bhagwan hanuman ji praying to shiv ji thinking about ram and sita maiyya

पूजा में आसन पर बैठना केवल आराम या सुख के लिए कोमल वस्तु पर बैठना नहीं है; अपितु आसन तो वह आधारशिला है, जिस पर साधना टिकी है ।

गीता (६।११) में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है—

शुचौ देशे प्रतिष्ठाप्य स्थिरमासनमात्मन: ।
नात्युच्छ्रितं नातिनीचं चैलाजिनकुशोत्तरम् ।। 

अर्थात्—शुद्ध भूमि में जिसके ऊपर कुशा, मृगछाला या वस्त्र बिछे हैं, जो न बहुत ऊंचा है और न बहुत नीचा है, ऐसे अपने आसन को स्थिर स्थापन करके शांत एवं संयत चित्त हो उस पर बैठ कर साधना करनी चाहिए ।

पूजा में आसन क्यों जरुरी है ?

मन्त्र-जप करते समय या ध्यान-साधना करते समय शरीर के अंदर एक प्रकार की दिव्य विद्युत-शक्ति उत्पन्न होती है, जो शरीर और मन को स्वस्थ बनाती है । यदि शरीर और पृथ्वी के बीच कोई आसन न रखा जाए तो वह दिव्य विद्युत-शक्ति पृथ्वी के आकर्षण से खिंच जाएगी और इससे शरीर तथा मन—दोनों की ही स्वास्थ्य-हानि की आशंका रहेगी । तांत्रिक प्रणाली के अनुसार इससे साधक ‘कुण्डलिनी जागरण’ से और वैदिक मत से वह शरीर के एक भी ‘कमल’ के स्फुटित होने से वंचित रह जाएगा । इस प्रकार  पृथ्वी से अपने को अलग करने की इस प्रक्रिया का नाम है—‘आसन प्रतिष्ठा’ ।

संसार में दो तरह के पदार्थ होते हैं—१. बैड कण्डक्टर २. गुड कण्डक्टर । बैड कण्डक्टर में विद्युत रुक जाती है जैसे लकड़ी और गुड कण्डक्टर में विद्युत काम करती है जैसे लोहा, तांबा ।

वैज्ञानिक भाषा में आसन का अर्थ है—‘बैड कण्डक्टर’ जो जप-साधना से उत्पन्न हुई विद्युत-शक्ति और पृथ्वी के बीच व्यवधान बन कर उसे पृथ्वी में प्रवाहित होने से रोकता है । इसलिए शास्त्रों में आसन पर बड़ा जोर दिया गया है । पूजा-कर्म और संध्योपासना में आसन और उसकी शुद्धि अत्यन्त महत्वपूर्ण है । 

आसन शुद्धि कैसे करें ?

शुद्ध आसन पर बैठ कर पूजा करने से मनुष्य को भगवान के साथ अपने सम्बन्ध का अनुभव होता है । 

इस मन्त्र को पढ़कर आसन पर जल छिड़क कर उसे शुद्ध करें—

ॐ पृथ्वी ! त्वया धृता लोका देवि ! त्वं विष्णुना धृता ।
त्वं च धारय मां देवि ! पवित्रं कुरु चासनम् ।।

विभिन्न प्रकार के आसन और उनके लाभ-हानि

शास्त्रों में विभिन्न प्रकार के आसन बताए गए हैं और हरेक आसन का अपना लाभ या हानि है । जैसे—

वंशासने तु दारिद्रयं पाषाणे व्याधिसम्भवम् ।
धरण्यां दु:खसम्भूतिं दौर्भाग्यं द्वारवासने ।।
तृणासने यशोहानिं पल्लवे चित्तविभ्रमम् ।
दर्भासने व्याधिनाशं कम्बलं दु:खमोचनम् ।।

–बांस के आसन पर बैठकर पूजा करने से दरिद्रता आती है ।

–पाषाण के आसन पर बैठकर पूजा करने से रोगोत्पत्ति होती है ।

–पृथ्वी पर बैठकर पूजा करने से जीवन में दु:ख आता है ।

–काष्ठ के आसन पर बैठकर पूजा करने से दौर्भाग्य आता है ।

–तृण के आसन पर बैठकर पूजा करने से यश की हानि होती है ।

–पल्लव (पत्तों) के आसन पर बैठकर पूजा करने से चित्त का विभ्रम होता है, मन अस्थिर हो जाता है ।

–कुशा के आसन पर बैठकर पूजा करने से रोगनाश होता है ।

–कम्बल के आसन पर बैठकर पूजा करने से दु:ख का नाश होता है ।

इस प्रकार कुश, कम्बल, मृगचर्म, व्याघ्रचर्म और रेशम का आसन जप के लिए उत्तम हैं क्योंकि इनसे पृथ्वी की अध:आकर्षण शक्ति (नीचे की ओर खींचने वाली शक्ति) साधक को प्रभावित नहीं करती और कुण्डलिनी जागरण में बाधा नहीं आती है । कुशा के आसन पर बैठने से साधक का अशुद्ध परमाणुओं से बिल्कुल भी सम्पर्क नहीं होता है, इससे मन व बुद्धि पूरी तरह संयत रहती है और मन में चंचलता नहीं आती है ।

बांस, मिट्टी, पत्थर, तृण, पत्ते, गोबर, पलाश, पीपल और जिसमें लोहे की कील लगी हो, ऐसे आसन पर बैठ कर जप या संध्या न करें । जिस गृहस्थ के पुत्र हो, वह मृगचर्म पर बैठ कर पूजा न करे ।

शास्त्रों में कुशा के आसन पर बैठकर भजन व योगसाधना का विधान है । 

आसन पर बैठने में रखें इन बातों का ध्यान

—आसन पर सिद्धासन, पद्मासन या स्वस्तिकासन में से किसी आसन में बैठे ।

—हाथ, पैर और सिर यथास्थान रखें । पीठ की रीढ़ की हड्डी सीधी होनी चाहिए । मन्त्र-जप करते समय मनुष्य की नस-नाड़ियों और सूक्ष्म अव्ययों में आघात-प्रत्याघात होता है; जिससे शरीर में शक्ति का विकास और प्रसार होता है । यदि कोई भी अंग या नस टेढ़ी रहेगी तो पूजन-कर्म या मंत्र-जप से उदय होने वाली शक्ति के प्रवाह में बाधा पड़ेगी और उसका सही लाभ साधक को नहीं मिल पाएगा । इसलिए जप-पूजन में शरीर को सीधा और स्थिर रखना बहुत आवश्यक है ।

—किसी भी आसन में बैठें, पैर के तलुए गुह्य-स्थान से स्पर्श नहीं करने चाहिए ।

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