‘ॐ नमो भगवते वासुदेवाय’ भगवान विष्णु के इस मन्त्र को वासुदेव ’द्वादशाक्षर मन्त्र’ कहते हैं ।
द्वादशाक्षर मन्त्र बहुत ही प्रभावशाली मन्त्र है । द्वादशाक्षर मन्त्र की महिमा बताते हुए सूतजी कहते हैं कि यदि मनुष्य सत्कर्म करते हुए, सोते-जागते, चलते-उठते हुए भी भगवान के इस द्वादशाक्षर मन्त्र का निरन्तर जप करता है तो वह सभी पापों से छूट कर सद्गति को प्राप्त होता है । लक्ष्मीजी की बड़ी बहिन अलक्ष्मी (दरिद्रा) भगवान के नाम को सुनकर उस घर से तुरन्त भाग खड़ी होती है । इसी मन्त्र के जप से ध्रुव को बहुत शीघ्र भगवान के दर्शन हुए थे ।
द्वादशाक्षर मन्त्र जप करने की विधि
पवित्र स्थान, शुद्ध सात्विक आहार, शास्त्र में बताई गयी विधि और संत के आशीर्वाद से किसी भी मन्त्र का जप करने पर शीघ्र लाभ मिलता है ।
▪️ प्रात:काल स्नान आदि से निवृत्त होकर मन्त्र जप करने से पहले भगवान विष्णु का ध्यान और मानसिक पूजा कर लें तो उत्तम है । भगवान विष्णु का ध्यान इस प्रकार करें—
भगवान विष्णु के शरीर की दिव्य कान्ति करोड़ों सूर्य के समान है । उन्होंने अपनी चार भुजाओं में शंख, चक्र, गदा और कमल धारण किया हुआ है, भूदेवी और श्रीदेवी उनके उभय पार्श्व (अगल-बगल) की शोभा बढ़ा रही हैं, उनका वक्ष:स्थल श्रीवत्सचिह्न से सुशोभित है, वे अपने गले में चमकीली कौस्तुभमणि धारण करते हैं । हार, केयूर, वलय, कुण्डल, किरीट आदि दिव्य आभूषण जिनके अंगों में धारण करने से धन्य हो रहे हैं, ऋषि-मुनि सामवेद से उनकी स्तुति कर रहे हैं, उन पीताम्बरधारी भगवान विष्णु का मैं ध्यान करता हूँ ।
▪️ इस मन्त्र के जप से पहले ऋषि, देवता और छन्द का स्मरण करना चाहिए । इस मन्त्र के ऋषि प्रजापति, छन्द गायत्री और देवता वासुदेव हैं ।
▪️ हो सके तो मन्त्र के बारहों अक्षरों का न्यास कर लें । न्यास करने से शरीर मन्त्रमय हो जाता है, सारी अपवित्रता दूर हो जाती है और मन अधिक एकाग्रता से इष्टदेव के चिन्तन में लग जाता है ।
▪️ जप करते समय साधक को यह भावना रखनी चाहिए कि भगवान का सुदर्शन चक्र चारों ओर से मेरी रक्षा कर रहा है, इससे मेरे जप में किसी प्रकार की बाधा नहीं आएगी ।
▪️ आसन पर बैठकर तुलसी या पद्मकाष्ठ की माला से इस मन्त्र का जप करना चाहिए ।
▪️ जप करते समय माला ढक कर करनी चाहिए । तर्जनी ऊंगली से माला का स्पर्श नहीं होना चाहिए ।
▪️ मन्त्र जप इस तरह करें कि किसी दूसरे को सुनायी न दे । संत चरणदासजी का कहना है—
आठ मास मुख सों जपै, सोलह मास कंठ जाप ।
बत्तिस मास हिरदै जपे, तन में रहे न पाप ।।
तन में रहे न पाप, भक्ति का उपजै पौधा ।
मन रुक जावे तभी, अपरबल कहिये योधा ।।
▪️ यज्ञोपवीतधारी मनुष्य को इस मन्त्र के पहले ‘ॐ’ लगाना चाहिए और अन्य सभी लोग ‘श्री’ लगाकर इसका जाप कर सकते हैं ।
▪️ जप के अंत में भगवान से प्रार्थना करनी चाहिए कि ‘हे प्रभो ! यह शरीर, प्राण, इन्द्रिय, मन, बुद्धि और आत्मा—जो कुछ मैं हूँ, वह सब तुम्हारा है । ऐसी कृपा कीजिए कि तुम्हारा ही भजन हो, तुम्हारे मन्त्र का जप हो और तुम्हारा ही चिन्तन हो । एक क्षण के लिए भी तुम्हें न भूलूं ।’
मन्त्र का अनुष्ठान
इस मन्त्र का एक अनुष्ठान बारह लाख जप का है । अंत में दशांश हवन करना चाहिए और उसका दशांश तर्पण और तर्पण का दशांश ब्राह्मण भोजन कराना चाहिए । यदि हवन आदि करने की शक्ति और सुविधा न हो तो जितना हवन करना है उसका चौगुना जप करना चाहिए ।
मन्त्र जप का फल
शास्त्रों में कहा गया है कि इस मन्त्र के पहले एक लाख जप से मनुष्य की आत्मशुद्धि होती है । दो लाख मन्त्र के जप से साधक को मन्त्र-शुद्धि प्राप्त होती है । तीन लाख के जप से साधक स्वर्गलोक का अधिकारी हो जाता है । चार लाख के जप से मनुष्य भगवान विष्णु का सामीप्य प्राप्त करता है । पांच लाख जप के मन्त्र से मनुष्य निर्मल ज्ञान प्राप्त करता है । छ: लाख के जप से साधक की बुद्धि भगवान विष्णु में स्थिर हो जाती है । सात लाख मन्त्र-जप से साधक श्रीविष्णु का सारुप्य प्राप्त कर लेता है । आठ लाख जप पूर्ण कर लेने पर साधक निर्वाण (परम शान्ति और मोक्ष) को प्राप्त कर लेता है । इसी तरह मन्त्र जप करते रहने से मनुष्य को मनोवांछित फल की सिद्धि अवश्य होती है । सकाम जप करने से भगवान के दिव्य दर्शन होते हैं और निष्काम भाव से जप करने पर मोक्ष की प्राप्ति होती है । और अंत में बारह लाख मन्त्र का जप करने से मनुष्य को भगवान का साक्षात्कार हो जाता है ।
स्कन्दपुराण के अनुसार द्वादशाक्षर महामन्त्र का जप यद्यपि सभी मासों में पाप-नाश करने वाला है किन्तु चातुर्मास्य में इसका माहात्म्य विशेष रूप से बढ़ जाता है ।
द्वादशाक्षर मन्त्र सम्बन्धी कथा
पुराण में इस मन्त्र के सम्बन्ध में एक कथा है—
एक ब्राह्मण को कठिन तपस्या के बाद एक पुत्र पैदा हुआ, जिसका नाम ऐतरेय था । उपनयन संस्कार के बाद पिता जब भी बालक को पढ़ाने बैठाते तो वह कुछ बोल नहीं पाता था, उसकी जीभ ही नहीं हिलती थी । वह केवल ‘ॐ नमो भगवते वासुदेवाय’—इस मन्त्र को ही बोल पाता था । पिता उसे पढ़ा कर थक गये पर वह कुछ बोलता ही नहीं था ।
निराश होकर उसके पिता ने दूसरा विवाह कर लिया । नयी पत्नी से ब्राह्मण के चार पुत्र हुए, चारों वेदों के विद्वान हुए । उन्होंने कमा कर धन-धान्य से घर भर दिया इसलिए उनकी माता सदा प्रसन्न रहती थी किन्तु ऐतरेय की मां सदैव शोकाकुल रहती थी ।
एक दिन मां ने ऐतरेय से कहा—‘तुम्हारे भाई धन कमा कर अपनी माता को कितना सुख देते हैं । मैं ही अभागिन हूँ जो मुझे तुमसे कोई सुख नहीं मिला, इससे तो मेरा मर ही जाना अच्छा है ।’
मां को दु:खी देखकर ऐतरेय ने ढांढस बंधाते हुए कहा—‘आज मैं तुम्हारे लिए बहुत-सा धन लेकर आऊंगा ।’ इतना कह कर वह एक ऐसे स्थान पर पहुंचा जहां यज्ञ हो रहा था । उसके वहां पहुंचते ही यज्ञ कराने वाले ब्राह्मण मन्त्र भूल गये । वे लोग बड़े असमंजस में पड़ गये कि एकाएक क्या बात हो गई । ऐतरेय तब ‘ॐ नमो भगवते वासुदेवाय’ मन्त्र का पाठ करने लगा जिसे सुनकर ब्राह्मणों के मुख से भी मन्त्र स्पष्ट रूप से निकलने लगे । यह चमत्कार देखकर होता, उद्गाता तथा ऋषि ऋषि-मुनियों ने इनकी प्रशंसा कर पूजा की । पूर्णाहुति के बाद ऐतरेय को स्वर्ण-रत्न और बहुत-सा धन दिया । घर आकर ऐतरेय ने समस्त धन माता को समर्पित कर दिया ।
इस प्रकार द्वादशाक्षर मन्त्र का जप असाध्य को भी साध्य बना देता है ।
बारि मथें घृत होइ बरु सिकता ते बरु तेल ।
बिनु हरि भजन न भव तरिअ यह सिद्धान्त अपेल ।। (राचमा ७।१२२ क)
अर्थात्—जल के मथने से चाहे घी निकल आए, बालू से चाहे तेल निकले, परन्तु भगवान के भजन बिना मनुष्य भवसागर से तर नहीं सकता है, यह सिद्धान्त अकाट्य है ।