तिल अत्यन्त पवित्र माने गये हैं । ये शक्ति, ऊर्जा, आरोग्य व सुन्दर रूप को देने वाले हैं । इनमें पापों का नाश करने की अद्भुत शक्ति होती है, इसलिए ये देवताओं और पितर—दोनों को ही अत्यन्त प्रिय हैं ।
मत्स्यपुराण के अनुसार मधु दैत्य के वध के समय भगवान विष्णु की देह से उत्पन्न पसीने की बूंदों से तिल, कुश और उड़द की उत्पति हुई । जब मधु दैत्य मारा गया तब सभी देवता प्रसन्न होकर भगवान की स्तुति करते हुए कहने लगे—‘संसार का कल्याण करने के लिए ये तिल आपके ही शरीर से उत्पन्न हुए हैं, ये हमारी रक्षा करें ।’
यह सुनकर भगवान विष्णु ने कहा—‘ये तिल तीनों लोकों की रक्षा करने वाले हैं । शुक्ल पक्ष में देवताओं को और कृष्ण पक्ष में पितरों को तिलोदक (तिलांजलि) देना चाहिए । सात या आठ बार तिलोदक की अंजलि देने से देवता और पितर संतुष्ट हो जाते हैं ।’
तिल काले और सफेद दो प्रकार के होते हैं—
—पितरों के श्राद्ध व तर्पण के लिए व दान के लिए काले तिल उत्तम माने गए हैं जबकि सफेद तिल विष्णु-पूजा में प्रयोग होते हैं ।
—तिल हव्य-कव्य में प्रयोग होकर हव्य-कव्य की भूत-प्रेतों से रक्षा करते हैं और उसे देवताओं और पितरों तक पहुंचाते हैं । (देवताओं के लिए जो सामग्री हवन की जाती है वह हव्य कहलाती है और पितरों को जो सामग्री अर्पित की जाती है, वह कव्य कहलाती है ।)
—देवताओं के लिए तिल के तेल का दीपक प्रज्ज्वलित किया जाता है ।
—भगवान शंकर की पूजा में काले तिल प्रयोग किए जाते हैं ।
—शनिदेव को भी काले तिल अत्यन्त प्रिय हैं ।
पितरों को अत्यन्त प्रिय हैं तिल
महाभारत के अनुशासन पर्व (६६।७) में कहा गया है—
पितृणां परमं भोज्यं तिला: सृष्टा: स्वयम्भुवा ।
तिलदानेन वै तस्मात् पितृपक्ष: प्रमोदते ।।
अर्थात्—तिल ब्रह्माजी द्वारा उत्पन्न हैं और पितरों का परम प्रिय भोजन है, इसलिए तिलदान करने से पितर बहुत प्रसन्न होते हैं ।
मनुजी का कहना है—‘जिस श्राद्ध में तिलों का अधिक प्रयोग किया जाता है वह अक्षय होता है ।’
सत्ययुग में सभी पितरों ने दीर्घकाल तक घोर तप किया । तप से प्रसन्न होकर ब्रह्माजी ने पूछा—‘आप लोग ऐसा घोर तप किस कामना से कर रहे हो ?’
इस पर पितरों ने कहा—‘तिल हमें बहुत प्रिय हैं, तिल के बिना हम जीवित नहीं रह सकेंगे । अत: हमें तिल प्रदान करने की कृपा करें ।’
ब्रह्माजी ने पितरों को तिल प्राप्त होने का वर दिया । पितरों के निमित्त तिलदान से अग्निष्टोम यज्ञ का फल प्राप्त होता है ।
माघमास में तिलों की बड़ी महिमा है । इस माह में आने वाले सभी त्यौहारों में तिल के पदार्थों का प्रसाद लगाने और दान करने का माहात्म्य है क्योंकि तिल में शीत निवारण की शक्ति होती है । मकर संक्राति हो या लोहड़ी या तिल चतुर्थी, सभी में तिल की महिमा है । सकट चौथ पर गणेशजी को ‘तिलकुटा’ का भोग लगता है और तिल के लड्डुओं का वायना (दान) होता है । माघमास की कृष्ण पक्ष की षट्तिला एकादशी को तिल का छ: प्रकार से प्रयोग किया जाता है—
तिलोद्वर्ती तिलस्नायी तिलहोमी तिलोदकी ।
तिलदाता तिलभोक्ता च षट्तिला: पापनाशका: ।।
अर्थात्—इस दिन तिल का उबटन लगाने, जल में तिल डाल कर स्नान करने, तिल का हवन करने, तिल मिले जल का पान करने, तिल का दान करने और तिल खाने से सभी पापों का नाश हो जाता है ।
माघ मास में तिलदान करने से दु:स्वप्नों का नाश व विभिन्न रोगों से मुक्ति मिल जाती है । तिल का दान सब दानों से बढ़कर है ।
माघी पूर्णिमा के दिन कांस्य पात्र में तिल भरकर इस भावना से दान करें कि ‘मां इन तिलों की संख्या से अधिक दु:ख तुमने मेरे लिए सहन किए हैं । अत: इस तिलपात्र के दान से मैं तुम्हारे मातृ-ऋण से उऋण हो जाऊं ।’
इस प्रकार इस दिन माता के निमित्त जो भी कुछ दान दिया जाता है, वह अक्षय हो जाता है ।