूप में प्रकट हुए थे, अत: यह तिथि ‘नृसिंह जयंती’ के रूप में जानी जाती है ।

भगवान नृसिंह के प्राकट्य की कथा

बालक प्रह्लाद भगवान श्रीहरि के अनन्य भक्त थे । जब वे माता के गर्भ में थे उस समय उनकी माता कयाधू देवर्षि नारद के आश्रम में निवास कर रही थीं । देवर्षि नारद ने कृपा कर गर्भ में ही उन्हें भगवद्भक्ति का यह उपदेश दिया था—

‘सर्वशक्तिमान भगवान सब जगह व्याप्त हैं । वे अपने भक्तों के कल्याण के लिए चाहे जहां प्रकट होकर उन्हें दर्शन देते हैं । भक्तवत्सल भगवान श्रीहरि के नामों का सदैव ही गुणगान करना चाहिए ।’

नारद जी का यह उपदेश प्रह्लाद जी के जीवन का मंत्र बन गया । पांच वर्ष के बालक प्रह्लाद की भगवद् बुद्धि को देख कर पिता हिरण्यकश्यप अत्यंत कुद्ध हो गया । वह ‘भगवान’ कहने वाले और ‘भगवान के नामों का उच्चारण करने वालों’ को अपना सबसे बड़ा शत्रु मानता था; इसलिए पुत्र प्रह्लाद भी हिरण्यकश्यप की आंख का कांटा बन गया । हिरण्यकश्यप ने पुत्र को मारने के लिए उसे भीषण-से-भीषण यातनाएं दीं; किंतु भक्त की रक्षा करने वाले जब स्वयं भगवान हैं तो फिर उसे कौन मारने में समर्थ हो सकता है ?

जाको राखै साइयाँ, मार सके नहिं कोय ।
बाल न बाँका कर सके, जो जग बैरी होय ।।

जो भगवान की गोद में सुरक्षित है, उसे मृत्यु का भय कैसा ? प्रह्लाद का भगवत्प्रेम ही उसका सुरक्षा-कवच था । खंभे से बंधे होने पर भी प्रह्लाद आनंदित होकर भगवान के नामों का जप कर रहे थे । जब हिरण्यकश्यप ने पूछा—‘बता, तेरा भगवान कहा है ?’ तो प्रह्लाद ने सरल भाव से कहा—‘वह तो कण-कण में व्याप्त है ।’

हिरण्यकश्यप ने पूछा—‘क्या वह इस खंभे में भी है ?’ तो प्रह्लाद जी ने खंभे में भी भगवान के होने की पुष्टि कर दी ।

इस पर हिरण्यकश्यप तीक्ष्ण खड्ग लेकर उन्हें मारने को जैसे ही उद्यत हुआ, वैसे ही श्रीहरि खंभ फाड़ कर नृसिंह रूप में प्रकट हो गए । हिरण्यकश्यप को मार कर उन्होंने अपने प्रिय प्रह्लाद को दिव्य दर्शन दिए ।

केवल भक्त ही भगवान के क्रोध को शांत कर सकता है 

लेकिन हिरण्यकश्यप के वध के बाद भी भगवान नृसिंह का क्रोध शांत नहीं हुआ । तब देवताओं ने लक्ष्मी जी को उनके निकट भेजा; परन्तु भगवान के उस उग्र रूप को देख कर वे भी भयभीत होकर उनके पास न जा सकीं । 

तब प्रह्लाद जी भगवान के निकट जाकर उनके चरणों में साष्टांग प्रणाम कर लेट गए । 

अपने चरणों में एक नन्हें बालक को पड़ा हुआ देख कर भगवान दयार्द्र हो गए । उन्होंने प्रह्लाद को उठा लिया और लगे जीभ से चाटने । भगवान ने कहा—‘बेटा प्रह्लाद ! मुझे आने में बहुत देर हो गई । तुझे बहुत कष्ट उठाने पड़े । तू मुझे क्षमा कर दे ।’

प्रह्लाद जी का कंठ भर आया और वे हाथ जोड़ कर भगवान की स्तुति करने लगे । भगवान ने उनके सिर पर अपना करकमल रख दिया जिससे उन्हें परम तत्त्व का ज्ञान हो गया । प्रह्लाद जी आज भी अमर हैं और सुतल लोक में अब भी भगवान का भजन करते हुए निवास करते हैं ।

तभी से भगवान नृसिंह का वही दिव्य रूप भक्तों का सर्वस्व बन गया । जिस प्रकार शिव-पार्वती, सीता-राम, व राधे-कृष्ण की युगल स्वरूप की उपासना होती है; वैसे ही भगवान नृसिंह की अनन्य शक्ति माता लक्ष्मी के साथ उपासना की जाती है ।

मद्रास-रायचूर लाइन पर आरकोनम् से ११९ मील पर कडपा स्टेशन है । यहां से कुछ दूर पर अहोबिल है । कहा जाता है कि ये ही हिरण्यकश्यप की राजधानी थी और यहीं भगवान नृसिंह ने प्रकट होकर प्रह्लाद की रक्षा की थी ।

भगवान नृसिंह का स्वरूप

भगवान नृसिंह न तो मनुष्य हैं न पशु । नृसिंह के रूप में उनका अलौकिक रूप है–उनकी तपाये हुए सोने के समान पीली-पीली भयानक आंखें हैं, चमचमाते हुए गर्दन और मुंह के बालों से उनका चेहरा भरा-भरा दिखता है, तलवार के समान लपलपाती हुई तथा छुरे की धार के समान पैनी उनकी जीभ है, टेढ़ी भौंहों के कारण उनका मुख और भी भीषण दिखता है, कान ऊपर की ओर उठे हुए फूली हुई नाक है, खुला हुआ मुख किसी गुफा के समान दिखाई पड़ता है, फटे हुए जबड़ों के कारण उनका स्वरूप और भी अधिक भीषण दिखाई देता है । उनका विशाल शरीर, चौड़ी छाती व पतली कमर है । चन्द्रकिरणों के समान सारे शरीर पर श्वेत रोयें हैं । चारों ओर सैकड़ों भुजाएं फैली हुई हैं, जिनके बड़े-बड़े नाखून अस्त्र का काम कर रहे हैं । (श्रीमद्भागवत, ७।८।२०-२२)

भगवान नृसिंह का प्रार्थना मंत्र

श्रीमत्पयोनिधि निकेतन चक्रपाणे,
भोगीन्द्र भोगमणिरंजित पुण्यमूर्ते ।
योगीश शाश्वत शरण्य भवाब्धि पोत,
लक्ष्मीनृसिंह मम देहि करावलम्बम्। ।१।।

अर्थात्–हे भगवन् ! आपका रूप अत्यन्त सुन्दर है, क्योंकि आप भाग्य की देवी लक्ष्मी जी के स्वामी हैं । आप क्षीरसमुद्र में निवास करते हैं और हाथ में सुदर्शन चक्र धारण करते हैं । आप नागों के राजा अनन्त (शेषजी) के रत्नमय शरीर पर निवास करते हैं, जिससे आपका मंगलमय रूप और अधिक प्रकाशवान हो जाता है, आप सभी योग-सिद्धियों के स्वामी हैं और शरणागत भक्तों को जन्म-मृत्यु रूपी सागर से मुक्त कराने वाले हैं । हे लक्ष्मीनृसिंह ! मुझे अपने करकमल का सहारा दीजिए ।

नर और सिंह का रूप धारण करने वाले भगवान नृसिंह को नमस्कार है—

नमोऽस्तु नारायण नारसिंह नमोऽस्तु नारायण वीरसिंह ।
नमोऽस्तु नारायण क्रूरसिंह नमोऽस्तु नारायण दिव्यसिंह ।।
नमोऽस्तु नारायण व्याघ्रसिंह नमोऽस्तु नारायण पुच्छसिंह ।
नमोऽस्तु नारायण पूर्णसिंह नमोऽस्तु नारायण रौद्रसिंह ।।
नमो नमो भीषण भद्रसिंह नमो नमो विह्वल नेत्रसिंह ।
नमो नमो बृंहित भूतसिंह नमो नमो निर्मल चित्रसिंह ।।
नमो नमो निर्जित कालसिंह नमो नम: कल्पित कल्पसिंह ।
नमो नम: कामद कामसिंह नमो नमस्ते भुवनैकसिंह ।।

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