bhagwan krishna mata yashoda

इस संसार में ऋणानुबन्ध से अर्थात् किसी का ऋण चुकाने के लिए और किसी से ऋण वसूलने के लिए ही जीव का जन्म होता है; क्योंकि जीव ने अनेक लोगों से लिया है और अनेक लोगों को दिया है । लेन-देन का यह व्यवहार अनेक जन्मों से चला आ रहा है । इसको समाप्त किए बिना जन्म-मरण के बंधन से छुटकारा नहीं मिल सकता है ।

माता, पिता, पत्नी, पुत्र, भाई, मित्र, नौकर-चाकर आदि सब लोग अपने-अपने ऋणानुबन्ध से (लेन-देन के लिए) ही इस पृथ्वी पर जन्म लेकर हमें प्राप्त होते हैं । केवल मनुष्य ही नहीं, पशु-पक्षी भी ऋणानुबन्ध से प्राप्त होते हैं । अत: मनुष्य को चाहिए कि वह उनमें मोह-ममता न करके अपना कर्तव्य-कर्म करता रहे । 

संसार में पुत्र तीन प्रकार के होते हैं—1. शत्रु, 2. मित्र और 3. उदासीन ।

शत्रु-स्वभाव के पुत्र—शत्रु-स्वभाव के पुत्र भी दो प्रकार के होते हैं—

1. किसी ने पूर्वजन्म में दूसरे से ऋण लिया, पर उसको चुकाया नहीं तो दूसरे जन्म में ऋण देने वाला उस ऋणी का पुत्र बनता है ।

2. किसी ने पूर्वजन्म में दूसरे के पास अपनी धरोहर रखी, पर जब धरोहर देने का समय आया, तब उसने धरोहर लौटाई नहीं और हड़प ली तो दूसरे जन्म में धरोहर का स्वामी उस धरोहर हड़पने वाले का पुत्र बनता है । 

जिसने जिसकी जिस भाव से धरोहर हड़प ली है, वह उसी भाव से उसके यहां जन्म लेता है । धरोहर का स्वामी रूपवान और गुणवान पुत्र होकर पृथ्वी पर जन्म लेता है और धरोहर के अपहरण का बदला लेने के लिए दारुण दु:ख देकर चला जाता है ।

अक्सर देखने में आता है कि किसी का पुत्र अल्पायु में ही असाध्य रोग से ग्रस्त हो गया । जितना उसका पूर्वजन्म का ऋण था, उतना इलाज पर खर्च करवा कर और माता-पिता को जिंदगी भर के लिए रोने को छोड़ कर वह इस संसार से विदा हो जाता है ।

ये दोनों प्रकार के पुत्र बचपन से माता-पिता के साथ शत्रु की तरह बर्ताव करते हैं । ऐसा पुत्र बचपन से ही खेलकूद में भी माता-पिता को मार-मार कर भागता है और स्वयं हंसता है । बड़े होकर क्रूर स्वभाव वाला होता है और बुरा मुख बना कर माता-पिता को कठोर बातें सुनाता है और उनकी निंदा करता है । बड़े होकर माता-पिता की संपत्ति को व्यर्थ ही नष्ट कर देता है । सारी संपत्ति हड़प कर माता-पिता को कष्ट देते हुए कहता है—‘तुम कौन हो रोकने वाले ?’ माता-पिता की मृत्यु के बाद ऐसा पुत्र उनके लिए श्राद्ध-तर्पण आदि कुछ नहीं करता है ।

मित्र स्वभाव वाला पुत्र—मित्र-स्वभाव वाला पुत्र बचपन से ही माता-पिता का हितैषी और ध्यान रखने वाला होता है । वह अपने मधुर वचनों से व कार्यों से माता-पिता को संतुष्ट रखता है । उन्हें सदा प्रसन्न रखने की चेष्टा करता है । माता-पिता की मृत्यु के बाद वह उनके निमित्त दान, श्राद्ध-तर्पण  और तीर्थयात्रा करता है ।

इस प्रकार के पुत्र के लिए भाई हनुमानप्रसाद जी पोद्दार द्वारा लिखित पद इस प्रकार है—

पुत्र सुपुत्र वही जो करता नित्य पिता-माता का मान ।
तन-मन-धन से सेवा करता, सहज सदा करता सुख-दान ।।
भगवद्भक्त, जितेन्द्रिय, त्यागी, कुशल, शान्त, सज्जन, धीमान ।
जाति-कुटुम्ब-स्वजन-जन-सेवक, ऋत-मित-हित-वादी, विद्वान ।।
धर्मशील, तपनिष्ठ, मनस्वी, मितव्ययी, दाता, धृतिमान ।
पुत्र वही होता कुल-तारक, फैलाता कुल-कीर्ति महान ।। (पद रत्नाकर)

उदासीन-स्वभाव वाला पुत्र—जब कोई व्यक्ति किसी संत की बड़ी श्रद्धा व लगन से सेवा करता है और यदि अंत समय में संत को अपने उस सेवक की याद आ जाए तो वह उस सेवक के घर में पुत्र रूप से जन्म लेता है; परंतु  वह उदासीन भाव से घर में रहता है । उदासीन-स्वभाव वाला पुत्र न कुछ लेता है और न ही देता है, न सुख देता है और न दु:ख । न वह किसी से रुठता है और न ही क्रोध करता है । 

जैसे पुत्र तीन प्रकार के होते हैं; वैसे ही माता-पिता, पत्नी, भाई, नौकर, पड़ौसी, मित्र, गाय, भैंस, घोड़े आदि भी शत्रु, मित्र व उदासीन स्वभाव के होते हैं । सामान्य जीवन में देखा जाता है कि कुछ लोगों के पड़ौसी व मित्र इतने अत्छे होते हैं कि हर सुख-दु:ख में घरवालों से पहले सहायता के लिए तैयार रहते हैं । कुछ लोगों के नौकर भी बहुत भले होते हैं; जबकि कुछ नौकर ही मालिक की हत्या तक कर देते हैं । ये सब पूर्वजन्मों के ऋणानुबन्ध से ही होता है ।

लेकिन मनुष्य मोहवश यह कहने लगता है कि ‘यह घर, यह पुत्र और ये मेरी पत्नी है’—किंतु संसार का यह बंधन झूठा है । हम सब ऋण के सम्बन्ध से ही बंधे हैं ।

एक ही विद्वान व धर्मात्मा पुत्र श्रेष्ठ है; बहुत-से गुणहीन व नालायक पुत्र तो व्यर्थ हैं । एक ही पुत्र कुल का उद्धार करता है, दूसरे तो केवल कष्ट देने वाले होते हैं । ध्रुव व प्रह्लाद जैसे एक पुत्र ने सारे वंश को तार दिया; कौरव सौ होकर भी अपने वंश को न बचा सके ।

पुण्य से ही उत्तम पुत्र प्राप्त होता है, अत: मनुष्य को सदैव धर्मपूर्वक पुण्य कर्मों का संचय करना चाहिए ।

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