Shri Krishna vrindavan rath yatra banke bihari

मैया मैं रथ चढ़ डोलूंगौ ।
घर घर तै सब संग खेलन को गोप सखन को बोलूंगौ ।।
मोहि जड़ा देहु रथ अति सुंदर, सगरौ साज बनाय ।
कर सिंगार ताऊ पर मोको, राधा संग बिठाय ।।
सुत के वचन सुनत नंदरानी फूली अंग न समाय ।
सब बिधि साजे हरि रथ बैठाये, देखि रसिक बलि जाय ।।

प्राचीनकाल से ही भारत में विभिन्न ऋतुओं में अनेक प्रकार के उत्सव मनाये जाते हैं । रथयात्रा महोत्सव वर्षा ऋतु में होने वाले ‘वन-विहार’ का ही एक रूप है । ‘वन-विहार’ (पिकनिक) में स्त्री-पुरुष अपने वाहनों में सवार होकर आसपास के वनों में मनोरंजन के लिए जाते हैं और वहां कुछ समय बिताकर वापिस आ जाते हैं ।

आषाढ़ मास की शुक्लपक्ष की द्वितीया को रथयात्रा का उत्सव मनाया जाता है । आषाढ़ मास लगते ही नभ में मेघमालाएं घिरने लगती है, कोयल कूकने और मोर थिरकने लगते हैं, दादुर टर्राने लगते हैं, धरती की सारी कलुषता धुल जाती है और प्रकृति में सब जगह रस बरसने लगता है ।

भक्तों को आनन्द देने के लिए भगवान श्रीकृष्ण ने की व्रज में लीला

ऐसी ही पावस ऋतु आषाढ़ शुक्लपक्ष द्वितीया व पुष्य नक्षत्र के शुभयोग में श्रीकृष्ण माता यशोदा से अनुरोध करते हैं—

‘मैया तुम सुन्दर-सा रथ तैयार करा दो । मैं सभी ग्वाल-बालों को घर से बुलाकर ले आऊं, मिठाई फल खिलाऊं और रथयात्रा का उत्सव मनाऊं । मेरा सुन्दर श्रृंगार कर सखाओं के साथ श्रीराधा को भी रथ में बैठा दो ।’

पुत्र के ऐसे अनुरोध से यशोदाजी फूली नहीं समा रहीं । वह तो अपने कृष्ण के नित्य ही नये-नये उत्सव करती हैं । आज तो स्वयं श्रीकृष्ण ने महोत्सव करने के लिए कहा है ।

महोत्सव किसे कहते हैं?

महोत्सव अर्थात् महा उत्सव । उत्सव अपने घर-परिवार में ही मनाया जाता है किन्तु महोत्सव में हर्ष व आनन्द का ज्वार या उफान होता है । वह केवल व्यक्ति या परिवार तक ही सीमित नहीं रहता बल्कि हर व्यक्ति, पूरा गांव व नगर भी उससे जुड़ जाता है । इससे घर-घर, गली-गली में आनन्द का प्रवाह होने लगता है । ऐसे ही आनन्द का ज्वार आज गोकुल में श्रीकृष्ण के रथयात्रा महोत्सव में उठा है ।

हरि के रथ की शोभा

माता यशोदा ने श्रीकृष्ण की रथयात्रा के लिए जो रथ तैयार करवाया उसका वर्णन अष्टछाप के कवियों ने बहुत ही सुन्दर प्रकार से किया है—

विश्वकर्मा द्वारा चार घोड़ों वाला रथ मणि-मुक्ता, हीरे से निर्मित है । ध्वजा, चंवर से सुसज्जित हरि के रथ की शोभा देखकर ऐसा लगता मानो प्रात:काल का सूर्य उदय हो गया हो । रथ के ऊपर श्वेत रंग का छत्र ऐसा शोभायमान हो रहा है जैसे पूर्व दिशा में चन्द्रमा उदित हुआ हो । उस पर श्यामसुन्दर का फहराता हुआ पीताम्बर, मानो बादलों के बीच में बिजली चमक रही हो । श्रीकृष्ण के नीलवर्ण पर मोतियों की माला ऐसे लग रही है जैसे नीले बादलों में तारागण चमक रहे हों ।

व्रज में श्रीकृष्ण का रथयात्रा महोत्सव

व्रज में रथ चढ़ चले री गोपाल ।
संग लिये गोकुल के लरिका बोलत वचन रसाल ।।
श्रवन सुनत गृह गृह तें दोरीं देंखन कों ब्रजबाल ।
लेत फेर कर हरि की बलैया वारत कंचनमाल ।।
सामग्री ले आवत शीतल लेत हरख नंदलाल ।
बांट देत और ग्वालन कों फूले गावत ग्वाल ।।
जयजयकार भयो त्रिभुवन में कुसुम बरखत तिंहिकाल ।
देख देख उमगे ब्रजवासी सब ही देत करताल ।।
यह विध बन सिंघद्वार जब आवत माय तिलक करे भाल ।
ले उछग पधरावत घर में चलत मंदगति चाल ।।
कर न्योंछावर अपने सुत की मुक्ताफल भर थाल ।
यह लीला रस रसिक दीवानी सुमरत होत निहाल ।।

किसी को महोत्सव में निमन्त्रण देने की आवश्यकता ही नहीं थी जिसने सुना वहीं उस सच्चिदानन्द के आनन्द में सराबोर होने के लिए चल पड़ा ।

माता यशोदा ने सब प्रकार से रथ को सजा कर श्रीकृष्ण को उस पर बिठा दिया हैं । श्रीकृष्ण के एक ओर श्रीराधा व दूसरी ओर बलदाऊजी रथ में विराजमान हैं और ललिता सखी छत्र व चंवर लिए खड़ी हैं । व्रजवासीगण मिलकर रथ को खींच रहे हैं उस समय की शोभा का वर्णन नहीं किया जा सकता ।

तुम देखौ सखि रथ बैठे ब्रजनाथ ।
संकर्षण के संग विराजत गोप सखा ले साथ ।
एकु ओरु राधा जुवती सब छत्र चमर ललिता के हाथ।
विविध भांति श्रीगोवर्धनधारी कृष्णदास कियो सनाथ ।।

फूलों के हार व चंदन लगाए गोपसखाओं का समूह हर्ष से कोलाहल कर रहा है । माता यशोदा बार-बार श्रीकृष्ण की बलैंया लेती हैं, मुख चूमती हैं और आरती उतार कर राई-नौन से नजर उतारती हैं और मेवा-मिठाई, फल मंगवा कर बालगोपालों को खिलाती हैं । श्रीकृष्ण के रथ की शोभा देखकर माता आनन्द में मोतियों के हार व्रजवासियों को लुटा रही हैं । व्रजबालाएं रथ में बैठे श्रीकृष्ण को आशीष दे रही हैं कि ‘स्नान करते भी इनका कोई बाल न टूटे’ अर्थात् ये सदैव सुरक्षित रहें ।

निरख निरख फूलत नंदरानी मुख चुंबत ढिग आय।
अति शोभित कर लिये आरती करत सिहाय सिहाय ।।

सभी व्रजवासी तरह-तरह के वाद्ययन्त्र लेकर नाचते गाते रथ के आगे चल रहे हैं । ग्वालबाल इत्र-फुलेल का छिड़काव चारों ओर कर रहे हैं । व्रजबालाएं फूलों की पंखुड़ियां रथ पर बरसा रही हैं । आकाश में देवतागण भी परमात्मा श्रीकृष्ण की रथयात्रा देखने के लिए अपनी-अपनी भेंट लेकर आ गए और जय जयकार करते हुए फूलों की वर्षा करने लगे ।

रथ में विराजमान युगलछवि की अनुपम झांकी देखकर व्रजबालाएं ठगी-सी खड़ी रह गईं हैं । आनन्दविभोर होकर वे कहती हैं—

देखौ री सखि ! आजु नैन भरि,
हरि के रथ की शोभा ।

माता यशोदा रथ पर आरुढ़ श्रीकृष्ण की शोभा देखकर मुग्ध होकर बार-बार उनपर बलिहारी जाती हैं । पर वे श्रीकृष्ण को अपनी आंखों से दूर नहीं करना चाहतीं क्योंकि वे जानती हैं कि कृष्ण चपल और चंचल है । इस कारण भय रहता है कि कहीं असावधानी के कारण रथ से गिर न जाए । उनके मन का भाव मुख पर आ जाता है और कहती हैं—

जसोदा रथ देखन को आई ।
देखो री ! मेरौ लाल गिरैगो, कहा करौं गोरी माई ।

सभी व्रजवासी भक्त भगवान की ऐसी छवि को देखकर बार-बार बलिहारी जा रहे हैं । रथयात्रा सम्पन्न होने पर रथ नंदमहल के सिंहद्वार पर आता है । माता मंगलाचार करके अपने पुत्र की आरती उतारती हैं और सबको बीड़ा खिलाती हैं । श्रीकृष्ण को रथ से उतार कर धीरे-धीरे नंदमहल के भीतर ले जाती हैं ।

द्वापर की लीला की याद में आज भी मन्दिरों व घरों में रथयात्रा का उत्सव धूमधाम से मनाया जाता है । भगवान को भारी श्रृंगार पहनाया जाता है । भगवान के सम्मुख चांदी का रथ रखा जाता है व आम-जामुन व चने की उबली दाल का भोग लगाया जाता है ।

रथयात्रा के पावन पर्व पर हमारा जीवन भी श्रीकृष्णकृपा से उत्सवमय बने यही श्रीकृष्णचरणों में विनती है ।

रथयात्रा का संदेश

रथयात्रा का संदेश है कि मानव-शरीर रूपी रथ पर श्रीकृष्ण को आरूढ़ कर दिया जाए तो कंसरूपी पापी वृत्तियों का अंत हो जाएगा जिससे शरीर और उसमें स्थित आत्मा स्वयं श्रीकृष्णमय (दिव्य) हो जाएंगे और जीवन सदैव के लिए एक महोत्सव बन जाएगा ।

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