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कर्मण्येवाधिकारस्ते : कर्मों द्वारा भगवान का पूजन

जैसे सरोवर में कमलपत्र जलराशि से सदैव ऊपर उठे हुए उससे निर्लिप्त व अछूते रहते हैं; वैसे ही कर्मयोगी मनुष्य सभी कर्मो को परमात्मा में अर्पित करने से उनके कर्मफल व पाप-पुण्य से मुक्त रहते हैं ।

अंत मति सो गति

मोह या आसक्ति ही मनुष्य के समस्त दु:खों का कारण है । राजर्षि भरत ने मरणासन्न मृगछौने पर दया करके उसकी रक्षा की, यह तो बड़े पुण्य का कार्य था परन्तु इसमें धीरे-धीरे एक दोष उत्पन्न हो गया, यह उनको पता ही न चला ।

मानव शरीर का मालिक कौन ?

इस शरीर पर किसका अधिकार है? यह शरीर क्या पिता का है या माता का है या माता को भी पैदा करने वाले नाना या नानी का है या अपना स्वयं का है ?

नरसी मेहता को रासलीला का दर्शन

नरसी ने गाने में लिखा—तुमने मुझे जो कटु शब्द कहे, उनके कारण ही मैंने गोलोकधाम में गोपीनाथ का नृत्य देखा और धरती के भगवान ने मेरा आलिंगन किया ।

अहंकार से बचने के लिए क्या कहती है गीता

अर्जुन को लगता था कि भगवान श्रीकृष्ण का सबसे लाड़ला मैं ही हूँ । उन्होंने मेरे प्रेम के वश ही अपनी बहिन सुभद्रा को मुझे सौंप दिया है, इसीलिए युद्धक्षेत्र में वे मेरे सारथि बने । यहां तक कि रणभूमि में स्वयं अपने हाथों से मेरे घोड़ों के घाव तक भी धोते रहे । यद्यपि मैं उनको प्रसन्न करने के लिए कुछ नहीं करता फिर भी मुझे सुखी करने में उन्हें बड़ा सुख मिलता है ।

गीता में सगुण और निर्गुण भक्ति

गोपियां निर्गुण ब्रह्म से सगुण श्रीकृष्ण को श्रेष्ठ बताती हुई उद्धवजी से कहती हैं—‘हे उद्धव ! आपका अनोखा रूप रहित ब्रह्म हमारे किस काम का है, अर्थात् वह हमारे किसी काम का नहीं है । हमें तो ऐसे सगुण-साकार ब्रह्म की चाह है, जिसे हम देख सकें और जो हमारे बीच रहकर हमारे सभी दैनिक कार्यों में सहायक हो ।’

काश, मैं भगवान का प्यारा भक्त होता !

वह स्वभाव क्या है, जिससे आकर्षित होकर भगवान भक्त को खोजते फिरें, उसका पता पूछें, उससे मिलने के लिए रोते फिरें, अपने भक्त की चाकरी करें, वे गुण जिसके कारण भक्त भगवान को अत्यन्त प्यारा लगने लगता है—यह जानने की जिज्ञासा हर प्रेमीभक्त को होती है ।

गीता का स्थितप्रज्ञ भक्त कवि धनंजय

गीता में अर्जुन श्रीकृष्ण से पूछते है—हे मधुसूदन ! ये स्थितप्रज्ञ क्या होता है ? इसे समझाओ ! भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं—‘पार्थ ! दुःख भोगते हुए भी जिसके मन में उद्वेग नहीं होता और जो न ही सुख की लालसा रखता है तथा जिसके ह्रदय में क्रोध, मोह, भय आदि विकारों के लिए कोई स्थान नहीं होता है वह मनुष्य स्थितप्रज्ञ है, वह मुनि, संन्यासी स्थिरबुद्धि कहा जाता है ।’

जिन नैनन श्रीकृष्ण बसे, वहां कोई कैसे समाय

श्रीराधा की पायल सूरदासजी के हाथ में आ गई । श्रीराधा के पायल मांगने पर सूरदासजी ने कहा पहले मैं तुम्हें देख लूं, फिर पायल दूंगा । दृष्टि मिलने पर सूरदासजी ने श्रीराधाकृष्ण के दर्शन किए । जब उन्होंने कुछ मांगने को कहा को सूरदासजी ने कहा—‘जिन आंखों से मैंने आपको देखा, उनसे मैं संसार को नहीं देखना चाहता । मेरी आंखें पुन: फूट जायँ ।’

गीता के अनुसार कौन है सर्वश्रेष्ठ भक्त

मैं अपने भक्तों के कष्ट को सहन नहीं कर सकता । अपने सिवा मैं और किसी को भक्त की सेवा के योग्य नहीं समझता । इसलिए मैंने तुम्हारी सेवा की है । तुम जानते हो कि प्रारब्धकर्म भोगे बिना नष्ट नहीं होते हैं— यह मेरा नियम है और मैं यह क्यों तोडूं ।