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भगवान श्रीकृष्ण महाभारत रूपी नाटक के सूत्रधार, पाण्डवों के सखा और पथ-प्रदर्शक थे । अर्जुन के जीवन में कई बार कठिनाइयां आईं और श्रीकृष्ण ने हर बार सहायता करके ‘आपत्सु मित्रं जानीयात्’ अर्थात् ‘आपत्ति में ही मित्र की पहचान होती है’—इस वाक्य को सही सिद्ध किया । श्रीकृष्ण हर तरह से अर्जुन को बचाने और जिताने के लिए सचेत रहे ।

लेकिन अर्जुन को अभिमान हो गया कि संसार में सिर्फ मैं ही श्रीकृष्ण का परम भक्त हूँ; तभी तो उन्होंने अपनी प्रिय बहिन सुभद्रा को मुझे सौंप दिया । युद्ध में मेरे सारथि बने, यहां तक की रणभूमि में स्वयं अपने हाथों से मेरे रथ के घोड़ों के घाव धोते रहे । सचमुच मैं ही उनका सबसे प्रिय हूँ ।

भगवान श्रीकृष्ण की अर्जुन का गर्व-हरण लीला

श्रीकृष्ण अर्जुन के अहंकार को ताड़ गए और उसका घमण्ड तोड़ने के लिए एक दिन उन्हें वन में ले गए । वहां अर्जुन की नजर एक ऐसे नग्न व्यक्ति (दिगम्बर) पर गई जो सूखी घास खा रहा था; परन्तु उसने कमर पर तलवार बांध रखी थी । 

चकित अर्जुन ने श्रीकृष्ण से पूछा—‘यह कौन-सा जीव है ?’

श्रीकृष्ण ने अभिनय करते हुए कहा—‘यह तो कोई शराबी मालूम देता है । इसका भोजन भी बड़ा विचित्र है ।’

अर्जुन उस दिगम्बर के प्रति अपनी जिज्ञासा शांत करने के लिए भगवान श्रीकृष्ण को एक शिला पर बैठा कर अकेले ही उसके पास गए और पूछा—‘आप एक तरफ तो अहिंसा के पुजारी हैं । जीव हिंसा से बचने के लिए आप मनुष्यों द्वारा खाए जाने वाले भोजन को त्याग कर सूखी घास खाकर गुजारा करते हैं और दूसरी ओर कमर में यह तलवार बांध रखी है ।’

दिगम्बर ने कहा—‘यदि तुम मेरे शत्रुओं को मारने की प्रतिज्ञा करो तो मैं तुम्हारी जिज्ञासा शांत कर सकता हूँ ।’

अर्जुन ने कहा—‘क्या आपका भी कोई शत्रु है ? यदि है तो वह विश्व का शत्रु है । मैं उसे मारने के लिए तैयार हूँ ।’

दिगम्बर ने कहा—मैं उन चार लोगों को दंडित करना चाहता हूँ और तलवार लेकर उन्हें खोज रहा हूँ; जिन्होंने मेरे प्राणप्रिय सखा प्रभु को अपमानित किया है । यदि तुम उन्हें मारने का वचन दो तो मैं तुम्हें उनके नाम बता सकता हूँ ।’

अर्जुन ने कहा—‘बतलाइए, वे कौन हैं और कहां रहते हैं ? मैं उन्हें अवश्य दण्डित करुंगा ।’

दिगम्बर ने कहा—‘मेरे पहले शत्रु नारद जी हैं, जो मेरे प्रभु को आराम नहीं करने देते । सदा भजन कीर्तन से उन्हें जगाए रहते हैं ।’

मेरा दूसरा शत्रु वह विप्र (भृगु ऋषि) है जिसने, जब मेरे प्रभु थक कर सो रहे थे, उनकी छाती पर पैर से आघात किया । क्रोध करने की बजाय मेरे प्रभु उसके चरण को यह कह कर दबाने लगे कि ब्राह्मण देवता मेरी कठोर छाती पर प्रहार करने से आपके चरण को कहीं चोट तो नहीं लगी ? मैं जब भी ध्यान में अपने प्रभु की छाती पर उस प्रहार का चिह्न देखता हूँ तो मेरे हृदय में शूल सा उठता है; इसलिए मैं उस विप्र को ही मिटा देना चाहता हूँ ।’

अर्जुन ने कहा—‘इससे तो आपको ब्रह्महत्या का पाप लगेगा । वह भी ऐसे ब्राह्मण की हत्या जो ब्राह्मणों का आदिपुरुष है । (भृगु ऋषि ब्रह्माजी के मानस पुत्र हैं ।)’

इस पर दिगम्बर ने कहा—‘मैं अपने प्राणप्रिय प्रभु के लिए कुछ भी करने को तैयार हूँ ।’

अर्जुन ने पूछा—‘आप और किस पुरुष का विनाश चाहते हैं ?’

दिगम्बर ने कहा—‘पुरुष नहीं, स्त्री (द्रौपदी) जिसके पांच-पांच पति हैं । उसने प्रभु को तब पुकारा जब वे भोजन करने बैठे ही थे ।  दुर्वासा के शाप से बचने के लिए उसने अपना जूठा शाक मेरे प्रभु को खिलाया । यदि वह स्त्री मुझे कहीं दिख जाए तो मेरी यह तलवार उसे अवश्य चाट जाएगी ।’

अर्जुन मन-ही-मन कहने लगे कि ये मैंने क्या प्रतिज्ञा कर ली ? क्या ब्रह्महत्या और स्त्रीहत्या जैसे जघन्य पाप  के लिए ही मेरी मां ने मुझे अपना दूध पिला कर बड़ा किया ?  इससे तो मैं पैदा ही न होता ?

सहमते हुए अर्जुन ने पूछा—‘और चौथा कौन है ?’

ब्राह्मण ने जबाव दिया—‘क्षत्रियों में अधम अर्जुन, जिसने मेरे प्रभु के हाथों में घोड़ों की लगाम थमा कर युद्ध में उन्हें अपना सारथी बनाया । उसको भगवान के कष्ट का जरा भी ज्ञान नहीं हुआ । दूसरों से शक्ति उधार लेकर जो मन में अपने को सबसे बड़ा वीर मानता है । वह यदि मेरे सामने आ जाए तो मैं उसे आतातायी समझ कर तुरंत मार डालूंगा, जिसने मेरे प्रभु का इतना बड़ा अपमान किया ।’

यह कहते हुए ब्राह्मण की आंखों से आंसू बहने लगे । अर्जुन को अब भान हुआ कि मैं कितने पानी में हूँ । उसके सिर से कृष्ण-भक्ति का घमंड उतर गया । 

अर्जुन ने दिगम्बर से कहा—‘आपके सामने की गई आपके शत्रुओं को मारने की प्रतिज्ञा से मैं मुक्त होना चाहता हूँ, अर्थात् वह प्रतिज्ञा मैं पूरी नहीं कर सकता हूँ ।’

अर्जुन के वापिस लौटने पर भगवान श्रीकृष्ण ने कहा—‘मैंने तुम्हें उस मदोन्मत्त व्यक्ति के पास नि:शस्त्र भेज कर ठीक नहीं किया । मुझे तुम्हारी बहुत चिन्ता हो रही थी ।’

अर्जुन ने कहा—‘वह तो क्रोध की प्रचण्ड मूर्ति बन कर मुझे ही खोज रहा है ।’

अंत में भगवान ने सारा रहस्य खोलते हुए कहा—‘तीनों लोकों में वही प्रधान भगवद्भक्त है, जिसने अपने प्राणों का मोह छोड़ कर अहिंसाव्रत लिया; किंतु भगवान के अपमान का ध्यान आते ही ब्रह्महत्या और स्त्रीहत्या जैसे जघन्य पाप के लिए भी तैयार हो गया । वास्तव में ‘सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज’ का सही अर्थ उसने ही समझा है ।

अर्जुन के देखते-देखते वह दिगम्बर भगवान के हृदय में प्रविष्ट हो गया । 

अर्जुन ने सकुचाते हुए श्रीकृष्ण से कहा—‘प्रभु आपके तो अनगिनत भक्त हैं । इन सब के सामने मैं तो कुछ भी नहीं हूँ ।’

श्रीचैतन्य महाप्रभु जी ने मनुष्य को भगवान का प्रिय बनने के लिए अपने ग्रंथ शिक्षाष्टक में लिखा है–

‘तृण से भी अधिक नम्र होकर, वृक्ष से भी अधिक सहिष्णु बनकर, स्वयं मान की अभिलाषा से रहित होकर तथा दूसरों को मान देते हुए सदा श्रीहरि के कीर्तन में रत रहें ।’

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