story of narsi mehta

प्राय: हमारे मन में यह सवाल उठता है कि क्या सचमुच इस जीवित शरीर से भगवान के दर्शन सम्भव हैं ? तो इसका उत्तर है ‘हां’ ।

संतों ने सही कहा है—दु:ख भोगना हो तो नरकों में जाओ, सुख भोगना है तो स्वर्ग में जाओ परन्तु इन दोनों से ऊंचा उठकर असली तत्त्व परमात्मा को प्राप्त करना है तो मनुष्य शरीर में आओ ।

दुर्लभो मानुषो देहो देहिनां क्षणभंगुर: ।
तत्रापि दुर्लभं मन्ये वैकुण्ठ प्रियदर्शनम् ।।

श्रीमद्भागवत के अनुसार यह मानव शरीर अत्यन्त दुर्लभ है । इसकी प्राप्ति के लिए बड़े-बड़े देवता भी ललचाते रहते हैं क्योंकि परमात्मा की प्राप्ति इस शरीर से ही संभव है बस करना केवल इतना ही है कि इसके लिए उत्कट (तीव्रतम) अभिलाषा अपने मन में जगानी होगी कि मुझे तो केवल यही चाहिए । इससे ही उस परम तत्त्व का दर्शन हो जाएगा क्योंकि परमात्मा तो सब जगह मौजूद है ।

गीता (८।१४) में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं—

अनन्यचेता: सततं यो मां स्मरति नित्यश: ।
तस्याहं सुलभ: पार्थ नित्ययुक्तस्य योगिन: ।।

अर्थात्—हे अर्जुन ! जो मनुष्य नित्य-निरन्तर अनन्यचित्त से मुझ परमेश्वर का स्मरण करता है, उस निरन्तर मुझमें लगे हुए योगी के लिए मैं सुलभ हूँ अर्थात् वह सुगमता से मुझे पा सकता है । गीता में केवल इसी एक श्लोक में भगवान ने ‘सुलभ’ शब्द का प्रयोग किया है ।

भगवान भक्त को कैसे सुलभ होते हैं ?

इसका उत्तर गीता में ही दिया गया है—अन्य किसी वस्तु में मन न लगाकर भक्त जब जीवन भर अनन्य भाव से भगवान का चिन्तन करता है तब वह भगवान का वियोग सहन नहीं कर पाता; भगवान भी उसका वियोग सह नहीं पाते और स्वयं उससे मिलने की इच्छा करते हैं । गीता (४।११) में भगवान ने स्वयं कहा है—‘जो भक्त मुझे जैसे भजता है, मैं भी उसे वैसे ही भजता हूँ ।’

सत्ययुग में ध्रुव, प्रह्लाद आदि अनेक भक्तों को भगवद्दर्शन के उदाहरण देखने को मिलते हैं किन्तु कलियुग में भी अनेक भक्तों को भगवान के दर्शन हुए हैं । उनमें से एक हैं—वैष्णवों में शिरोमणि नरसी मेहता । यह बात ज्यादा पुरानी न होकर है सोलहवीं शताब्दी की है ।

जो सब ओर से मुख मोड़कर एकमात्र उन प्रभु का हो जाता है, वह भगवान को बहुत प्रिय है

सोलहवीं शताब्दी में गुजरात में भक्ति को नयी प्रेरणा देने वाले नरसी मेहता का जन्म जूनागढ़ में नागर-ब्राह्मण कुल में हुआ । बाल्यावस्था में पिता की मृत्यु होने पर बालक नरसी साधुओं की संगति में रहने लगे । कृष्ण भक्ति में लीन रहकर धीरे-धीरे उनका समय भजन-कीर्तन में ही व्यतीत होने लगा । वे श्रीकृष्ण को प्रेमी मानकर गोपियों की तरह नाचने-गाने लगे । यह बात उनके परिवार वालों को पसन्द नहीं थी ।

नरसी की भाभी बहुत कठोर स्वभाव की थी । नरसी कोई कमाई नहीं करते थे इसलिए उन्हें उसकी बातें सुनकर अपमान का जीवन व्यतीत करना पड़ता था । एक दिन उनकी भाभी ने बातों-ही-बातों में उन्हें ताना मारकर कहा—‘ऐसी भक्ति उमड़ी है तो भगवान से मिलकर क्यों नहीं आते ?’  

इस ताने ने नरसी पर जादू का काम किया । भगवान श्रीकृष्ण ने स्वयं कहा है—

‘जिस पर मैं कृपा करता हूं, धीरे-धीरे उसका समस्त धन हर लेता हूँ तथा उसके बन्धु-बांधवों से वियोग कर देता हूँ, जिससे वह दु:खपूर्वक जीवन धारण करता है ।’

बालक नरसी को बात चुभ गयी और वह घर छोड़कर जूनागढ़ से कुछ दूर जंगल में चले गए । वहां उन्होंने एक पुराने मन्दिर में परित्यक्त शिवलिंग को अपनी बांहों में भर कर निश्चय किया कि जब तक शिवजी प्रसन्न होकर दर्शन न देंगे तब तक मैं अन्न-जल ग्रहण नहीं करूंगा । वे सात दिन तक लगातार निराहार रहकर पूजा करते रहे ।

भगवान शंकर ने विचार किया कि कोई आदमी किसी गरीब के द्वार पर जाकर पड़ जाता है, तो वह भी उसके दु:ख-दर्द की पूछता है, मैं तो देवाधिदेव महादेव हूँ मुझे तो इसके दु:ख दूर करने चाहिए ।

भगवान शंकर उनके सामने प्रकट हो गए और वर मांगने को कहा । नरसी ने कहा—‘यदि आप देना ही चाहते हैं तो सोच-समझकर अपनी सबसे प्यारी वस्तु दे दीजिए ।’

रासलीला में नरसी मेहता

भगवान शंकर ने नरसी को अपने जैसा श्रीकृष्ण-प्रेम प्रदान किया और नरसीजी को सुन्दर सखी स्वरूप प्रदान कर स्वयं भी सखी रूप धारण करके भगवान श्रीकृष्ण के गोलोक में स्थित वृन्दावनधाम ले गए । वहां उन्होंने नरसी को रासमण्डल में अनगिनत गोपियों के साथ श्रीराधा श्यामसुन्दर की रासलीला का अद्भुत दृश्य दिखलाया ।

भगवान शंकर ने नरसी सखी को दी रासलीला में मशाल दिखलाने की सेवा

भगवान शंकर ने नरसी सखी को रासलीला में मशाल दिखलाने की सेवा प्रदान की । नरसी सखी मशाल दिखाते समय श्रीराधा-कृष्ण की शोभा देखकर निहाल हो गईं । भगवान श्रीकृष्ण ने भी जान लिया कि यह तो आज कोई नई सखी भगवान शंकर के साथ रासलीला में आई है । रास के बाद भगवान शंकर ने जब नरसी सखी को वापिस चलने के लिए कहा तब उसने कहा—‘मैं तो अपने प्राण यहीं श्रीराधा-कृष्ण के चरणों में न्यौछावर करना चाहती हूँ ।’

भगवान श्रीकृष्ण ने नरसी को दिए दिव्य करताल

भगवान श्रीकृष्ण ने नरसी सखी को भक्तिरस का पान कराया और उन्हें आज्ञा दी—‘अब तुम यहां से जाओ और जैसी रासलीला तुमने देखी है, उसका गान करते हुए संसार के नर-नारियों को भक्ति-रस का पान कराओ । मेरे इस रूप का तुम सदैव ध्यान करते रहना । जब भी तुम स्मरण करोगी मैं प्रकट होकर तुम्हें दर्शन दूंगा । भगवान ने कीर्तन करने के लिए नरसीजी को करताल प्रदान की ।

गाना लिखकर भाभी को प्रकट की कृतज्ञता

जिस भाभी के कठोर वचनों के कारण उन्हें घर छोड़कर जाना पड़ा था, उन्हें भी उन्होंने अपना गुरु माना । नरसी ने कहा कि उन्हीं की वजह से उन्हें भगवान के दर्शन हुए इसलिए उनके उपकार को कैसे भूलूं । उन्होंने अपनी भाभी के प्रति कृतज्ञता प्रकट करते हुए एक गाने की रचना की जिसका आशय यह था—

‘तुमने मुझे जो कटु शब्द कहे, उनके कारण ही मैंने गोलोक में गोपीनाथ का नृत्य (रासलीला) देखा और धरती के भगवान ने मेरा आलिंगन किया, भगवान श्रीकृष्ण से मेरा जीवित सम्पर्क हो गया ।’

तपस्या पूरी कर वह घर आए और अपने बच्चों के साथ अलग रहने लगे । उनके पास एक करताल के सिवाय और कुछ नहीं था जिस पर वह श्रीकृष्ण का यशोगान करने में मग्न रहते थे । उनकी पत्नी ने उन्हें कोई काम करने के लिए बहुत कहा, परन्तु नरसीजी ने कोई दूसरा काम करना पसन्द ही नहीं किया । उनका मानना था कि श्रीकृष्ण मेरे सारे दु:खों और अभावों को अपने-आप दूर करेंगे । नरसीजी के सारे काम स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ने समय-समय पर पूरे किए ।

वल्लभाचार्यजी ने भक्त नरसी मेहता को ‘भगवान का दूत’ कहा है ।

सांवरा ! अजीज भी तू है,
मेरा नसीब भी तू है,
दुनिया की भीड़ में,
मेरे सबसे करीब भी तू है ।

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