कलियुग में साक्षात् गोपी अवतार है मीराबाई
मनुष्य का भगवान से केवल सम्बन्ध हो जाना चाहिए । वह सम्बन्ध चाहे जैसा हो—काम का हो, क्रोध का हो, स्नेह का हो, नातेदारी का हो या और कोई हो । चाहे जिस भाव से भगवान में अपनी समस्त इन्द्रियां और मन जोड़ दिया जाए तो उस जीव को भगवान की प्राप्ति हो ही जाती है ।
सूरदास जी के शुभ संकल्प की शक्ति
उद्धव जी के अवतार माने जाने वाले सूरदास जी की उपासना सख्य-भाव की थी । श्रीनाथ जी के प्रति उनकी अपूर्व भक्ति थी । उन्होंने वल्लभाचार्यजी की आज्ञा से श्रीमद्भागवत के दशम स्कन्ध की कथा को पदों में गाया । सूरदास जी का सवा लाख पद रचना का संकल्प श्रीनाथजी ने पूरा कराया
कुंती जी की विपत्ति में भक्ति
महारानी कुन्ती भगवान श्रीकृष्ण की बुआ थीं । उनका जीवन सदा विपत्ति में ही गुजरा । इस विपत्ति में भी उन्हें सुख था । उनका मानना था--’भगवान का विस्मरण होना ही विपत्ति है और उनका स्मरण बना रहे, यही सबसे बड़ी सम्पत्ति है ।’ उन्हें भगवान श्रीकृष्ण का कभी विस्मरण हुआ ही नहीं, अत: वे सदा सुख में ही रहीं ।
कुन्तीजी भगवान से प्रार्थना करती हैं--’हे जगद्गुरो ! हम पर सदा विपत्तियां ही आती रहें, क्योंकि आपके दर्शन विपत्ति में ही होते हैं और आपके दर्शन होने पर फिर इस संसार के दर्शन नहीं होते और मनुष्य आवागमन से रहित हो जाता है।’ (श्रीमद्भा. १।८।२५)
मंगलाचरण क्यों किया जाता है ?
प्राय: ग्रंथों की रचना करते समय उनकी सफलतापूर्वक समाप्ति के लिए आरम्भ में कोई श्लोक, पद्य या मंत्र लिखा जाता है । इसी तरह किसी शुभ कार्य को शुरु करते समय मंगल कामना के लिए जो श्लोक, पद्य या मंत्र कहा जाता है, उसे ‘मंगलाचरण’ कहते हैं ।
मानव शरीर एक देवालय है
परब्रह्म परमात्मा ने जब विश्व की रचना की, तब वैसा ही मनुष्य का शरीर भी बनाया—‘यद् ब्रह्माण्डे तत् पिण्डे’ । वैसे तो परमात्मा ने अपनी माया से चौरासी हजार योनियों की रचना की, परन्तु उन्हें संतोष न हुआ । जब उन्होंने मनुष्य शरीर की रचना की को वे बहुत प्रसन्न हुए; क्योंकि मनुष्य ऐसी बुद्धि से युक्त है जिससे वह परमात्मा का साक्षात्कार कर सकता है ।
विराट् पुरुष या आदि पुरुष
ब्रह्मा से लेकर तृणपर्यन्त समस्त चराचर जगत--जो प्राकृतिक सृष्टि है, वह सब नश्वर है । तीनों लोकों के ऊपर जो गोलोक धाम है, वह नित्य है । गोलोक में अन्दर अत्यन्त मनोहर ज्योति है; वह ज्योति ही परात्पर ब्रह्म है । वे परमब्रह्म अपनी इच्छाशक्ति से सम्पन्न होने के कारण साकार और निराकार दोनों रूपों में अवस्थित रहते हैं । ब्रह्माजी की आयु जिनके एक निमेष (पलक झपकने) के बराबर है, उन परिपूर्णतम ब्रह्म को ‘कृष्ण’ नाम से पुकारा जाता है ।
श्रीकृष्ण जिन्हेंने सिखाया मृत्यु का श्रेष्ठतम आदर्श
मृत्यु का जो आदर्श इस प्रसंग में स्थापित किया गया है, उससे अधिक उदार, शांतिप्रद, महिमावान, सान्त्वना-प्रदायी कोई दूसरा इतिहास में देखने को नहीं मिलता है । यह एक ऐसा आदर्श है, जहां एक बाणविद्ध एवं मृत्यु के द्वार पर पहुंचा हुआ मानव क्रोध आदि समस्त प्रतिशोध की भावना से मुक्त होकर अपने पर घातक प्रहार करने वाले व्यक्ति को सान्त्वना ही नहीं देता; बल्कि उसे प्रेम से भुजाओं में भर कर पुरस्कार भी देता है ।
भगवान के श्रीविग्रह में इतना प्रकाश क्यों होता है ?
गोपियां माता यशोदा से शिकायत करने गईं कि कन्हैया हमारा माखन खा जाता है । माता यशोदा ने कहा कि तुम सब अपने माखन को अंधेरे नें रखो तो कन्हैया को दिखाई नहीं पड़ेगा । तब गोपियों ने कहा—‘मां ! हम तो माखन अंधेरे में ही रखती हैं; परंतु कन्हैया के आते ही अंधेरे में भी उजाला हो जाता है । उसका श्रीअंग दीपक जैसा तेजोमय है ।
भगवान श्रीकृष्ण की शकट भंजन लीला
इस कृष्ण लीला में यही रहस्य है कि नंद-यशोदा श्रीकृष्ण के पास रहते हैं तो कोई राक्षस नहीं आता है । नंदबाबा श्रीकृष्ण को छोड़कर मथुरा गये तो पूतना आई । यशोदा माता श्रीकृष्ण को बैलगाड़ी के नीचे सुलाकर गोपियों के स्वागत में लगती हैं और लाला को भूल जाती हैं तो शकटासुर आता है । कहने का अर्थ यही है कि जब-जब नंद-यशोदा श्रीकृष्ण से दूर हुए हैं, तब-तब राक्षस (विपत्ति) आए हैं ।
ऋणानुबन्ध का सिद्धान्त
एक ही विद्वान व धर्मात्मा पुत्र श्रेष्ठ है; बहुत-से गुणहीन व नालायक पुत्र तो व्यर्थ हैं । एक ही पुत्र कुल का उद्धार करता है, दूसरे तो केवल कष्ट देने वाले होते हैं । ध्रुव व प्रह्लाद जैसे एक पुत्र ने सारे वंश को तार दिया; कौरव सौ होकर भी अपने वंश को न बचा सके । पुण्य से ही उत्तम पुत्र प्राप्त होता है, अत: मनुष्य को सदैव धर्मपूर्वक पुण्य कर्मों का संचय करना चाहिए ।