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मथुरा के राजा कंस ने धनुष-यज्ञ के बहाने छलपूर्वक श्रीकृष्ण-बलराम को मथुरा बुलाया । कंस का निमंत्रण पाकर श्रीकृष्ण-बलराम गोपबालकों के दल के साथ वृन्दावन से मथुरा की ओर चल पड़े । श्रीकृष्ण ने जब मथुरा में प्रवेश किया तो उन्होंने मन में सोचा अब कोई ऐसा खेल करना चाहिए जिससे मथुरावासियों को विश्वास हो जाए कि हम कोई मामूली आदमी नहीं हैं ।

श्रीकृष्ण का दल रथ से उतर कर जब मथुरा के राजमार्ग पर पैदल चला जा रहा था तो उन्होंने देखा कि एक युवती स्वर्ण-पात्र में चंदन-कुंकुमादि अंगराग की सामग्रियों को लिए गर्व भरी चाल से आगे-आगे चली जा रही है । 

वह कंस की दासी कुब्जा (सैरन्ध्री) थी । वैसे तो वह बड़ी सुन्दर युवती थी परन्तु कुबड़ी थी; इसलिए उसका नाम  ‘कुब्जा’ हुआ । उसका शरीर तीन जगहों से टेढ़ा था; इसलिए उसे ‘त्रिवक्रा’ भी कहते हैं । 

भगवान श्रीकृष्ण को उसे देखकर बड़ा कौतूहल हुआ । उन्होंने मन में कहा—‘सुन्दरता से तो सब प्रेम करते हैं, पर अब जरा इस कुबड़ी से भी प्रेम करके देखना चाहिए ।’

उन्होंने कुब्जा से कहा—‘सुन्दरी ! तुम कौन हो और कहां जा रही हो ? तुम्हारे हाथ में जो अंगराग (चंदन) है वह बहुत ही उत्तम है, उसे हमें दे दो । इस दान से तुम्हारा शीघ्र ही परम कल्याण होगा ।’

भगवान ने ऐसा कह कर कुब्जा से चंदन मांगा । 

कुब्जा गर्विणी थी; किन्तु श्रीकृष्ण के मनोरम आह्वान को सुनकर पीछे मुड़कर देखे बिना न रह सकी । बालक के रूप में सौंदर्य के सागर भगवान ही उसके सामने खड़े थे । श्रीकृष्ण के विकसित नीलकमल के समान सुन्दर बदन को देखकर वह विमोहित हो गयी । ऐसी रूप-माधुरी कुब्जा ने अपने जीवन में कभी देखी नहीं थी । इस त्रिभुवन कमनीय रूप को देखकर कुब्जा की आंखें खुल गयीं । 

श्रीकृष्ण के सौंदर्य, माधुर्य, सुकुमारता, मंद हास्य युक्त मधुर चितवन और मीठी बोली को सुनकर कुब्जा का मन हाथ से निकल गया ।  श्रीकृष्ण-रूप को देखने के बाद ऐसा संभव ही नहीं कि अब वह किसी अन्य की (कंस) दासी बने । अब तो वह अपने मन-प्राण, सर्वस्व ही श्रीकृष्ण को समर्पित करना चाहती थी । 

कुब्जा ने कहा—‘मैं कंस की प्रिय दासी हूँ और उसे ये मेरा चंदन बहुत प्रिय है; लेकिन प्यारे कृष्ण ! त्रिभुवन में मुझे सबसे अधिक प्रिय तुम्हीं हो । जगत् में इसके लिए आपसे बढ़कर और कोई दूसरा पात्र हो ही नहीं सकता है । तुम्हीं मेरे उपास्य हो, तुम ही मेरे अभिलाषित हो ।’ 

श्रीकृष्ण के नेत्रों के सामने तो कुछ भी छिपा नहीं रह सकता । वे जीव के भीतर-बाहर के अधीश्वर हैं, सर्वदर्शी हैं । कुब्जा के मन में क्या है ?  वे इसे भी जानते हैं ।

कुब्जा ने वह चंदन जो कंस के लिए था, श्रीकृष्ण और बलराम दोनों भाइयों को दे दिया । श्रीकृष्ण और बलरामजी ने वह चंदन अपने स्याम-गौर शरीर पर लगा लिया जिससे वह अप्रतिम सुन्दर लगने लगे ।

संसार में स्त्रियां कुंकुम-चंदनादि अंगराग लगाकर स्वयं को सज्जित करती हैं; किन्तु हजारों में कोई एक ही होती है जो भगवान को अंगराग लगाने की सोचती होगी और वह मनोभिलाषित अंगराग लगाने की सेवा भगवान तक पहुंच भी जाती है; क्योंकि उसमें भक्ति-युक्त मन समाहित था । कुब्जा की सेवा ग्रहण करके भगवान प्रसन्न हुए और उस पर कृपा की । अब कुब्जा मन, वाणी और शरीर से निरन्तर श्रीकृष्ण का ही चिंतन करने लगी । उसे सब कुछ श्रीकृष्णमय दिखाई देने लगा । 

भगवान श्रीकृष्ण कुब्जा के घर आए और कहा—‘तुमने रामावतार में मेरे लिए तप किया था, अब मुझसे मिलकर तुम मेरे धाम गोलोक जाओ । उसी समय एक दिव्य रथ आया, कुब्जा दिव्य देह धारण कर गोलोक चली गई और वहां ‘चन्द्रमुखी’ नामक गोपी हो गयी ।

श्रीकृष्ण का कुब्जा को प्रेमरस का दान

भगवान संसार को यह संदेंश देना चाहते थे कि जो मेरी सेवा व दर्शन करेगा, उसको क्या फल मिलेगा, यह जान लो । चंदन हृदय को शीतल करता है । भगवान श्रीकृष्ण ने विचार किया कि इसने चंदन देकर मेरी शोभा बढ़ा दी है, इसको मैं सुन्दर रूप दे दूँगा ।

इसके बाद श्रीकृष्ण ने कुब्जा के दोनों पांवों के पंजे को अपने पांवों से दबा दिया और उसकी ठुड्डी को दो अंगुलियों से पकड़ कर ऐसा झटका दिया कि उसके तीनों अंग सीधे हो गए । कुब्जा का कूबड़ दूर हो गया और वह प्रेम और मुक्ति के दाता मुकुन्द के स्पर्श से रूप-गुण व उदारता से सम्पन्न हो अत्यंत सुन्दर व सरल हो गई ।

कुब्जा ने बलरामजी और समस्त ग्वाल-बालों के सामने ही श्रीकृष्ण का पीताम्बर पकड़ लिया और बोली—‘अब मैं आपको नहीं छोड़ूंगी । कंस को छोड़ो, उसको मारने या जिलाने की कोई जरुरत नहीं है ।’

श्रीकृष्ण ने हंसते हुए कहा—‘हम तुम्हारे घर आएंगे ।’

भगवान से मिलन की आशा लेकर कुब्जा अपने घर चली गई ।

कुब्जा पूर्व जन्म में कौन थी ?

पूर्व जन्म में कुब्जा शूर्पणखा नाम की राक्षसी थी । वनवासकाल में जब श्रीराम पंचवटी में निवास कर रहे थे, तब शूर्पणखा उन पर मोहित हो गई । श्रीराम द्वारा एकपत्नी-व्रत की बात कहने पर वह सीताजी को खा जाने के लिए दौड़ी । तब लक्ष्मणजी ने उसके नाक-कान काट दिए । इससे खिन्न होकर उसने पुष्कर-तीर्थ में जाकर हजारों साल तक भगवान शंकर का ध्यान और तप किया । इससे प्रसन्न होकर शंकरजी ने उसे वर दिया—‘द्वापर के अंत में मथुरापुरी में तुम्हारी कामना पूरी होगी ।’ 

वही शूर्पणखा मथुरापुरी में ‘कुब्जा’ नाम से कंस की दासी बनी और शंकरजी के वरदान से श्रीकृष्ण की प्रिया हुई ।

कुब्जा प्रसंग का भाव

श्रीमद्भागवत एक आध्यात्मिक ग्रन्थ है । दशम् स्कन्ध में वर्णित श्रीकृष्ण की प्रत्येक लीला एक शिक्षा व संदेश देती है । कुब्जा प्रसंग में भगवान मनुष्य को कई संदेश देते हैं—

—कुब्जा भगवान की नित्यकाल की संगिनी है । उसे देखकर भगवान हंस पड़े । भगवान हंसे इसलिए कि कुब्जा ही अकेली त्रिवक्रा या कुबड़ी नहीं है; वरन् सम्पूर्ण नारी जीवन ही त्रिवक्रा है । नारी जीवन तीन वक्रों—सौंदर्य, पतिसुख और घर और बच्चों की चाह में ही बीतता है; इसलिए वह रजो और तमोगुण प्रधान है । इन तीन वासनाओं में सिमटकर नारी जीवन कुब्जा (विकलांग) हो गया है । जिस दिन नारी पति और गृह-सुख से ऊपर उठकर श्यामसुन्दर के भक्ति-रस में रंगेगी; उसी दिन वह श्रीकृष्ण कृपा से त्रिवक्रा से सर्वांग-सुन्दरी बन जाएगी ।

—कुब्जा प्रसंग से दूसरी शिक्षा यह है कि संसार की समस्त उत्तम वस्तुएं भगवान को अर्पण करनी चाहिए । कुब्जा की तरह मनुष्य को अपनी सबसे प्यारी वस्तु—अपने जीवन को ही इतना सुगन्धित (भक्ति से ओतप्रोत) करना होगा; जिससे कुब्जा के चंदन की तरह भगवान स्वयं हमें अपनी सेवा में लगाने को तैयार हो जाएं । यही भगवत्कृपा प्राप्त करने का सबसे सरल उपाय है ।

 —पूज्य श्रीडोंगरेजी महाराज ने कुब्जा प्रसंग की बहुत सुन्दर व्यााख्या की है—मनुष्य की बुद्धि तीन जगहों पर टेढ़ी होती है अर्थात् बुद्धि के तीन दोष हैं—काम, क्रोध और लोभ । जिसकी बुद्धि टेढ़ी होती है उसका मन टेढ़ा होता है (मन में लोभ रहता है), उसकी आंख टेढ़ी होती है (अर्थात् आंख में काम रहता है) और जीवन टेढ़ा होता (अर्थात् विषयी व विलासी होता) है । कंस की सेवा करने से बुद्धि टेढ़ी होती है; किन्तु भगवान की सेवा करने से सीधी व सरल हो जाती है । भगवान बुद्धि के पति हैं और सद्गुरु बुद्धि के पिता हैं । सद्गुरु ही शिष्य की बुद्धि को भगवान के साथ विवाहित कराते हैं; इसलिए मनुष्य को अपनी बुद्धि को परमात्मा के साथ विवाहित होने तक सद्गुरु संत की शरण में रखना चाहिए । बुद्धि को स्वतंत्र रखने से उसमें दोष उत्पन्न हो जाते हैं ।

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