hanuman ji bhagwan

संसार में ऐसे तो उदाहरण हैं जहां स्वामी ने सेवक को अपने समान कर दिया हो; किन्तु स्वामी ने सेवक को अपने से ऊंचा मानकर सम्मान दिया है, यह केवल श्रीराम-चरित्र में ही देखने को मिलता है । श्रीरा-मचरित्र को प्रकाश में लाने के लिए हनुमानजी का अवतार हुआ । रामायणरूपी महामाला के महारत्न हनुमानजी यदि रामलीला में न हों तो वनवास के आगे की लीला अपूर्ण ही रह जाएगी । 

हनुमानजी श्रीराम के दूत व सेवक थे; लेकिन श्रीराम की भक्ति, अखण्ड ब्रह्मचर्य और साधना के कारण हनुमानजी के चरित्र में अलौकिक शक्तियां आ गईं और उनका दैवीकरण हो गया ।  जहां-जहां श्रीराम की पूजा होती है, वहां-वहां हनुमानजी का दर्शन अवश्य होता है । श्रीरामजी के द्वार पर हनुमानजी हमेशा विराजमान रहते हैं और बिना उनकी आज्ञा के कोई रामजी की ड्यौढ़ी में प्रवेश नहीं कर सकता–

राम दुआरे तुम रखवारे ।
होत न आज्ञा बिनु पैसारे ।।

‘राम ते अधिक राम का दासा’ : हनुमानजी

सेवक का कोई एक रूप नहीं होता है । स्वामी का जिस रूप में कार्य सम्पन्न हो और जिससे स्वामी को सुख मिले, सेवक वही रूप बना लेता है । हनुमानजी श्रीराम का दूत का कार्य भी करते हैं, युद्ध भी करते हैं, आवश्यकता पड़ने पर वाहन भी बन जाते हैं और मांगने पर सलाह भी देते हैं । अपने इष्ट के सारे असम्भव कार्यों जैसे–समुद्र को लांघकर सीताजी का पता लगाना, लंकादहन, लंका से गृह सहित सुषेण वैद्य को लाना, संजीवनी बूटी लाकर लक्ष्मण को प्राण दान देना, अजेय दुष्ट राक्षसों का वध करना और श्रीराम के अभिषेक के लिए चारों समुद्रों और पांच सौ नदियों से जल लाना आदि हनुमानजी के शौर्य व पराक्रम व असाधारण शक्ति से संभव था; इसीलिए हनुमानजी के लिए कहा जाता है—‘राम तें अधिक राम का दासा’ ।

श्रीराम व लक्ष्मण को अहिरावण ने जब देवी की बलि देने के लिए बांधकर रखा था, तब हनुमानजी के बारे में श्रीराम लक्ष्मण से कहते हैं–’भाई लक्ष्मण ! आपत्ति के समय समस्त प्राणी मेरा स्मरण करते हैं, किन्तु मेरी आपदाओं का अपहरण करने वाले तो पवनकुमार ही हैं । अत: हम लोग उनका स्मरण करें । ’

युद्ध के समय जब रावण ने अपने मंत्री धूम्राक्ष को युद्ध के लिए भेजा तो उसने वानरों को देखकर कहा—‘मैं लंका में ‘महावीर’ के नाम से जाना जाता हूँ, मैं साधारण वानरों से नहीं लड़ता । मैं तो राम, लक्ष्मण, सुग्रीव और विभीषण को मारने आया हूँ ।’

तब हनुमानजी ने धूम्राक्ष को ललकारते हुए कहा—‘मंत्रीजी ! लंका में आप महावीर कहलाते हो परन्तु ये वानर मुझे महावीर कहते हैं । अत: पहले आप मुझसे युद्ध करें ।’

हनुमानजी का इतना कहते ही धूम्राक्ष ने उन पर बाणों की बौछार शुरु कर दी । हनुमानजी कहां चूकने वाले थे उन्होंने दो पर्वत उठाकर धूम्राक्ष पर दे मारे, जिनके नीचे दब कर वह मर गया ।

रावण जब श्रीराम से युद्ध करने आया तो लक्ष्मणजी भी उनके साथ युद्ध करने लगे । रावण ने एक ऐसा अमोघ बाण छोड़ा कि लक्ष्मणजी उससे मूर्च्छित होकर पृथ्वी पर गिर पड़े । युद्ध में स्वामी के प्रति सदैव सचेत रहने वाले हनुमानजी लक्ष्मणजी को अपनी पीठ पर लाद कर श्रीराम के समीप ले आए । उसी समय धीरे-धीरे लक्ष्मणजी स्वयं ही संभल गए । अब श्रीराम को रावण पर बहुत क्रोध आया । उन्होंने हनुमानजी से कहा—‘हनुमान ! तुम मुझे उस दुष्ट रावण के समीप ले चलो, आज मैं उसके बल-पुरुषार्थ को देखूंगा ।’

हनुमानजी ने श्रीराम से प्रार्थना की—‘प्रभो ! रावण रथ पर है । आप पैदल उससे युद्ध करें, यह सही नहीं है । आप मेरे कन्धों पर बैठ कर उससे युद्ध करें ।’

श्रीराम हनुमानजी की बात मानकर उनके कन्धों पर बैठ कर रावण से युद्ध करने के लिए चले । जब रावण ने श्रीराम को हनुमानजी के कन्धों पर बैठकर युद्ध के लिए आते देखा तो बोला—‘मैं बहुत दिनों से राम को खोज रहा था । आज मैं राम को मार कर राक्षसों का भय दूर कर दूँगा ।’

बहुत देर तक भयंकर युद्ध होता रहा । हनुमानजी अपने कौशल से रावण के प्रहारों से श्रीराम को बचाते रहे । क्रोधित होकर रावण ने मन में कहा—

‘यह वानर ही हत्या की जड़ है । जिस काम में देखो, उसी में आगे आ जाता है । किसी भी छोटे-से-छोटे कार्य में इसे संकोच नहीं । दूत बनकर इसने मेरी लंकापुरी में आग लगा दी, मेरे पुत्र अक्षय कुमार और मंत्री धूम्राक्ष को मारा । संजीवनी बूटी लाकर लक्ष्मण को बचा लिया, युद्ध में मुझे घायल कर दिया । अब यह राम का वाहन बन कर आ गया, पहले इसी को मार डालूं । इसके मरने से राम निर्बल हो जाएगा ।’

हनुमानजी तो लड़ नहीं रह थे; इसलिए वे रावण के प्रहारों से घायल हो गए । यह देखकर श्रीराम को बहुत क्रोध आया और वे रावण से घोर युद्ध करने लगे । श्रीराम ने देखा अब रावण बहुत थक गया है, तो उन्होंने कहा—‘मैं अधर्म युद्ध करना नहीं चाहता, तुम कल आना, कल फिर युद्ध होगा ।’ यह सुन कर रावण बहुत लज्जित हुआ ।

दूसरे दिन युद्ध में श्रीराम ने रावण को मार दिया । रावण की सेना के कितने असुर हनुमानजी द्वारा मारे गए इसका लेखा-जोखा ही नहीं है । 

भगवान श्रीराम ने हनुमानजी के बुद्धि-कौशल व पराक्रम को देखकर उन्हें अपना दुर्लभ आलिंगन प्रदान किया । भगवान श्रीराम हनुमानजी से कहते हैं–‘संसार में मुझ परमात्मा का आलिंगन मिलना अत्यन्त दुर्लभ है । हे वानरश्रेष्ठ ! तुम्हे यह सौभाग्य प्राप्त हुआ है । अत: तुम मेरे परम भक्त और प्रिय हो ।’

हनुमानजी का अगाध चरित्र

▪️स्वामी की आज्ञा पालन करना हनुमानजी के चरित्र को बहुत विशाल बना देता है । श्रीराम की विजय के शुभ समाचार को लेकर हनुमानजी माता सीता के पास गए । हनुमानजी के उपकारों के कारण मानो कृतज्ञता के भार से दबी सीताजी ने कहा—‘हनुमान ! तुम्हारे ऋण से मैं कभी उऋण न हो सकूंगी, सदा तुम्हारी ऋणी रहूंगी ।’

हनुमानजी ने कहा—‘मां ! आप कैसी बात कर रही हैं । मेरी एक इच्छा है, आप कहें तो मैं उसे पूरा कर लूं ।’

माता सीता ने कहा—‘कौन-सी इच्छा, बोलो ।’

हनुमानजी ने कहा—‘अशोक वाटिका में रावण के कहने पर राक्षसियों ने आपको बहुत यातनाएं दी हैं । अब उन्हें देखकर मेरे हाथ खुजला रहे हैं । आपकी आज्ञा हो तो उन्हें दो-दो झापड़ जमा दूँ, आपको कष्ट देने का इन्हें मजा चखा दूँ ।’

माता सीता ने हनुमानजी को ऐसा करने से मना करते हुए कहा—‘मनुष्य अपनी स्थिति से विवश होकर न करने योग्य कार्य भी करता है । परिस्थितियां उसे ऐसा करने पर विवश कर देती हैं । ये सब-की-सब निरपराधिनी हैं । कोई किसी को दु:ख-सुख नहीं देता । सब काल करवा लेता है । सबल को निर्बलों पर दया करनी चाहिए । तुम दो-दो झापड़ की बात करते हो ये तो तुम्हारे एक ही झापड़ में धराशायी हो जाएंगी । उस समय ये रावण के अधीन थीं । इन्होंने जो भी किया रावण की आज्ञा से ही किया । अब रावण मर गया तो वे बातें भी समाप्त हो गईं । अब ये तुम्हारी कृपा पर निर्भर हैं, तुम्हें उन पर दया करनी चाहिए ।’

▪️ हनुमानजी यद्यपि श्रीराम के दूत और दास के रूप में प्रसिद्ध हुए पर उन्होंने श्रीराम के चरणकमलों की भक्ति से यह सिद्ध कर दिया कि दूत या सेवक का कार्य निंदनीय नहीं है; बल्कि वे सच्चे कर्मयोगी भक्त हैं । उन्होंने संसार को यह संदेश दिया कि ईश्वर की कृपा से जो कर्म करने को मिले, उसी में दक्षता प्राप्त करनी चाहिए । मनुष्य को सच्चा कर्मयोगी बनना चाहिए । 

▪️अहंकार का अभाव हनुमानजी के चरित्र को और भी ऊंचा उठा देता है । आज मनुष्य शक्ति के मद में चूर है । हनुमानजी का चरित्र हमें अहंशून्य एवं विनम्र होने की शिक्षा देता है ।

हनुमानजी जैसे सेवकों के लिए ही भगवान ने कहा है—‘मैं भक्तों का दास भक्त मेरे मुकुटमणि ।’

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