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भगवान श्रीकृष्ण ने गीता का उपदेश युद्धभूमि में क्यों दिया ?

भगवान श्रीकृष्ण ने गीता का उपदेश किसी ऋषि-मुनियों और विद्वानों की सभा या गुरुकुल में नहीं दिया, बल्कि उस युग के सबसे बड़े युद्ध ‘महाभारत’ की रणभूमि में दिया । युद्ध अनिश्चितता का प्रतीक है, जिसमें दोनों पक्षों के प्राण और प्रतिष्ठा दाँव पर लगते हैं । युद्ध के ऐसे अनिश्चित वातावरण में मनुष्य को शोक, मोह व भय रूपी मानसिक दुर्बलता व अवसाद से बाहर निकालने के लिए एक उच्चकोटि के ज्ञान-दर्शन की आवश्यकता होती है; इसलिए भगवान श्रीकृष्ण ने गीता का ज्ञान वहीं दिया, जहां उसकी सबसे अधिक आवश्यकता थी ।

चिंता और शोक से मुक्ति के लिए गीता के कुछ सिद्ध...

भगवान ही शान्ति का आगार है और कोई नहीं, उन्हीं के शरण में जाने से ही परम शान्ति मिलती है, मिल सकती है, धन-वैभव से शान्ति नहीं मिल सकती । विद्या से भी शान्ति नहीं मिलती। वह तो उसकी शरण में जाने से ही मिलेगी ।

भगवान श्रीकृष्ण ने गीता का उपदेश क्यों किया ?

श्रीमद्भगवद्गीता एक अलौकिक ग्रन्थ है, जिसमें बहुत ही विलक्षण भाव भरे हुए हैं । गीता का आशय खोजने के लिए जितना प्रयत्न किया गया है, उतना किसी दूसरे ग्रन्थ के लिए नहीं किया गया है, फिर भी इसकी गहराई का पता नहीं चल पाया है; क्योंकि इसका वास्तविक अर्थ तो केवल भगवान श्रीकृष्ण ही जानते हैं ।

वेदों में जब भाट बन कर की राजा राम की स्तुति

भगवान की कृपा प्राप्त करने के लिए भगवान की आराधना, स्तुति करना आवश्यक है । भगवत्कृपा केवल मनुष्यों के लिए ही नहीं वरन्, देवता, दानव, वेद, ऋषि-मुनि—त्रिलोकी के समस्त जीवों की चाह रही है; क्योंकि यही सुख-शान्ति व सफलता का साधन है ।

पूजा में आसन का महत्व

शास्त्रों में कुशा के आसन पर बैठकर भजन व योगसाधना का विधान है । कुशा के आसन पर बैठने से साधक का अशुद्ध परमाणुओं से बिल्कुल भी सम्पर्क नहीं होता है, इससे मन व बुद्धि पूरी तरह संयत रहती है और मन में चंचलता नहीं आती है ।

राजा परीक्षित की किस गलती की वजह से कलियुग का आरम्भ...

जिस बालक को गर्भ में ही परमात्मा श्रीकृष्ण के दर्शन हो गए हों, वह कितना पवित्र होगा ! किन्तु कलियुग का प्रभाव ही ऐसा है, अच्छे-अच्छों को प्रभावित कर देता है । वैसे तो जिस दिन, जिस क्षण श्रीकृष्ण इस पृथ्वी को त्याग कर गोलोकधाम पधारे थे, उसी क्षण से अधर्म रूपी कलियुग का आरम्भ हो गया था ।

गीता-जयन्ती पर अपने कल्याण के लिए क्या करें ?

श्रीमद्भगवद्गीता में कुल अठारह (18) अध्याय हैं जो महाभारत के भीष्मपर्व में निहित हैं । इनमें जीवन का इतना सत्य, इतना ज्ञान और इतने ऊंचे सात्विक उपदेश भरे हैं, जिनका यदि मनुष्य पालन करे तो वह उसे निकृष्टतम स्थान से उठाकर देवताओं के स्थान पर बैठा देने की शक्ति रखते हैं । गीता का अभ्यास करने वाला तो स्वयं तरन-तारन बन जाता है ।

हजार नामों के समान फल देने वाले भगवान श्रीकृष्ण के 28...

भगवान श्रीकृष्ण ने कहा—‘मैं अपने ऐसे चमत्कारी 28 नाम बताता हूँ जिनका जप करने से मनुष्य के शरीर में पाप नहीं रह पाता है । वह मनुष्य एक करोड़ गो-दान, एक सौ अश्वमेध-यज्ञ और एक हजार कन्यादान का फल प्राप्त करता है ।

कब है गीता का अध्ययन सार्थक ?

गीता भगवान श्रीकृष्ण का संसार को दिया गया प्रसाद है । गीता को समझने के लिए सिर्फ और सिर्फ आवश्यक है श्रीकृष्ण की शरणागति । इसीलिए गीता में शरणागति की बात मुख्य रूप से आई है । गीता शरणागति से ही शुरु होती है और शरणागति में ही समाप्त हो जाती है ।

श्रीकृष्ण : ‘वेदों में मैं सामवेद हूँ’

श्रीकृष्ण चरित्र भी सामवेद के इस मन्त्र की तरह मनुष्य को हर परिस्थिति में सम रह कर जीना सिखाता है । भगवान श्रीकृष्ण की सारी लीला में एक बात दिखती है कि उनकी कहीं पर भी आसक्ति नहीं है । द्वारकालीला में सोलह हजार एक सौ आठ रानियां, उनके एक-एक के दस-दस बेटे, असंख्य पुत्र-पौत्र और यदुवंशियों का लीला में एक ही दिन में संहार करवा दिया, हंसते रहे और यह सोचकर संतोष की सांस ली कि पृथ्वी का बचा-खुचा भार भी उतर गया ।