geeta krishna arjun

भगवान का प्यारा भक्त

भगवान कोरे ज्ञान या कोरे कर्मकाण्ड, व व्रत-उपवास आदि से प्रसन्न होने वाले नहीं हैं, उनको ‘भक्त’ चाहिए । गले में माला डाल देने से, त्रिपुण्ड लगा लेने से, रामनामी ओढ़ लेने से ही कोई भक्त नहीं हो जाता । वह स्वभाव क्या है, जिससे आकर्षित होकर भगवान भक्त को खोजते फिरें, उसका पता पूछें, उससे मिलने के लिए रोते फिरें, अपने भक्त की चाकरी करें, वे गुण जिसके कारण भक्त भगवान को अत्यन्त प्यारा लगने लगता है—यह जानने की जिज्ञासा हर प्रेमीभक्त को होती है ।

भगवान श्रीकृष्ण ने गीता के 12वें अध्याय के श्लोक 13-20 में अपने प्यारे भक्त के गुण या लक्षण बताए हैं–

अद्वेष्टा सर्वभूतानां मैत्र: करुण एव च ।
निर्ममो निरहंकार: समदु:खसुख: क्षमी ।।13।।
संतुष्ट: सततं योगी यतात्मा दृढ़निश्चय: ।
मय्यर्पित मनोबुद्धिर्यो मद्भक्त: स मे प्रिय: ।।14।।
यस्मान्नोद्विजते लोको लोकान्नोद्विजते च य: ।
हर्षामर्षभयोद्वेगैर्मुक्तो य: स च मे प्रिय: ।।15।।
अनपेक्ष: शुचिर्दक्ष उदासीनो गतव्यथ: ।
सर्वारम्भपरित्यागी यो मद्भक्त: स मे प्रिय: ।।16।।
यो न हृष्यति न द्वेष्टि न शोचति न कांक्षति ।
शुभाशुभपरित्यागी भक्तिमान्य: स मे प्रिय: ।।17।।
सम: शत्रौ च मित्रे च तथा मानापमानयो: ।।
शीतोष्णसुखदु:खेषु  सम: संगविवर्जित ।।18।।
तुल्यनिन्दास्तुतिर्मौनी सन्तुष्टो येन केनचित् ।
अनिकेत: स्थिरमतिर्भक्तिमान्मे प्रियो नर: ।।19।।
ये तु धर्म्यामृतमिदंयथोक्तं पर्युपासते ।
श्रद्धाना मत्परमा भक्तास्तेऽतीव मे प्रिया: ।।20।।

भक्त के किन गुणों पर रीझते हैं श्रीकृष्ण

इन श्लोकों में भगवान ने अपने प्यारे भक्त के 33 लक्षण (पहचान, गुण) बताए हैं, उन्हें पढ़कर मनुष्य को यह विचार करना चाहिए कि मैं किस प्रकार भगवान का प्यारा भक्त बन सकता हूँ ?

  1. जो समस्त प्राणियों में द्वेषरहित है--इसका अर्थ है किसी भी मनुष्य को बुरा न मानना, न ही उसकी आलोचना सुनना, मन में भी किसी का बुरा न चाहना, किसी की उन्नति से न जलना और न ही उसके कार्यों में बाधा डालना, किसी को अपना शत्रु या प्रतिद्वन्द्वी नहीं समझना ।
  2. सबके प्रति मित्रभाव–मनुष्य जब सबके हित के लिए कार्य करता है तभी वह सबका मित्र, ‘विश्वमित्र’ कहा जा सकता है । यह तभी संभव है जब मनुष्य किसी से भी अपने लिए न कुछ चाहे और न ही किसी भी प्रकार की आशा रखे ।
  3. करुणाभाव रखना–करुणा भाव का अर्थ है पराये दु:ख से दु:खी होना, अपने दु:ख से नहीं । दीन-हीन, पशु-पक्षी, वनस्पति, रोगियों व दरिद्रों के प्रति करुणा भाव रखकर उनकी सेवा करना ।
  4. ममतारहित होना–भक्त के लिए समस्त विश्व उसके प्रभु का है, अत: किसी भी वस्तु को अपना न मानकर ईश्वर का ही समझना चाहिए ।
  5. अंहकाररहित होना–जिसका अंहभाव ‘मैं’ ‘मेरापन’ समाप्त हो गया है ।
  6. सुख-दु:ख में सम होना—जो दु:खों से डरकर भागता नहीं है और सुख में हर्षित नहीं होता है ; सुख आए या दु:ख, दोनों परिस्थितियों में एकसमान रहता है ।
  7. क्षमाशील होना–दण्ड देने में सक्षम होने पर भी अपराधी को क्षमा कर दे ।
  8. हमेशा संतुष्ट रहना–भक्त किसी से कुछ चाहता नहीं अत: उसमें खिन्नता नहीं रहती है । निष्काम कर्म करता हुआ भगवत्प्रेम में मग्न वह सदैव संतुष्ट रहता है ।
  9. योगयुक्त होना–संसार की समस्त आसक्तियों को छोड़कर एकमात्र परमात्मा को ही अपना मान लेना और उनका ही होकर रहना योगयुक्त होना है ।
  10. यतात्मा यानी जिसका मन व इन्द्रियां वश में हों ।
  11. दृढ़ निश्चयी होना–जिसने भगवान को प्राप्त करने का दृढ़ निश्चय कर लिया हो ।
  12. मन और बुद्धि को प्रभु के समर्पण कर देना–जब साधक का मन भगवान का हो जाता है, तब वह विकाररहित और पूर्ण निर्मल हो जाता है । अर्थात् ऐसी कोई वस्तु भक्त को प्रतीत नहीं होती जिसकी आवश्यकता भक्त को अपने लिए प्रतीत हो । इस अवस्था को ‘बेमन’ का हो जाना कहते हैं । भक्त की बुद्धि तब भगवान की हो जाती है जब उसमें किसी प्रकार की जिज्ञासा शेष नहीं रहती, अर्थात् कुछ भी जानने या समझने की इच्छा शेष नहीं रहती है ।
  13. जिनसे लोग घबरायें नहीं (उद्विग्न न हों) अर्थात् जो किसी भी प्राणी के जीवन में हस्तक्षेप नहीं करता है ।
  14. जो लोगों से घबराये नहीं, अर्थात् किसी भी परिस्थिति में अपनी शान्ति भंग नहीं करता ।
  15. जो भय, मानसिक तनाव, हर्ष, अमर्ष, दूसरों की सफलता से ईर्ष्या और उद्वेग से मुक्त है ।
  16. अनपेक्ष अर्थात् किसी वस्तु की अपेक्षा न रखें, न किसी से आशा रखे ।
  17. जो मन बुद्धि, हृदय व इन्द्रियों की पवित्रता रखें, अर्थात् जिसका शरीर व इन्द्रियां स्वस्थ व मन व बुद्धि निर्मल हो ।
  18. सब प्रकार से दक्ष हो और सदैव सावधान रहता हो ।
  19. उदासीन हो, अर्थात् सदैव अपनी आत्मा में स्थित रहने वाला ।
  20. जो गतव्यथ हो, अर्थात् जो सभी प्रकार की व्यथाओं से ऊपर उठ गया हो ।
  21. सर्वारम्भ परित्यागी अर्थात् जो ‘मैं ही करने वाला हूँ’ ऐसी बुद्धि न रखने वाला हो ।
  22. जो प्रारब्धवश अनुकूल परिस्थिति आने पर हर्षित नहीं होता और विपरीत परिस्थिति से भागने का प्रयास न करे ।
  23. जिसकी शुभ में गुणबुद्धि और अशुभ में दोषबुद्धि समाप्त हो गयी है ।
  24. जो शत्रु और मित्र को समान समझे ।
  25. जो मान-अपमान को एक समान समझे ।
  26. सर्दी-गर्मी उसके लिए एक बराबर हैं ।
  27. सुख-दु:ख उसके लिए एक जैसे हैं ।
  28. संगवर्जित अर्थात् मन में और बाहर से भी संसार से कोई आसक्ति न रखे ।
  29. निन्दा-स्तुति में समान रहें,
  30. मौनी अर्थात् जो जितना आवश्यक हो उतना ही बोले,
  31. जैसे-तैसे भी खाते-पीते, सोते-जागते, पहनते-ओढ़ते सदैव तृप्त और संतुष्ट रहता है ।
  32. स्थिरमति अर्थात् जो शरीर से तो भ्रमणशील रहे पर उसकी बुद्धि सदैव स्थिर रहे ।
  33. जो श्रद्धावान हों–बस मुझे ही सब कुछ समझें ।

जाहि न चाहिअ कबहुँ कछु तुम्ह सन सहज सनेहु ।
बसहु निरंतर तासु मन सो राउर निज गेहु ।।

ऐसे गुणों से युक्त भक्त मुझे प्रिय हैं । ऐसे ही भक्तों को दर्शन देने और उन पर कृपा करने के लिए भगवान पृथ्वी पर आते हैं । भगवान को आकर्षित करने वाला स्वभाव व्यक्ति को स्वयं अर्जित करना पड़ता है इसके लिए उसे अपना सारा जीवनक्रम ही बदल देना होगा । भगवान ने हमारा त्याग नहीं किया है बल्कि हम हीं उनसे विमुख होकर संसार में भटक रहे हैं । यदि हम उनको अपना मानकर कुछ-एक गुणों को भी जीवन में उतार लें तो हम उनके प्रिय भक्त बन सकते हैं ।

प्रिय भक्त की पहचान

भगवान के प्रिय व सच्चे भक्त ऊपर से तो नरम मालूम होते हैं क्योंकि उनमें असाधारण उदारता, दया और क्षमा होती है परन्तु उनमें असाधारण स्वाभिमान होता है किसी भी तरह से वे अपनी आत्मा को परास्त नहीं होने देते हैं ।

मर जाऊं मांगू नहीं, अपने तन के काज।
परमारथ के कारणे, मोहिं न आवे लाज।।

अपना हृदय, मन, शरीर और इच्छाएं ईश्वर को अर्पण कर देने से वे निर्भीक और असाधारण रूप से वीर  हो जाते हैं । न वे समाज से डरते हैं और न कानून से क्योंकि वे जानते हैं कि असली विजय तो इन्द्रियों को जीतने में है ।

भक्त का चेहरा ओज से भरा व नेत्र चमकदार होते हैं । वह सादगी पसन्द होता है उसे शरीर के श्रृंगार से नफरत होती है ।

जिस प्रकार ईश्वरभक्त होना कठिन है उसी प्रकार ईश्वरभक्त को जानना और समझना भी कठिन है । माता सीता यदि साधु के कपटवेश में रावण को पहचान लेतीं तो हरी न जातीं ।

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