hanuman makardhwaj putra

श्रीराम और रावण के युद्ध में जब मेघनाद की मृत्यु हो गयी तब रावण धैर्य न रख सका और अपनी विजय के उपाय सोचने लगा । तब उसे अपने सहयोगी और पाताल के राक्षसराज अहिरावण की याद आई, जो मां भवानी का परम भक्त होने के साथ-साथ तंत्र-मंत्र का ज्ञाता था । रावण सीधे देवी मन्दिर गया और पूजा में तल्लीन हो गया । 

रावण की आराधना से आकृष्ट होकर अहिरावण वहां तुरंत आ पहुंचा और बोला—‘आपने मुझे किसलिए याद किया ?’

रावण ने अहिरावण से कहा—‘तुम किसी तरह राम-लक्ष्मण को अपनी पुरी में ले जाओ और वहां उनका वध कर डालो; फिर ये वानर-भालू तो अपने-आप ही भाग जाएंगे और मेरी दिक्कत खत्म हो जाएगी ।’

अहिरावण ने रावण से कहा—‘आकाश में प्रकाश देखते ही आप समझ लेना कि मैं निर्विघ्न दोनों भाइयों को अपनी पुरी लिए जा रहा हूँ ।’

रात्रि के समय जब श्रीराम की सेना शयन कर रही थी, तब हनुमानजी ने अपनी पूंछ बढ़ाकर चारों ओर से सबको घेरे में ले लिया । अहिरावण विभीषण का वेष बनाकर अंदर प्रवेश कर गए । अहिरावण ने सोते हुए अनन्त सौन्दर्य के सागर श्रीराम-लक्ष्मण को देखा तो देखता ही रह गया । उसने अपने माया के दम पर भगवान राम की सारी सेना को निद्रा में डाल दिया और राम एव लक्ष्मण का अपहरण कर उन्हें पाताललोक ले गया ।

आकाश में तीव्र प्रकाश से सारी वानर सेना जाग गयी । विभीषण ने पहचान लिया कि यह कार्य अहिरावण का है । उसने हनुमानजी को श्रीराम और लक्ष्मण की सहायता करने के लिए पाताललोक जाने को कहा । 

विभीषण से पाताल के प्रवेश का मार्ग, अहिरावण की राजधानी, राज-सदन के मार्ग आदि की पूरी जानकारी प्राप्त कर हनुमानजी पाताललोक पहुंचे । 

हनुमानजी जब सूक्ष्म रूप धारण कर पाताललोक में अहिरावण के नगर के द्वार के अंदर प्रवेश करने जा रहे थे, उस समय द्वार पर नगर-रक्षक मकरध्वज ने उन्हें रोका जो बिल्कुल हनुमानजी के आकार-प्रकार का महाकाय वानर था । 

उस वानर ने गर्जते हुए हनुमानजी से कहा—‘तुम कौन हो? सूक्ष्म रूप धारण कर तुम चोरी से द्वार के अंदर प्रवेश नहीं कर सकते । मेरा नाम मरकध्वज है और मैं परम पराक्रमी बजरंगबली हनुमान का पुत्र हूँ ।’

हनुमानजी ने आश्चर्यचकित होकर कहा—‘हनुमान का पुत्र ? हनुमान तो बाल ब्रह्मचारी हैं । तुम उनके पुत्र कहां से आए ?’

मकरध्वज ने कहा—‘लंकादहन के बाद मेरे पिता समुद्र में पूंछ बुझाकर स्नान कर रहे थे, तब श्रम के कारण उनके शरीर से स्वेद (पसीना) झर रहा था । उसी स्वेदयुक्त जल को एक मछली ने पी लिया, जिससे वह गर्भवती हो गई थी । वही मछली जब एक दिन पकड़कर अहिरावण की रसोई में लाई गयी और उसे काटा गया तो मेरा जन्म हुआ । अहिरावण ने ही मेरा पालन-पोषण किया इसलिए मैं उसके नगर की रक्षा करता हूँ ।’

हनुमानजी ने विशाल रूप में प्रकट होकर कहा—‘बेटा ! हनुमान तो मैं ही हूँ ।’

मकरध्वज ने हनुमानजी के चरणों में प्रणाम करते हुए कहा—‘भले ही आप मेरे पिता हैं, फिर भी मैं अपने स्वामी की आज्ञा के बिना आपको राजभवन में प्रवेश नहीं करने दूंगा । यदि पिता के नाते मैं आपको अंदर जाने देता हूँ तो मैं अपने धर्म से च्युत हो जाऊँगा । मैं अपने सेवक-धर्म का पूरी तरह से पालन करुंगा, मैं अपने स्वामी से विश्वासघात नहीं कर सकता ।’

मकरध्वज की बात सुनकर हनुमानजी बड़े प्रसन्न हुए और मन में सोचने लगे—यह तो मेरी ही भांति अपने स्वामी का सच्चा सेवक है । हनुमानजी चाहते तो उसे पल भर में ही मार सकते थे; परन्तु वात्सल्य-भाव जाग्रत होने के कारण वे ऐसा नहीं कर सके ।

हनुमानजी का मकरध्वज से बाहुयुद्ध हुआ । हनुमानजी ने मकरध्वज को उसी की पूंछ से कस कर द्वार से बांध दिया जिससे कि वह उनके द्वार-प्रवेश में बाधक न बन सके ।

हनुमानजी तीव्र गति से देवी मन्दिर पहुंचे, जहां श्रीराम और लक्ष्मण की बलि दी जानी थी । अहिरावण को मारकर हनुमानजी श्रीराम और लक्ष्मण को साथ लेकर राजभवन के बाहर आए । श्रीराम ने अपनी ही पूंछ से बंधे महाकाय वानर मकरध्वज को देखकर उसका परिचय पूछा । 

मकरध्वज के बारे में जानकर श्रीराम ने आदेश दिया कि—‘सबसे पहले मकरध्वज को पाताललोक का राज्य प्रदान करो ।’

हनुमानजी ने वहां बंधे हुए मकरध्वज को बंधन-मुक्त कर दिया और उसे अहिरावण के राज्य का स्वामित्व सौंपते हुए कहा—‘बेटा ! तुम धर्मपूर्वक शासन करते हुए सदा मेरे प्रभु श्रीसीताराम का स्मरण करते रहना ।’

मकरध्वज ने भगवान श्रीराम और लक्ष्मण के चरणकमलों की रज माथे से लगाई और अपने पिता को आदरपूर्वक विदा किया । हनुमानजी श्रीराम-लक्ष्मण को अपने कंधों पर बैठा कर लंका की उड़ चले ।

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