bhagwan shani dev

नवग्रहों में शनि को दण्डनायककर्मफलदाता का पद दिया गया है । यदि कोई अपराध या गलती करता है तो उनके कर्मानुसार दण्ड का निर्णय शनिदेव करते हैं । वे अकारण ही किसी को परेशान नहीं करते हैं, बल्कि सबको उनके कर्मानुसार ही दण्ड का निर्णय करते हैं और इस तरह प्रकृति में संतुलन पैदा करते हैं । 

एक बार जब विष्णुप्रिया लक्ष्मी ने शनिदेव से पूछा कि ‘तुम क्यों जातकों की धन हानि करते हो, क्यों सभी तुम्हारे प्रभाव से प्रताड़ित रहते हैं ?’ 

शनिदेव ने उत्तर दिया—‘उसमे मेरा कोई दोष नही है, परमपिता परमात्मा ने मुझे तीनो लोकों का न्यायाधीश नियुक्त किया हुआ है, इसलिये जो भी तीनो लोकों के अंदर अन्याय करता है, उसे दंड देना मेरा काम है ।’

जिस किसी ने भी शनि की दृष्टि में अपराध किया है, उनको ही शनि ने दंड दिया, चाहे वह भगवान शिव की अर्धांगिनी सती ही क्यों न हों ! 

शनिदेव की दृष्टि में जुआ खेलना (द्यूतक्रीड़ा) महाअपराध है इसीलिए राजा नल भी शनि प्रकोप से त्रस्त हुए और कैसे उन्हें शनिदेव के प्रकोप से मुक्ति मिली, जानते हैं इस पोस्ट में ।

द्यूतक्रीड़ा के कारण राजा नल पर शनि प्रकोप

सत्यवादी राजा नल निषध देश के राजा थे । उनका विवाह विदर्भ देश की राजकुमारी दमयन्ती से हुआ । सत्य के प्रेमी राजा नल से कलियुग को बहुत द्वेष था । कलि की कुचाल से राजा नल जुए में अपना सम्पूर्ण राज्य हार गये और महारानी दमयन्ती के साथ वन-वन भटकने लगे । अपनी इस दुर्दशा से मुक्ति पाने के लिए राजा नल ने शनिदेव से प्रार्थना की ।

शनिदेव ने स्वप्न में राजा नल को एक नाम-स्तोत्र का उपदेश दिया । उसी नाम-स्तोत्र के निरन्तर पाठ से राजा नल को अपना खोया हुआ राज्य पुन: प्राप्त हुआ । सभी कामनाओं की पूर्ति करने वाला शनिदेव का स्तोत्र इस प्रकार है—

शनिदेव द्वारा राजा नल को उपदेश किया गया नाम-स्तोत्र

क्रोडं नीलांजनप्रख्यं नीलवर्णसमस्त्रजम् ।
छायामार्तण्डसम्भूतं नमस्यामि शनैश्चरम् ।।
नमोऽर्कपुत्राय शनैश्चराय नीहारवर्णांजनमेचकाय ।
श्रुत्वा रहस्यं भव कामदश्च फलप्रदो मे भव सूर्यपुत्र ।।
नमोऽस्तु प्रेतराजाय कृष्णदेहाय वै नम: ।
शनैश्चराय क्रूराय शुद्धबुद्धिप्रदायिने ।।
य एभिर्नामभि: स्तौति तस्य तुष्टो भवाम्यहम् ।
मदीयं तु भयं तस्य स्वप्नेऽपि न भविष्यति ।। (भविष्यपुराण, उत्तरपर्व ११४।३९-४२)

अर्थात्—क्रूर, नीले अंजन के समान आभा वाले, नीले रंग की माला धारण करने वाले, छाया और सूर्य के पुत्र शनिदेव को मैं नमस्कार करता हूँ । जिनका ध्रूम और नील अंजन के समान वर्ण है, ऐसे अर्क (सूर्य) पुत्र शनैश्चर को नमस्कार है । इस प्रार्थना को सुनकर हे सूर्यपुत्र ! आप मेरी कामना पूर्ण करने वाले और फल प्रदान करने वाले हों । प्रेतराज के लिए नमस्कार है, कृष्ण वर्ण के शरीर वाले के लिए नमस्कार है, शुद्ध बुद्धि प्रदान करने वाले क्रूर शनिदेव के लिए नमस्कार है ।

इस स्तुति को सुनकर शनिदेव ने कहा—‘जो मेरी इन नामों से स्तुति करता है, मैं उससे संतुष्ट होता हूँ । उसको मुझसे स्वप्न में भी भय नहीं होगा ।’

शनिपीड़ा से मुक्ति के लिए शनिवार को स्वयं तेलमालिश करके तेल का दान करना चाहिए । जो भी व्यक्ति शनिदेव के इस प्रसंग को प्रत्येक शनिवार को एक वर्ष तक पढ़ता है, उसे शनि पीड़ा से मुक्ति मिल जाती है ।

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