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‘अगुन सगुन दुइ ब्रह्म सरुपा’

सारे ब्रह्माण्ड की व्यवस्था, पालन व संहार करने वाली अदृश्य सत्ता को हम ‘ब्रह्म’, ‘भगवान’ या ‘परमात्मा’ कहते हैं । ‘अगुन सगुन दुइ ब्रह्म सरुपा’ अर्थात् ब्रह्म के दो स्वरूप हैं—एक है निर्गुण (निराकार) और दूसरा सगुण (साकार) । यह सृष्टि इन दोनों प्रकार के ब्रह्म से ही चल रही है ।

गीता में अर्जुन भगवान श्रीकृष्ण से पूछते हैं—‘प्रभो ! साकार और निराकार उपासकों में कौन श्रेष्ठ है ?

एवं सततयुक्ता ये भक्तास्त्वां पर्युपासते ।
ये चाप्यक्षरमव्यक्तं तेषां के योगवित्तमा: ।। (१२।१)

गीता में साकार ब्रह्म (सगुण भक्ति) की श्रेष्ठता

भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन की शंका का समाधान चार श्लोकों (१२।२-५) में करते हुए कहते हैं—

मय्यावेश्य मनो ये मां नित्ययुक्ता उपासते ।
श्रद्धया परयोपेतास्ते मे युक्ततमा मता: ।। (१२।२)

अर्थात्—‘मुझमें मन को एकाग्र करके निरन्तर मेरे भजन-ध्यान में लगे हुए जो भक्तजन अत्यन्त श्रद्धा से मुझ सगुणरूप परमेश्वर को भजते हैं, उन्हीं को मैं श्रेष्ठ योगवेत्ता मानता हूँ ।’

इसका सर्वश्रेष्ठ उदाहरण गोपियां हैं जिन्हें ‘महाभागा’ कहा गया है । गोपियां घर के सभी काम करते समय गद्गद् कंठ व अश्रुभरी आंखों से श्रीकृष्ण का स्मरण व उनकी लीलाओं का गान किया करती थीं । भगवान श्रीकृष्ण ने सदैव अपने को उनका ऋणी बताते हुए कहा है—‘गोपियों की चरणरज लेने के लिए मैं सदैव उनके पीछे-पीछे घूमा करता हूँ ।’

गोपियां निर्गुण ब्रह्म से सगुण श्रीकृष्ण को श्रेष्ठ बताती हुई उद्धवजी से कहती हैं—‘हे उद्धव ! आपका अनोखा रूपरहित ब्रह्म हमारे किस काम का है, अर्थात् वह हमारे किसी काम का नहीं है । हमें तो ऐसे सगुण-साकार ब्रह्म की चाह है, जिसे हम देख सकें और जो हमारे बीच रहकर हमारे सभी दैनिक कार्यों में सहायक हो ।’

सगुण भक्ति सरल व भावप्रधान

सगुण परमात्मा की उपासना सरल है । वहां तो भगवान केवल भाव के भूखे हैं ।

गीता (९।२६) में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं—‘जो कोई भक्त मेरे लिए प्रेम से पत्र, पुष्प, फल, जल आदि अर्पण करता है, उस प्रेमपूर्वक अर्पण किए हुए पत्र-पुष्पादि को मैं सगुणरूप से प्रकट होकर खाता हूँ ।’

इस श्लोक में भगवान ने ‘प्रेमपूर्वक’ शब्द का प्रयोग किया है । भाव के वश होकर ही परमात्मा श्रीकृष्ण जो खाने की चीज नहीं है, जैसे—पत्र-पुष्प उसे भी खाते हैं, कहीं भक्त की सेवा करते हैं तो कहीं भक्त के लिए रोते हैं—

देखि सुदामा की दीन दशा,
करुना करिके करुनानिधि रोये ।
पानी परात को हाथ छुयो नहिं,
नैनन के जल सों पग धोये ।। (कवि नरोत्तम)

कहीं भक्त के शत्रु को अपना शत्रु बतला देते हैं । श्रीमद्भागवत में भगवान उद्धवजी से कहते हैं—‘यदि भक्तों के प्रतिकूल मेरी भुजा भी उठे तो मैं उसे भी काटकर फेंक दूँ ।’

कहीं भक्तों की स्तुति सुनते हैं—यह प्रसंग दक्षिण भारत के उडुपी मन्दिर का है जहां एक महान कृष्णभक्त हुए—कनकदास । उनका मन्दिर में प्रवेश वर्जित था । एक दिन कनकदास मन्दिर की बाहर से परिक्रमा कर रहे थे । मन्दिर के पीछे जाने पर उन्होंने एक छोटी-सी खिड़की देखी और वे उसके सामने बैठकर भजन गाने लगे । उनकी मधुर आवाज से आकर्षित होकर लोगों की भीड़ लग गयी और वे उनको घेर कर खड़े हो गए । तभी लोगों ने देखा कि कनकदास का भजन सुनने और उसे दर्शन देने के लिए मूर्ति पीछे घूम गयी । पुजारी यह देखकर आश्चर्यचकित रह गए । स्पष्ट है कि सगुण भक्ति में भाव से ही भगवत्प्राप्ति हो जाती है ।

सगुण भक्ति में भक्त और भगवान के बीच परस्पर रस का आदान-प्रदान

भक्त की सेवा से भगवान को रस मिलता है और भगवान की लीला से भक्त प्रेमरस में डूबा रहता है ।

सूरदासजी प्रतिदिन मंदिर में भगवान श्रीकृष्ण को पद सुनाया करते थे । प्रतिदिन की तरह आज भी श्रीकृष्ण ने सूरदास के हाथों में इकतारा देकर कहा, ‘सुनाओ कोई नया पद ! आज तुम बजाओ मैं नाचूँगा ।’

अभी सूरदास इकतारे का स्वर मिला ही रहे थे कि ना जाने श्रीकृष्ण को क्या सूझा । उन्होंने सूरदास के हाथ से इकतारा ले लिया और बोले–‘तुम रोज गाते बजाते हो और मैं सुन-सुनकर नाचता हूँ, पर आज मैं गाऊँगा-बजाऊँगा और तुम नाचोगे ।’
सूरदासजी ने आश्चर्यचकित होते हुए कहा—‘मैं नाचूँ ! यह क्या कौतुक है कान्हा । मुझ बूढ़े को नचाओगे । पर मुझे नाचना आता ही कहां है ?’
कृष्ण बोले, ‘नहीं आज तो नाचना ही पड़ेगा ।’
‘अच्छा कान्हा ! मैं नाच लूंगा, पर कितनी बार नचाओगे । चौरासी लाख योनियों में मुझे नचाकर भी तुम्हारा मन नहीं भरा । अब और न नचाओ कान्हा ।’ इस लीला का सूरदासजी का सुन्दर पद है—‘अब मैं नाच्यौ बहुत गुपाल ।’

निर्गुण ब्रह्म की उपासना कठिन व कष्टसाध्य

निर्गुण ब्रह्म सारे ब्रह्माण्ड में उसी प्रकार व्यापक है जैसे दूध में मक्खन; पर आंखों से दिखाई नहीं पड़ता उसे समझने के लिए दिव्य ज्ञान-नेत्र की आवश्यकता होती है ।

निर्गुण ब्रह्म की प्राप्ति का उपाय कितना कठिन है—देखिए गीता के श्लोक (८।१२-१३)—

‘सब इन्द्रिय के द्वारों को रोककर तथा मन को हृदय में स्थिर करके फिर उस जीते हुए मन के द्वारा प्राण को मस्तक में स्थापित करके परमात्म सम्बन्धी योगधारणा में स्थित होकर जो पुरुष ‘ॐ’ इस एक अक्षररूप ब्रह्म का उच्चारण करता हुआ मुझ निर्गुण ब्रह्म का चिन्तन करता हुआ शरीर को त्याग कर जाता है, वह पुरुष परम गति को प्राप्त कर लेता है।’

स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ने गीता (१२।५) में स्वीकार किया है कि निर्गुण ब्रह्म की उपासना अधिक कष्टदायी है—

‘अर्जुन ! साकार तथा निराकार ब्रह्म के उपासक दोनों ही श्रेष्ठ हैं और दोनों ही मुझे प्राप्त होते हैं, किन्तु देहाभिमानी होने पर निर्गुण उपासक को साधना में क्लेश अधिक उठाना पड़ता है ।’

निर्गुण ब्रह्म की उपासना में भक्ति के रस को व्यक्त नहीं किया जा सकता

सूरदासजी ने निर्गुण ब्रह्म को ‘गूंगे का मीठा फल’ बताया है । जैसे एक गूंगा व्यक्ति मीठे फल को खाकर तृप्त तो हो जाता है किन्तु वह बता नहीं सकता कि उस फल का स्वाद कैसा था; उसी प्रकार कठिन साधना द्वारा मनुष्य निर्गुण ब्रह्म की अनुभूति तो कर लेता है किन्तु उसे शब्दों में बता नहीं सकता ।

ब्रह्म के साकार और निराकार दोनों ही रूपों में कोई अंतर नहीं है । श्रद्धा-विश्वास और पूर्ण शरणागति से सगुण और निर्गुण भक्ति—दोनों से भगवान की प्राप्ति हो सकती है ।

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