shri krishna burning forest

भगवान श्रीकृष्ण परब्रह्म परमात्मा हैं; इसलिए उनमें षडैश्वर्य—अनन्त ऐश्वर्य, अनन्त वीर्य, अनन्त यश, अनन्त श्री, अनन्त ज्ञान और अनन्त वैराग्य–सदैव वर्तमान हैं । व्रज में उनकी लीलाएं बड़ी अद्भुत हैं । उन्होंने अपने अवतार के छठे दिन से ही अनेक असुरों (पूतना, तृणावर्त, वत्सासुर, बकासुर, धेनुकासुर, अरिष्टासुर, चाणूर, मुष्टिक और कंस आदि) का वध करके धर्म-संस्थापन लीला शुरु कर दी; किन्तु उनकी माधुर्य-शक्ति के कारण उनके माता-पिता, सखा और ग्वालबालों को उनके ईश्वरत्व का भान भी नहीं होता था । 

ऐसी ही भगवान श्रीकृष्ण की एक अद्भुत रहस्यमयी लीला है—‘दावाग्नि-पान लीला’ । ‘दावाग्नि’ का अर्थ है—जंगल की आग (wild fire or forest fire) और ‘पान’ का अर्थ है—पीना; अर्थात् भगवान श्रीकृष्ण का वन में लगी आग को पी जाना । 

भगवान श्रीकृष्ण ने यह लीला क्यों की और क्या है इसका रहस्य ? यही इस ब्लॉग में बताया गया है—

भगवान श्रीकृष्ण की ‘दावाग्नि-पान’ लीला

इस लीला का वर्णन श्रीमद्भागवत के दशम स्कन्ध के सत्रहवें अध्याय में किया गया है ।

कालिय-नाग दमन लीला के बाद सभी व्रजवासी और गौएं दिन-भर के भूखे-प्यासे और थके-मांदे थे; इसलिए उस रात वे व्रज में वापिस नहीं गए और बिना खाए-पिए कालियदह के पास वन में ही सो गए । गर्मी के दिन थे और वन में पेड़ सूख गए थे । 

रात में अग्निदेव ने विचार किया कि इस समय तो ये व्रजवासी बेहोशी में सो गए हैं; लेकिन जब प्रात:काल सोकर उठेंगे तो वन में जो फल-फूल मिलेगा, उसे खाने लगेंगे । गाय-बछड़े भी यहां की घास चरने लग जायेंगे; किन्तु उनको मालूम नहीं है कि यहां के फल-फूल और घास-पात आदि में कालिय नाग का विष भरा हुआ है ।

ऐसा विचार कर अग्निदेव ने दावाग्नि (दावानल, forest fire) के रूप में सबको चारों ओर से घेर कर जलाना शुरु कर दिया । 

यह दैत्याग्नि नहीं देवताग्नि थी; क्योंकि यह अग्नि विनाश के लिए नहीं थी वरन् गौओं और व्रजवासियों की जान बचाने के लिए अग्निदेव प्रकट हुए थे । आंच लगने पर व्रजवासी घबड़ा कर उठ खड़े हुए और भयभीत होकर आपस में कहने लगे—

‘हमारे प्राणसंकट के समय इसी बालक नंदनन्दन में ही भगवान नारायण आविष्ट (प्रवेश कर) हो जाते हैं और हमारी रक्षा करते हैं । दावाग्नि के संकट से निबटने के लिए श्रीकृष्ण को ही नारायण रूप मानकर उनकी शरण ले लेते हैं ।’ 

फिर तो सभी व्रजवासी श्रीकृष्ण के सामने हाथ जोड़कर प्रार्थना के स्वर में पुकार उठे—

‘प्यारे श्रीकृष्ण ! हे अत्यंत बलशाली बलराम ! इस भयंकर आग में तुम्हारे प्रिय हम सब जल जाएंगे, हमें इस कालाग्नि से बचाओ । यह घोरतम अग्नि आपके भक्तों को ग्रस रहा है, इससे हमारी रक्षा करो । हमें मृत्यु का भय नहीं; परन्तु हम फिर तुम्हारे मुखचन्द्र को नहीं देख पाएंगे, यही भय है ।’

हम तव किंकर, ग्रसै कृसानु ।
पाहि पाहि हे श्रीभगवानू ।।
पावक काल रूप अति घोरा ।
राखि ताहि तैं तू प्रभु मोरा ।।
तव पद अभय सदा, जदुनंदा
तासु बियोग छनक दुख-दंदा ।।

भगवान अनन्त हैं और अनन्त शक्तियों को धारण करते हैं । उन्होंने सबकी आंखें बंद कराईं और अपना विराट-स्वरूप धारण कर लिया । उनके होठों में कुछ कम्पन हुआ और जैसे फूँक लगने से एक तुच्छ दीप बुझ जाए, उसी प्रकार फूत्कार के द्वारा क्षण भर में ही उस अग्नि को पी लिया । इतना ही नहीं, श्रीकृष्ण की दृष्टि पड़ने से जले हुए वृक्ष व लताएं भी पहले की ही भांति शोभायमान हो गए ।

‘सूर’ प्रभु सुख दियौ, दावानल पी लियौ,
कहत सब ग्वाल, धनि-धनि मुरारी ।।

व्रजवासी जिन्होंने श्रीकृष्ण में भगवान नारायण के आविष्ट होने की भावना से अपनी रक्षा की गुहार की थी; उन्हें लगा—भगवान नारायण ने ही उनकी व्याकुल पुकार सुन ली है । वे सब प्रसन्न होकर कहने लगे—‘हम तो बेकार में ही पागलों की तरह भयभीत थे । कहां है दावानल ?’ 

श्रीकृष्ण के आश्रितों को सचमुच कहां और किससे भय ?

जाकैं सदा सहाइ कन्हाई ।
ताहि कहौ काकौ डर, भाई ।।
जाकौं ध्यान न पावैं जोगी ।
सो ब्रज में माखन कौ भोगी ।।
जाकी माया त्रिभुवन छावै ।
सो जसुमति कें प्रेम बँधावै ।।
मुनि-जन जाकौं ध्यान न पावैं ।
ब्रज-जन लै-लै नाम बुलावैं ।।

भगवान श्रीकृष्ण की दावाग्नि-पान लीला का रहस्य

भगवान श्रीकृष्ण ने दावाग्नि का पान क्यों किया, इसके श्रीमद्भागवत में बहुत से कारण बताए गए हैं—

१. अग्नि की उत्पत्ति भगवान के मुख से हुई है; इसलिए भगवान ने उसे मुख में ही स्थापित कर लिया ।

जैसे घड़ा फूटने पर मिट्टी में लीन हो जाता है और पानी गिरने पर समुद्र में चला जाता है; उसी प्रकार अग्नि का लय अपने उत्पत्ति-स्थान भगवान के मुख में ही होता है । 

२. भगवान का कथन है कि—‘मैं सबका दाह दूर करने के लिए ही अवतरित हुआ हूँ; इसलिए व्रजवासियों को इस दावाग्नि के दाह से बचाना भी मेरा कर्तव्य है ।

३. भगवान श्रीकृष्ण ने सोचा—रामावतार में जानकीजी को सुरक्षित रख कर अग्नि ने मेरा उपकार किया था । अब उसको अपने मुख में स्थापित करके उसका सत्कार करना मेरा कर्तव्य है । इसकी कथा संक्षेप में इस प्रकार है—वनवास के समय जब श्रीराम और लक्ष्मण सोने के हिरन के पीछे चले गए तब लंकापति रावण सीताजी का हरण करने के लिए आया । उस समय सीताजी ने भयभीत होकर पर्णशाला के अंदर बने अग्निगृह में जाकर अग्निदेव से प्रार्थना की । इससे अग्निदेव ने सीताजी को अपने अंदर छिपा लिया और माया सीता (वेदवती) को सीता के स्थान पर खड़ा कर दिया । रावण ने उन्हें ही सीता समझ कर हरण कर लिया और लंका ले गया । रावण वध के बाद लोक के समक्ष सीताजी के शील की परीक्षा के लिए श्रीराम ने उनका अग्नि प्रवेश कराया । तब अग्निदेव ने दो सीताएं लाकर दीं । एक असली सीता और दूसरी वेदवती ।

४. भगवान ने मुख के द्वारा अग्नि-पान करके उसे शान्त कर दिया और यह भाव प्रकट किया कि संसार रूपी दावाग्नि को शान्त करने में भगवान के मुख कहे जाने वाले ब्राह्मण ही समर्थ हैं ।

भगवान श्रीकृष्ण के दावाग्नि पान की पूज्य डोंगरेंजी महाराज द्वारा व्याख्या

भगवान श्रीकृष्ण के दावाग्नि-पान करने की व्याख्या पूज्य श्रीडोंगरेजी महाराज ने इस प्रकार की है—

दरिद्रता, संतान का अभाव, बीमारी, झगड़ा-कलह आदि को ‘संसार-दावाग्नि’ कहते हैं । संसार-दावाग्नि अनेक प्रकार से जीव को जलाने के लिए आती है । इससे बचने का उपाय है—जब-जब यह दावाग्नि तुमको जलाने आए तब-तब आंखें बंद करो, जगत का सम्बन्ध छोड़ कर परमात्मा के साथ मन से सम्बन्ध जोड़ दो । संसार के विषयों से भी अपनी आंखें हटा लो अथवा उनकी तरफ से आंखें बंद कर लो और परमात्मा का स्मरण-कीर्तन करो । यदि जीव संसार का सम्बन्ध छोड़ कर परमात्मा के स्मरण में लीन हो जाए, तो ही वह संसार की दावाग्नि से बच सकता है । भक्ति का आरम्भ तभी होता है, जब ऐसा भाव दृढ़ होता है कि मैं भगवान का हूँ । भक्ति जब बढ़ती है तब यह अनुभव होने लगता है कि भगवान मेरे हैं, उसी मनुष्य की संसार-दावाग्नि शान्त होती है, जो ऐसा भाव रख कर सतत् सेवा-स्मरण में तन्मय रहता है ।

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