bhagwan krishna jara arrow

वसुदेवसुतं देवं कंस चाणूर मर्दनम् ।
देवकी परमानन्दं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ।।

भगवान श्रीकृष्ण जगद्गुरु हैं । उनकी प्रत्येक लीला मनुष्य को कुछ-न-कुछ अवश्य सिखाती है । भगवान श्रीकृष्ण ने अपनी अवतारलीला का संवरण कर गोलोक जाते हुए भी मनुष्य को यह सिखाया कि मृत्यु का वरण (स्वागत) किस तरह करना चाहिए । 

भगवान श्रीकृष्ण के लीला-संवरण का वह अभूतपूर्व दृश्य एक ऐसे महान और विलक्षण आदर्श को संसार के सामने प्रस्तुत करता है, जो न अब तक कभी किसी ने देखा और न सुना । श्रीमद्भागवत के ग्यारहवें स्कन्ध के ३०वें अध्याय में इसका वर्णन मिलता है ।

असल में भगवान का प्रकट होना और जाना नाटक के नट की तरह है । जो गुरु-पुत्र को यमपुरी से सशरीर लौटा सकते थे, देवकी के मरे हुए बेटों को ला सकते थे, स्वयं परीक्षित को गर्भ में ब्रह्मास्त्र से बचा सकते थे, वे क्या स्वयं जीवित नहीं रह सकते थे ? अवश्य रह सकते थे; परंतु उन्होंने यह विचार किया कि अंत में मानव जाति के लिए एक आदर्श स्थापित करना चाहिए ।

भगवान ने सोचा कि अगर मैंने शरीर रख लिया तो दुनिया यही कहेगी कि ज्ञानी अमर होता है, मरता नहीं; इसलिए मर्त्यलोक में मानव शरीर की गति प्रदर्शित करने के लिए भगवान ने अपना शरीर पृथ्वीलोक में नहीं रखा ।

अपने अग्रज बलराम जी के परम-पद में लीन हो जाने के बाद भगवान श्रीकृष्ण चतुर्भुज रूप धारण कर सारी दिशाओं में छिटकती हुई अपनी दिव्य ज्योति को समेट कर निपट अकेले नदी तट पर एक पीपल की जड़ पर सिर टेक कर लेट गए । उस समय उनके नवीन मेघ के समान श्यामवर्ण शरीर से सुवर्ण की-सी ज्योति निकल रही थी । वक्ष:स्थल पर श्रीवत्स का चिह्न था । वे धोती और चादर—दो रेशमी वस्त्र धारण किए हुए थे । उनके मुख पर सुंदर मुस्कान छाई हुई थी । कमलदल के समान सुंदर नेत्र थे और कानों में मकराकृति कुण्डल झिलमिला रहे थे । शरीर पर यथास्थान मुकुट, यज्ञोपवीत, हार, कुण्डल, कड़े, बाजूबंद, नूपूर, करधनी, वनमाला, कौस्तुभमणि आदि सुशोभित हो रहे थे । शंख, चक्र, गदा और पद्म आदि आयुध मूर्तिमान होकर सेवा में उपस्थित थे । उस समय भगवान अपने बायें चरणारविंद को दाहिनी जंघा पर रखे हुए थे । उनके चरणारविन्द का तलवा लाल-लाल चमक रहा था ।

‘जरा’ व्याध ने दूर से छाती पर मुड़े पैर को देखा और उसे मृग समझ कर तीर चला दिया, जो आकर भगवान के तलवे में लगा और रक्त की धारा फूट पड़ी । व्याध जब पास आया तो उसने भगवान का चतुर्भुज रूप देखा तो उसे अपनी भूल का अहसास हुआ ।

इस दुर्घटना के लिए आंसू बहाते हुए चीत्कार करता हुआ वह भगवान के चरणों में दण्डवत् गिर पड़ा । वह अपने-आप को शाप देते हुए निकृष्टतम महापापी घोषित करने लगा ।

उसने कहा—‘मधुसूदन ! मुझसे अनजान में यह अपराध हो गया, मैं महापापी हूँ । आप परम यशस्वी और निष्पाप हैं । कृपापूर्वक मुझे क्षमा कीजिए । हे विष्णो ! जिन आपके स्मरण मात्र से मनुष्यों का अज्ञानान्धकार नष्ट हो जाता है, हाय ! उन्हीं आपका मैंने अनिष्ट कर दिया ।’

अमर्षरहित भगवान ने उठ कर तुरंत व्याध को छाती से लगा लिया और उसे ऐसे सांन्त्वना देने लगे, जैसे उसने कोई अपराध ही न किया हो । 

किसने सिखाया श्याम, तुम्हें मीठा बोलना ।
मीठी तुम्हारी वाणी, चितवन का चोरना ।।
जामा तेरो लाख का है, पटका करोरना ।
शीश मुकुट लकुट हाथ, लट का मरोरना ।।

भगवान ने कहा—‘अरे ! उठ, उठ, तू डर मत ! यह तो तूने मेरे मन का काम किया है—मेरी इच्छा की पूर्ति की है । मैंने यदुवंश में जन्म लिया, ऋषि के शाप का एक टुकड़ा मुझे भी लगना था, उससे पहले यह देह नहीं छूटती । जा, मेरी आज्ञा से स्वर्ग में निवास कर, जिसकी प्राप्ति बड़े-बड़े पुण्यवानों को होती है ।’

‘मेरी इच्छा की पूर्ति’ शब्दों का आशय है कि भगवान यही चाहते थे कि उनके लौकिक शरीर का तिरोभाव उसी विधि से हो, जिसे जरा व्याध ने अपनाया था । चूंकि व्याध के बाण ने भगवान की इच्छा की पूर्ति की है, इसलिए उसे पुरस्कार मिल रहा है और उसे स्वर्ग का अधिकारी बनाया जा रहा है ।

मृत्यु का जो आदर्श इस प्रसंग में स्थापित किया गया है, उससे अधिक उदार, शांतिप्रद, महिमावान, सान्त्वना-प्रदायी कोई दूसरा इतिहास में देखने को नहीं मिलता है । यह एक ऐसा आदर्श है, जहां एक बाणविद्ध एवं मृत्यु के द्वार पर पहुंचा हुआ मानव क्रोध आदि समस्त प्रतिशोध की भावना से मुक्त होकर अपने पर घातक प्रहार करने वाले व्यक्ति को सान्त्वना ही नहीं देता; बल्कि उसे प्रेम से भुजाओं में भर कर पुरस्कार भी देता है ।

भगवान श्रीकृष्ण द्वारा स्थापित आदर्श में क्रोध, प्रतिशोध और कलह के सारे भाव लुप्त हो जाते हैं और समाज को क्षमा और प्रेम का आदर्श मिलता है । अत्याचार का शिकार होकर भी प्रतिशोध की सामर्थ्य रखते हुए भी सभी अपराधों को क्षमा कर देना और अपराधी की मंगलकामना करना यही सर्वश्रेष्ठ क्षमा है । यही गुण मनुष्य को देवत्व प्रदान करते हैं ।

इससे भगवान ने यह शिक्षा भी दी है कि—

यह संसार एक रंगमंच है । जहां सभी को खेलना (अपना कर्त्तव्य कर्म करना) है। खेल की चीजों को ‘अपना’ मान लेने से ही अशान्ति आ जाती है । अपनापन छोड़ा और शान्ति मिली । (२।७१)

जैसे कठपुतली के नाच में कठपुतली और उसका नाच तो दर्शकों को दिखायी देता है परन्तु कठपुतलियों को नचाने वाला सूत्रधार पर्दे के पीछे रहता है, जिसे दर्शक देख नहीं पाते; उसी प्रकार यह संसार तो दिखता है किन्तु इस संसार का सृष्टिकर्ता, पालनकर्ता और संहारकर्ता भगवान दिखायी नहीं देता है; इसीलिए मनुष्य स्वयं को ही कर्ता मानकर अहंकार में रहता है । परन्तु यह विराट् विश्व परमात्मा की लीला का रंगमंच है । विश्व रंगमंच पर हम सब कठपुतली की तरह अपना पात्र अदा कर रहे हैं । भगवान की इस लीला में कुछ भी अनहोनी बात नहीं होती । जो कुछ होता है, वही होता है जो होना है और वह सब भगवान की शक्ति ही करती है । और जो होता है मनुष्य के लिए वही मंगलकारी है ।

करी गोपाल की सब होय ।
जो अपनों पुरुसारथ मानत अति झूठों है सोय ।
साधन मंत्र यंत्र उद्यम बल, यह सब डारहु धोय ।
जो लिख राखि नंदनन्दन नें मेट सकैं नहिं कोय ।
दु:ख सुख लाभ अलाभ समुझि तुम कतहिं मरत हौं रोय ।
सूरदास स्वामी करुणामय श्याम चरन मन मोय ।।

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