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भगवान का श्रीविग्रह (श्रीअंग) स्वयं प्रकाशमय है । उनके श्रीअंग में करोड़ों सूर्यों से भी अधिक प्रकाश होता है; इसीलिए भगवान के लिए कहा गया है—‘कोटि सूर्य लजावन हारे’ अर्थात् भगवान अपने प्रकाश से करोड़ों सूर्यों को भी लज्जान्वित कर देते हैं । 

गीता (११।१२) में कहा गया है—‘आकाश में हजार सूर्यों के एक साथ उदय होने से जो प्रकाश उत्पन्न होता है, वह भी उस विश्वरूप परमात्मा के प्रकाश के समान कदाचित् ही हो ।’

लेकिन सूर्य के प्रकाश की तरह भगवान के श्रीविग्रह के प्रकाश में तीक्ष्णता नहीं होती है । वह तो चन्द्रमा के प्रकाश से भी अत्यंत सौम्य, शांत, शीतल और नेत्रों के लिए आकर्षक और सुख देने वाला होता है ।

मथुरा में कंस के कारागार में सर्वशक्तिमान परमात्मा श्रीकृष्ण का प्राकट्य हुआ । उस समय मध्य रात्रि थी । चारों ओर अन्धकार का साम्राज्य था । अकस्मात् श्रीवसुदेव जी को अनन्त सूर्य-चन्द्र के समान प्रचण्ड किंतु शीतल प्रकाश दिखलायी पड़ा और उसी प्रकाश में दिखलायी दिया एक अद्भुत बालक–श्यामसुन्दर, चतुर्भुज, शंख, चक्र, गदा और पद्म से सुशोभित । कमल के समान सुकोमल और सब प्रकार से सुशोभित, जिसके अंग-अंग से तेजपूर्ण सौन्दर्य की रसधारा बह रही थी । ऐसा ज्योतिपुंज के समान अपूर्व बालक कभी किसी ने न तो कहीं देखा, न सुना । 

श्रीमद्भागवत के दशम स्कन्ध में कथा है कि गोपियां माता यशोदा से शिकायत करने गईं कि कन्हैया हमारा माखन खा जाता है । माता यशोदा ने कहा कि तुम सब अपने माखन को अंधेरे में रखा करो तो कन्हैया को दिखाई नहीं पड़ेगा । तब गोपियों ने कहा—‘मां ! हम तो माखन अंधेरे में ही रखती हैं; परंतु कन्हैया के आते ही अंधेरे में भी उजाला हो जाता है । उसका श्रीअंग दीपक जैसा तेजोमय है । 

राजा बलि के यज्ञ में जब भगवान ने वामन रूप में प्रवेश किया तो वहां इतना प्रकाशपुंज प्रकट हो गया कि सभी उपस्थित लोगों को ऐसा जान पड़ा मानो यज्ञ देखने के लिए सूर्य, अग्नि अथवा सनत्कुमार तो नहीं चले आ रहे हैं ?

भगवान के श्रीविग्रह का प्रकाश करोड़ों सूर्यों के प्रकाश से भी श्रेष्ठ क्यों है ?

भगवान का श्रीविग्रह अलौकिक, दिव्य और भगवत्स्वरूप होता है । न वह कर्मफल भोग के लिए प्रकट होता है और न ही पंचमहाभूतों से बना होता है । वह नित्य ‘सच्चिदानन्दमय भगवद्देह’ होता है । भगवान अपने शरीर को धारण करने के लिए लीला-शक्ति से दिव्य से भी अति दिव्य सत्त्वगुणी तन्मात्राओं को उत्पन्न करते हैं । उन्हीं से भगवान अपने श्रीविग्रह को प्रकट करते हैं । उसमें इतना आकर्षण होता है मानो अनन्त ज्योतिपुंज व आनंद ही मूर्तिमान होकर प्रकट हो गया है । 

भगवान के श्रीविग्रह का दिव्य प्रकाश सूर्य, चन्द्रमा आदि के प्रकाश से भी महान और विलक्षण इसलिए होता है; क्योंकि—

▪️सूर्य-चंद्रमा का प्रकाश भौतिक होता है । उनका प्रकाश पार्थिव पदार्थों (धूलकणों) से घिरा रहता है; इसलिए उससे छाया भी पड़ती है । परन्तु भगवान के श्रीविग्रह का प्रकाश, चाहे पहाड़ भी बीच में आ जाए, पार्थिव पदार्थों से आवृत नहीं होता है और न ही उससे छाया ही पड़ती है । वह प्रकाश दिव्य, चिन्मय ही होता है ।

▪️वास्तव में सूर्य चंद्रमा आदि भी भगवान के प्रकाश से ही प्रकाशित होते हैं; क्योंकि उनमें जो तेज है, वह भगवान का ही तेज है । 

गीता (१५।१२) में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं—‘सूर्य में स्थित जो तेज सम्पूर्ण जगत को प्रकाशित करता है तथा जो तेज चन्द्रमा में है और जो अग्नि में है; उसको तू मेरा ही तेज जान ।’

स्वयं-प्रकाश भगवान को इसीलिए किसी दीपक की आवश्यकता नहीं है । हम जो उनके मंदिर में दीपक जलाते हैं; उससे हमारे मन के स्वार्थ, कपट और वासना के अंधेरे ही दूर होते हैं ।

भगवान के इतने प्रकाशमान श्रीविग्रह को लौकिक (साधारण) नेत्रों से नहीं देखा जा सकता । उन्हें तो केवल दिव्य चक्षु से ही देखा जा सकता है । 

न तु मां शक्यसे द्रष्टुमनेनैव स्वचक्षुषा ।
दिव्यं ददामि ते चक्षु: पश्य मे योगमैश्वरम् ।। (गीता ११।८)

अर्थात्—भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं—‘मुझको तू अपने इन प्राकृत नेत्रों द्वारा देखने में समर्थ नहीं है; इसी से मैं तुझे दिव्य अलौकिक चक्षु देता हूँ; उससे तू मेरी ईश्वरीय योगशक्ति को देख ।’

भगवान जब अवतार लेकर पृथ्वी पर साधारण मनुष्य (श्रीकृष्ण, श्रीराम) के रूप में प्रकट होते हैं, तब सभी को उनके दर्शन होते हैं; किन्तु वह उनका योगमाया से ढका हुआ मनुष्य स्वरूप होता है, दिव्य रूप नहीं । यह बात भगवान ने गीता (७।२५) में कही भी है—‘अपनी योगमाया में छिपा हुआ मैं सबके प्रत्यक्ष नहीं होता; इसलिए यह अज्ञानी जनसमुदाय मुझ जन्मरहित अविनाशी परमेश्वर को नहीं जानता अर्थात् मुझको जन्मने-मरने वाला समझता है ।’

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