bhagwan shri krishna with sakhis

श्रीमद्भागवत में ‘गोपी’ शब्द का अर्थ परमात्मा को प्राप्त करने की तीव्र इच्छा बताया गया है । कल्पों तक कठोर तपस्या करके जो पूर्ण त्याग और अपने मधुर प्रेम के द्वारा प्रियतम श्रीकृष्ण को सुख पहुंचाने के लिए वर्षों से प्रतीक्षा कर रहे थे, वे श्रुतियां, ब्रह्मविद्या, बड़े-बड़े ऋषि-मुनि, देवकन्याएं गोपी बनकर व्रज में आए ।

इसके अतिरिक्त रामावतार में श्रीराम को देखकर मुग्ध होने वाले दण्डकवन के ऋषि-मुनि, जनकपुर की निवासिनी स्त्रियां, कोसलपुर की स्त्रियां, अयोध्या की स्त्रियां, भीलकन्याएं आदि जो भगवान का आलिंगन करना चाहते थे–उन्हें भगवान के वरदान स्वरूप व्रज में गोपीरूप में अवतीर्ण होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था । इस प्रकार गोपियों के अनेक यूथ थे । 

भगवान श्रीकृष्ण ब्रह्माजी से कहते हैं—‘जिनको मैं पूर्व के युगों में वर दे चुका हूँ, वे सब मेरे पुण्यमय व्रज में गोपीरूप में पधारेंगी ।’

कृष्णावतार में गोपियों का एक यूथ ‘रामावतार में यज्ञ में स्थापित सीताजी की प्रतिमाओं’ का था । कैसे यज्ञ-सीताएं गोपी रूप में अवतरित हुईं—वहीं प्रसंग इस ब्लॉग में दिया जा रहा है ।

रामावतार की यज्ञ में स्थापित की हुई सीताएं और गोपियाँ

लंका विजय के बाद जब प्रभु श्रीराम का राज्याभिषेक हो गया तो एक दिन वे अपनी प्रजा का हाल-चाल जानने के लिए गुप्त रूप से विचरण कर रहे थे । वहां उन्होंने एक धोबी को अपनी पत्नी की भर्त्सना करते हुए सुना ।  श्रीराम ने लोकापवाद के कारण अपनी पत्नी सीता का परित्याग कर दिया । निर्वासन के समय सीताजी महर्षि वाल्मीकि के आश्रम में रहीं । 

इस अवधि में प्रभु श्रीराम ने एक आदर्श राजा के रूप में वैदिक धर्म की रक्षा के लिए यज्ञ का अनुष्ठान किया; किन्तु अश्वमेध-यज्ञ में यजमान का सपत्नीक होना अनिवार्य है । अत: मुनि वशिष्ठ की आज्ञानुसार सीताजी की स्वर्णमयी प्रतिमा का निर्माण कराकर यज्ञ-कार्य आरम्भ किया गया ।

जब-जब मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम यज्ञ करते, तब-तब विधिपूर्वक सीताजी की एक स्वर्ण की प्रतिमा बनवायी जाती । इस तरह यज्ञ मंदिर में सीताजी की अनेकों सुवर्णमयी प्रतिमाएं एकत्रित हो गईं ।

एक दिन वे सभी यज्ञ में स्थापित सीता की स्वर्णमयी प्रतिमाएं चैतन्य होकर कान्ताभाव से श्रीराम की सेवा में उपस्थित हुईं । श्रीराम ने सीताजी के प्रति अपने अनन्य अनुराग का परिचय देते हुए कहा—

‘देवियो ! ‘एक-पत्नी व्रत धरोऽहं’ । मैंने एक-पत्नी-व्रत धारण किया है; अत: मैं आपको स्वीकार नहीं कर सकता ।’

श्रीराम के प्रति प्रेमपरायणा हुईं उन यज्ञ-सीताओं ने कहा—‘प्रभु ! हम भी तो मिथिलेशकुमारी स्वरूपा हैं । हम तो आपकी सेवा करने वाली हैं और उत्तम व्रत का पालन करने वाली सतियां हैं । यज्ञ-कार्य के संचालन के लिए आपने हमको अर्धांगिनी के रूप में स्वीकार किया था । आप धर्म पर अडिग रहने वाले हैं, वेदों के ज्ञाता हैं; फिर आप ये अधर्मपूर्ण बात कैसे कह सकते हैं ? यदि आप हमारा हाथ पकड़ करके अब परित्याग करते हैं तो आपको पाप का भागी होना पड़ेगा ।’

तब प्रभु श्रीराम ने कहा—‘देवियो ! आप सबने सत्य कहा है; परन्तु अभी तो मैं एक-पत्नी व्रती हूँ । सभी लोग मुझे ‘राजर्षि’ कहते हैं । अत: नियम को छोड़ भी नहीं सकता । द्वापर युग के अंत में आप सभी गोपी स्वरूप को प्राप्त कर वृन्दावन में पधारना; तब आपके मनोरथ पूर्ण होंगे ।’

भगवान श्रीराम के वर से यज्ञ-सीताएं वृन्दावन में गोपों के घर में गोपांगनाएं होकर जन्मीं । उनके शरीर दिव्य थे ।

एक दिन वे सभी गोपियां श्रीकृष्ण का दर्शन कर मोहित हो गईं और श्रीराधा के पास जाकर बोलीं—

‘वृषभानुनंदिनी ! आप हमें श्रीकृष्ण की प्रसन्नता के लिए कोई व्रत बताएं, नंदनन्दन तो तुम्हारे वश में रहते हैं ।’

श्रीराधा ने कहा—‘श्रीकृष्ण की प्रसन्नता के लिए तुम सब एकादशी-व्रत का अनुष्ठान करो । उससे श्रीहरि तुम्हारे वश में हो जाएंगे ।’

एकादशी-व्रत की महिमा सुनकर यज्ञ-सीता स्वरूपा गोपिकाओं ने श्रीकृष्ण-दर्शन की लालसा से विधिपूर्वक एकादशी का व्रत-अनुष्ठान किया । इस व्रत से प्रसन्न होकर भगवान श्रीकृष्ण ने मार्गशीर्ष मास की पूर्णिमा की रात्रि में उन सबके साथ महारास किया और उनके कल्प-कल्पांतर के मनोरथ पूर्ण किए ।

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