bhagavad gita bhagvat gita

गीता में कर्मयोग

गीता के कर्मयोग का सबसे महत्त्वपूर्ण श्लोक है—

कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन ।
मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि ॥ (गीता २।४७)

अर्थात्—भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं—‘तेरा कर्म करने में ही अधिकार है, उसके फलों में नहीं । मनुष्य के कौन-से कर्म का क्या फल होगा और वह फल उसको किस जन्म में और किस प्रकार मिलेगा, इसका न तो उसको कुछ पता है और न वह अपने इच्छानुसार समय पर उसे प्राप्त कर सकता है और न ही वह उस कर्म के फल से बच सकता है । इसीलिए मनुष्य चाहता कुछ और है और होता कुछ और है । कर्मों के फल का विधान करना पूरी तरह विधाता के हाथ में है । इसलिए हे अर्जुन ! तू कर्मों के फल का हेतु मत हो और तेरी कर्म न करने में भी आसक्ति न हो ।’

मानव जीवन के लिए कर्म करना अनिवार्य

गीता में भगवान ने कर्म की अनिवार्यता बताते हुए कहा है कि कर्म न करने की अपेक्षा कर्म करना श्रेष्ठ है क्योंकि कर्म न करने से सिद्धि मिलना तो दूर रहा शरीर का निर्वाह भी नहीं होगा और जीवन भी न चलेगा । भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं–

न मे पार्थास्ति कर्तव्यं त्रिषु लोकेषु किंचन ।
नानवाप्तमवाप्तव्यं वर्त एव च कर्माणि ।। (गीता ३।२२)

अर्थात्–’अर्जुन ! मुझे ही देखो न, तीनों लोकों में मुझे कुछ भी करना नहीं है, और न कोई ऐसी वस्तु ही बाकी है, जो अब तक मुझे प्राप्त न हुई हो, तो भी मैं कर्म में प्रवृत्त होता हूँ ।’

वेद में भी कहा गया है—‘मनुष्य को कर्म करते हुए सौ वर्षों तक जीवित रहने की इच्छा करनी चाहिए ।’

समस्त संसार कर्म का ही परिणाम

संसार की कोई भी वस्तु चाहे वह चर हो या अचर निष्क्रिय नहीं रह सकती क्योंकि प्रकृति सबको कर्म में बांधे रखती है । कर्म के कारण ही कोई लता-बेल तो कोई पशु-पक्षी, कोई राजा तो कोई रंक और कोई अपराधी या न्यायाधीश बनता है । यद्यपि नदी-नाले, पेड़-पौधे, पहाड़ आदि जड़ पदार्थ निष्क्रिय-से लगते हैं किन्तु सभी कर्मशील हैं । नदी-नाले अपना जल बहाकर संसार को जीवन प्रदान करते हैं, बीजों से निकला अंकुर वृक्ष बनकर संसार को छाया, फल आदि प्रदान करता है, पर्वत अपने कर्म—बादलों से टकरा कर पृथ्वी को वर्षा का जल प्रदान करते हैं ।  जब जड़ पदार्थ भी इतने क्रियाशील हैं तो हाथ-पैरधारी मनुष्य की तो बात ही क्या है ? मनुष्य जो कुछ करता है अर्थात् खाना-पीना, उठना-बैठना, सोना-जागना, जीना-मरना सब क्रियाएं ही हैं ।

कर्म ही पुनर्जन्म का आधार

एक ओर कर्म करना अनिवार्य है तो दूसरी तरफ कर्मबंधन से बचने की आवश्यकता है क्योंकि कर्मफल भोगने के  लिए ही जीव को पुनर्जन्म लेना पड़ता है । जिस प्रकार मक्खी लोभवश शहद पर टूट पड़ती है और उसका रस लेने के साथ-साथ वह उसमें ज्यादा लिपटती जाती हैं और अंत में मृत्यु को प्राप्त हो जाती है; उसी प्रकार मनुष्य भी इस कर्म-जंजाल में फंसकर मृत्यु को प्राप्त होता है और फिर कर्मफल के भोग के लिए पुनर्जन्म धारण करता है ।

कर्म बन्धन से छूटने का सरल उपाय

जैसे सरोवर में कमलपत्र जलराशि से सदैव ऊपर उठे हुए उससे निर्लिप्त व अछूते रहते हैं; वैसे ही मनुष्य को सभी कर्मों को परमात्मा को अर्पित करके उनके कर्मफल व पाप-पुण्य से निर्लिप्त रहना चाहिए ।

गीता के अनुसार ‘जो कर्म परमात्मा की प्रसन्नता के लिए, लोकसंग्रह के लिए, सब लोगों के उद्धार के लिए, आसक्ति, स्वार्थ और कामना को त्याग कर किया जाता है, वह बांधता नहीं और यह ‘यज्ञ’ है ।

भगवान ने कहा है तुम आसक्ति छोड़कर निरन्तर कर्म करते रहो, कर्मों में कर्तापन का त्याग और फल की इच्छा का त्याग करने से मनुष्य मुझे अर्थात् मोक्षरूपी फल प्राप्त कर लेता है । यही ‘कर्म संन्यास’ है ।

कर्म कौन-सा करें ?

स्वे स्वे कर्मण्यभिरत: संसिद्धिं लभते नर: । (गीता १८।४५)

जो सिद्धि यज्ञों से बतायी गयी है वही अपने वर्ण के अनुसार कर्म करने से मनुष्य को सुलभ हो जाती है । मनुष्य को अपने आश्रम, योग्यता व विभिन्न परिस्थितियों में जो भी छोटा या बड़ा कार्य करने को मिले, उसे भगवत्कार्य समझकर पूर्ण प्रसन्नता के साथ निष्काम भाव से भगवान के चरण में समर्पित करते हुए करना चाहिए । इसी से परम सिद्धि की प्राप्ति होती है ।

गीता (१८।४६) में भी यही कहा गया है कि अपने स्वाभाविक कर्मों द्वारा पूजा करके मनुष्य परम सिद्धि को प्राप्त हो जाता है ।

अपना कर्तव्यकर्म करना ही भगवान का पूजन

क्षत्रिय होने के नाते अर्जुन के लिए युद्ध करना ही कर्तव्यकर्म है, इसलिए भगवान ने अर्जुन को युद्ध करने की आज्ञा दी ।

महाभारत के युद्ध में पितामह भीष्म ने अर्जुन के सारथि बने हुए भगवान की अपने युद्धरूप कर्म के द्वारा बाणों से पूजा की । इससे भगवान का कवच टूट गया और शरीर व ऊंगलियों में घाव हो गए जिसके कारण लगाम पकड़ना भी मुश्किल हो गया । ऐसी पूजा करके अंत समय में शरशय्या पर पड़े हुए पितामह भीष्म कहते हैं—‘इस प्रकार बाणों से अलंकृत भगवान कृष्ण में मेरे मन-बुद्धि लग जाएं ।’

कर्म ही देवताओं के प्रति सच्ची पूजा

‘मेरे पास जो कुछ है,वह सब उस परमात्मा का ही है, मुझे को केवल निमित्त बनकर उनकी दी हुई शक्ति से उनका पूजन करना है’—इस भाव से जो कुछ किया जाए, वह सब-का-सब परमात्मा का पूजन हो जाता है । इसके विपरीत जिन कार्य या वस्तुओं को मनुष्य अपना मान लेता है वे अपवित्र होकर परमात्मा के पूजन से वंचित रह जाती हैं ।

जहां हैं, जिस वर्ण में हैं, जिस आश्रम में हैं, जैसी परिस्थिति में हैं, केवल उसी का सदुपयोग करना है, उसी से मुक्ति हो जाएगी । कुछ बदलना नहीं है, बदलना है केवल मन का भाव ।

इसी को कहते हैं—‘कर्म करते हुए परमात्मा को प्राप्त करना ।’

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here