bhagwan hanuman ji shri ram

हनुमानजी जन्मजात महान सिद्ध योगी हैं । उनके पिता केसरी ने हनुमानजी को प्राणायाम या प्राण-विद्या की साधना गर्भ में ही करा दी थी; जिस तरह अभिमन्यु को गर्भ में ही चक्रव्यूह-भेदन का ज्ञान हो गया था । हनुमानजी का चरित्र उस योगी का है जिसने प्राणशक्ति को वशीभूत करके मृत्यु पर विजय प्राप्त कर ली है । तभी तो पैदा होते ही वे भयंकर भूख से पीड़ित होकर उगते हुए सूर्य को फल समझ कर उसे खाने के लिए आकाश में उछल कर सूर्यमण्डल तक पहुंच गए थे । ऐसी सामर्थ्य किसी महान योगी में ही हो सकती है ।

श्रीराम-वल्लभा सीताजी ने हनुमानजी की भक्ति-भावना से प्रसन्न होकर उन्हें वरदान दिया—

‘मारुतिनंदन ! अष्ट सिद्धियां तुम्हारे करतलगत हो जाएं और तुम जहां कहीं भी रहोगे, वहीं मेरी आज्ञा से सम्पूर्ण भोग (निधियां) तुन्हारे पास उपस्थित हो जाएंगे ।’

अष्ट सिद्धि नव निधि के दाता ।
अस वर दीन्ह जानकी माता ।।

अणिमा, महिमा आदि सभी सिद्धियां अपने उत्कृष्ट रूप में हनुमानजी में व्याप्त हैं; इसीलिए हनुमानजी अपने सच्चे उपासक को इन सिद्धियों से समृद्ध कर देते हैं ।

अमरकोश में अष्ट सिद्धियां इस प्रकार बतायी गयी हैं—

अणिमा महिमा चैव गरिमा लघिमा तथा ।
प्राप्ति: प्राकाम्यमीशित्वं वशित्वं चाष्टसिद्धय: ।।

अर्थात्—(1) अणिमा (2) महिमा (3) गरिमा (4) लघिमा (5) प्राप्ति (6) प्राकाम्य (7) ईशित्व और (8) वशित्व—ये अष्ट सिद्धियां हैं । 

हनुमानजी का जीवन केवल ‘राम काज’ के लिए है; जानते हैं कि हनुमानजी ने राम काज के लिए इन सिद्धियों का कैसे प्रयोग किया ? 

(1) अणिमा—इस सिद्धि से शरीर को अणु जितना छोटा बनाया जा सकता है । सीताजी का पता लगाने के लिए लंका जाते समय सुरसा के विशाल शरीर और मुख को देखकर हनुमानजी ने अत्यन्त लघु रुप धारण कर लिया । लंका में प्रवेश करते समय हनुमानजी ने मशक के समान अति लघुरूप धारण किया–

मसक समान रूप कपि धरी ।
लंकहि चलेउ सुमिरि नरहरी ।।
(मानस ५।४।१)

अशोक वाटिका में सीताजी के समक्ष प्रकट होते समय हनुमानजी के रूप का ‘श्रीरंगनाथ रामायण’ में इस प्रकार वर्णन किया गया है–

‘हनुमानजी अंगुष्ठमात्र का आकार ग्रहण कर उस अशोक वृक्ष पर चढ़ गए  । बालक के रूप में वटवृक्ष के पत्रों में शयन करने वाले भगवान विष्णु के समान वे श्रेष्ठ वानर उस वृक्ष की घनी शाखाओं में बड़ी कुशलता के साथ छिपकर बैठ गए और उन विशालाक्षी सीताजी को बार-बार ध्यान से देखने लगे ।’

(2) महिमा—इस सिद्धि से देह को चाहे जितना बड़ा या भारी बनाया जा सकता है । जब समुद्र पार करते समय सुरसा हनुमानजी को निगलने चली तो वे सौ योजन आकार वाले हो गए । हनुमानजी ने इसी सिद्धि से समुद्र लांघते समय अपने शरीर को पर्वताकार बनाया था—

जस जस सुरसा बदनु बढ़ावा ।
तासु दून कपि रूप देखावा ।। (मानस ५।१।५)

हनुमानजी सीताजी से कहते हैं—‘वानर-सेनाओं के साथ आकर श्रीराम लंका को क्षण भर में भस्म कर देंगें ।’

तब सीताजी कहती हैं—‘तुम तो अत्यंत लघु शरीर वाले हो, अन्य भालू-वानर भी तुम्हारी तरह लघुकाय ही होंगे, फिर वे ऐसे विशाल शरीर वाले राक्षसों से कैसे लड़ेंगे ?’ उस समय हनुमानजी ने स्वर्ण-शैल के समान विशाल रूप धारण कर अपनी शक्ति का परिचय दिया—

कनक भूधराकार सरीरा ।
समर भयंकर अतिबल बीरा ।। (मानस ५।१५।४)

(3) गरिमा—एक बार हनुमानजी गंधमादन पर्वत पर अपनी पूंछ फैलाकर लेटे हुए थे । उसी समय अपने बल के गर्व में चूर भीमसेन वहां आए । हनुमानजी ने उनसे कहा—‘बुढ़ापे के कारण मैं स्वयं उठने में असमर्थ हूँ, कृपया तुम मेरी इस पूंछ को हटाकर आगे बढ़ जाओ । भीमसेन हंसते हुए बायें हाथ से हनुमानजी की पूंछ हटाने लगे पर वह टस-से-मस नहीं हुई । भीमसेन हनुमानजी का विन्ध्य पर्वत के समान अत्यन्त भयंकर और अद्भुत शरीर देखकर घबरा गए और लज्जा से मुख नीचा कर कपिराज से क्षमा मांगने लगे । यहां हनुमानजी की गरिमा सिद्धि परिलक्षित होती है ।

(4) लघिमा—इस सिद्धि के बल से शरीर को रुई से भी हलका और हवा में तैरने लायक बनाया जा सकता है । लंका-दहन के समय हनुमानजी का आकार तो अत्यंत विशाल था पर वे इतने हल्के थे कि वे शीघ्र ही राक्षसों के एक घर से दूसरे घर तक पहुंच जाते थे—

देह बिसाल परम हरुआई ।
मंदिर के मंदिर चढ़ धाई ।। (मानस ५।२५।१)

(5) प्राप्ति—इस सिद्धि से साधक को मनोवांछित पदार्थ की प्राप्ति हो जाती है । यद्यपि सीताजी की खोज के लिए अनेकों भालू व वानर चारों दिशाओं में भेजे गए; परन्तु हनुमानजी को ही लंका में पहुंचने के बाद अल्प समय में ही सीताजी का दर्शन हुआ ।

(6) प्राकाम्य—प्राकाम्य नामक सिद्धि में इच्छानुसार कोई भी रूप धारण कर लेना और कहीं भी पहुंच जाना संभव होता है ।

▪️किष्किन्धा के लिए प्रस्थान करते समय सीताजी से चूड़ामणि लेने से पहले उनका विश्वास प्राप्त करने के लिए हनुमानजी ने अपना विश्वरूप दिखाया जो विन्ध्याचल के समान विशाल दीख पड़ता था ।

▪️श्रीरामचरितमानस के अनुसार किष्किन्धा में श्रीराम से मिलने हनुमानजी विप्र-वेष धारण करके गए थे–‘विप्र रूप धरि कपि तहँ गयऊ ।’

▪️हनुमानजी ने विप्ररूप धारण कर ही विभीषण से भेंट की थी–

बिप्र रूप धरि बचन सुनाए ।
सुनत बिभीषण उठि तहँ आए ।। (मानस ५।५।३)

▪️अध्यात्म रामायण के अनुसार हनुमानजी नन्दि ग्राम में भरतजी को भगवान श्रीराम के आगमन का संदेश सुनाने मनुष्य-शरीर धारणकर गए थे ।

(7) ईशिता—माया और उसको कार्यों को इच्छानुसार संचालित करना ईशिता नाम की सिद्धि है । हनुमानजी प्रभु श्रीराम की वानर और भालुओं की सेना के अद्वितीय सेनानायक थे और साथ ही परम भक्त भी थे । वे देव, दानव और मानव आदि समस्त प्राणियों के लिए अजेय थे । जब मेघनाद ने हनुमानजी पर ब्रह्माजी द्वारा दिया गया अस्त्र चलाया, तब उस ब्रह्मास्त्र की महिमा रखने के लिए वे स्वयं उसमें बंध गए थे ।

(8) वशिता—इस सिद्धि से कर्मों और विषय-भोगों में आसक्त न होने की सामर्थ्य प्राप्त होती है । हनुमानजी अखण्ड ब्रह्मचारी और पूर्ण जितेन्द्रिय थे । रावण के अंत:पुर में अस्त-व्यस्त अवस्था में सोई हुई स्त्रियों को देखने के बाद हनुमानजी के ये वचन उनके इन्द्रियजय ( जितेन्द्रियत्व) सिद्धि को दर्शाते हैं—

‘‘माता सीता स्त्रियों में ही मिलेंगी, इसी भावना से मैंने रावण के अंत:पुर में प्रवेश किया था । मैं तो माता जानकी को ढूंढ़ रहा था, किसी नारी के सौन्दर्य पर तो मेरी दृष्टि नहीं गई और ना ही मेरे मन में कोई विकार आया । ये जो स्त्रियों के अर्धनग्न देह मुझे देखने पड़े, ये तो मेरी दृष्टि में शव के समान ही थे, फिर मेरा अखण्ड ब्रह्मचर्य का व्रत कैसे भंग हो सकता है ?’

गोस्वामी तुलसीदासजी ने हनुमान चालीसा में कहा है—

जो यह पढ़े हनुमान चालीसा ।
होय सिद्ध साखी गौरीसा ।।

अर्थात्—हनुमान चालीसा  के नित्य पढ़ने मात्र से हनुमानजी भक्त को समस्त सिद्धियां प्रदान कर देते हैं । ऐसा मैं भगवान शिव का साक्षी देकर कहता हूँ ।

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