भगवान श्रीगणेश ‘विघ्नकर्ता’ और ‘विघ्नहर्ता’ दोनों ही हैं। रुष्ट होने पर वे विघ्न उत्पन्न कर देते हैं और जहां उनका ध्यान-पूजन श्रद्धाभक्ति से होता है वहां विघ्न, व्याधि और वास्तुप्रदत्त दोष व्यक्ति को नहीं सताते हैं।
श्रीगणेश का ‘विघ्नेश’ नाम क्यों?
स्कन्दपुराण के अनुसार एक बार राजा अभिनन्दन ने इन्द्रभाग-शून्य (इन्द्र को यज्ञ का भाग न देकर) यज्ञ आयोजित किया। इससे रुष्ट होकर इन्द्र ने उस यज्ञ के विध्वंस के लिए काल का आह्वान किया, तब वह कालपुरुष ‘विघ्नासुर’ के रूप में प्रकट हुआ। वह राजा अभिनन्दन को मारकर सब जगह सत्कर्मों का नाश करने लगा। इससे दु:खी होकर सभी मुनिगण ब्रह्माजी की शरण में गए। ब्रह्माजी की प्रेरणा से महर्षियों ने श्रीगणेश की स्तुति कर विघ्नासुर का उपद्रव दूर किया। तब से विघ्न भगवान श्रीगणेश के ही आश्रित रहने लगा। ‘विघ्न’ पर श्रीगणेश का ही शासन चलता है अत: वे ‘विघ्नेश’ कहलाते हैं। इसीलिए प्रत्येक कार्य के आरम्भ में श्रीगणेश-पूजन अनिवार्य होता है। श्रीगणेश विघ्नरूपी महाअंधकार के लिए सूर्य हैं, विघ्नरूपी महावन के लिए दावानल के समान हैं, विघ्नरूपी सर्पों के मर्दन के लिए गरुड़ हैं, विघ्नरूपी गजेन्द्र के लिए सिंह हैं, विघ्नरूपी पर्वतों को चूर करने के लिए वज्र हैं, विघ्नरूपी महासागर को सुखा देने के लिए वडवानल हैं और विघ्नरूपी काले बादलों को तितर-बितर करने के लिए प्रचण्ड तूफान के समान हैं।
ऐसे विघ्नहर्ता की कृपा प्राप्त करने के लिए मुद्गलपुराण में दी हुई एक सुन्दर स्तुति यहां दी जा रही है। नित्य गणेशजी की प्रतिमा पर दूर्वादल चढ़ाकर पूरी तरह दीन होकर गणेशजी के नेत्रों में त्राटक (आंख से आंख मिलाकर) करके इस स्तुति का कम-कम-से कम एक पाठ अवश्य करना चाहिए।
विघ्नं ममापहर सिद्धिविनायक त्वम्
विघ्नेश विघ्नचयखण्डननामधेय श्रीशंकरात्मज सुराधिपवन्द्यपाद।
दुर्गामहाव्रतफलाखिलमंगलात्मन् विघ्नं ममापहर सिद्धिविनायक त्वम्।।
हे विघ्नेश! हे सिद्धिविनायक! आपका नाम विघ्न-समूह का खण्डन करने वाला है। आप भगवान शंकर के सुपुत्र हैं। देवराज इन्द्र आपके चरणों की वन्दना करते हैं। आप पार्वतीजी के महान व्रत के उत्तम फल एवं निखिल मंगलरूप हैं। आप मेरे विघ्न का निवारण करें।
सत्पद्मरागमणिवर्णशरीरकान्ति: श्रीसिद्धिबुद्धिपरिचर्चितकुंकुमश्री:।
दक्षस्तने वलयितातिमनोज्ञशुण्डो विघ्नं ममापहर सिद्धिविनायक त्वम्।।
सिद्धिविनायक! आपके श्रीविग्रह की कान्ति उत्तम पद्मरागमणि के समान अरुण वर्ण की है। श्रीसिद्धि और बुद्धि देवियों ने आपके श्रीअंगों में कुंकुम का लेप करके आपकी शोभा का विस्तार किया है। आपके दाहिने स्तन पर वलयाकार मुड़ा हुआ शुण्ड (सूंड़) अत्यन्त मनोहर जान पड़ता है। आप मेरे विघ्न हर लीजिए।
पाशांकुशाब्जपरशुंश्चं दधच्चतुर्भिर्दोर्भिश्च शोणकुसुमस्त्रगुमांगजात:।
सिन्दूरशोभितललाटविधुप्रकाशो विघ्नं ममापहर सिद्धिविनायक त्वम्।।
सिद्धिविनायक! आप अपने चार हाथों में क्रमश: पाश, अंकुश, कमल और परशु धारण करते हैं, लाल फूलों की माला से अलंकृत हैं और उमा के अंग से उत्पन्न हुए हैं तथा आपके सिन्दूरशोभित ललाट में चन्द्रमा का प्रकाश फैल रहा है, आप मेरे विघ्नों का अपहरण कीजिए।
कार्येषु विघ्नचयभीतविरंचिमुख्यै: सम्पूजित: सुरवरैरपि मोदकाद्यै:।
सर्वेषु च प्रथममेव सुरेषु पूज्यो विघ्नं ममापहर सिद्धिविनायक त्वम्।।
सिद्धिविनायक! सभी कार्यों में विघ्न-समूह के आ पड़ने की आशंका से भयभीत हुए ब्रह्मा आदि श्रेष्ठ देवताओं ने भी आपकी मोदक आदि मिष्टान्नों से भली-भांति पूजा की है। आप समस्त देवताओं में सबसे पहले पूजनीय हैं। आप मेरे विघ्न-समूह का निवारण कीजिए।
शीघ्रांचनस्खलनतुंगरवोर्ध्वकण्ठ स्थलेन्दुरुद्रणहासितदेवसंग:।
शूर्पश्रुतिश्च पृथुवर्तुलतुंगतुन्दो विघ्नं ममापहर सिद्धिविनायक त्वम्।।
सिद्धिविनायक! आप जल्दी-जल्दी चलने, लड़खड़ाने, उच्च स्वर से शब्द करने, ऊर्ध्वकण्ठ, स्थूल शरीर होने से चन्द्र, रुद्रगण आदि समस्त देवसमुदाय को हंसाते रहते हैं। आपके कान सूप के समान जान पड़ते हैं, आप मोटा, गोलाकार और ऊंचा तुन्द (तोंद) धारण करते हैं। आप मेरे विघ्नों का अपहरण कीजिए।
यज्ञोपवीतपदलम्भितनागराजो मासादिपुण्यददृशीकृतऋक्षराज:।
भक्ताभयप्रद दयालय विघ्नराज विघ्नं ममापहर सिद्धिविनायक त्वम्।।
सिद्धिविनायक! आपने नागराज को यज्ञोपवीत का स्थान दे रखा है, आप बालचन्द्र को मस्तक पर धारणकर दर्शनार्थियों को पुण्य प्रदान करते हैं। भक्तों को अभय देने वाले दयाधाम विघ्नराज! आप मेरे विघ्नों को हर लीजिए।
सद्रत्नसारततिराजितसत्किरीट: कौसुम्भचारुवसनद्वय ऊर्जितश्री:।
सर्वत्र मंगलकरस्मरणप्रतापो विघ्नं ममापहर सिद्धिविनायक त्वम्।।
सिद्धिविनायक! आपका सुन्दर मुकुट उत्तम रत्नों के सार से दीप्तिमान होता है। आप कुसुम्भी रंग के दो मनोहर वस्त्र धारण करते हैं, आपकी शोभा-कान्ति बहुत बढ़ी-चढ़ी है और सर्वत्र आपके स्मरण का प्रताप सबका मंगल करने वाला है। आप मेरे विघ्न हर लें।
देवान्तकाद्यसुरभीतसुरार्तिहर्ता विज्ञानबोधनवरेण तमोऽपहर्ता।
आनन्दितत्रिभुवनेश कुमारबन्धो विघ्नं ममापहर सिद्धिविनायक त्वम्।।
सिद्धिविनायक! आप देवान्तक आदि असुरों से डरे हुए देवताओं की पीड़ा दूर करने वाले तथा विज्ञानबोध के वरदान से सबके अज्ञानान्धकार को हर लेने वाले हैं। त्रिभुवनपति इन्द्र को आनन्दित करने वाले कुमारबन्धो! आप मेरे विघ्नों का निवारण कीजिए।
मातु पिता गुर प्रभु कै बानी। बिनहिं बिचार करिअ सुभ जानी॥
तुम्ह सब भाँति परम हितकारी। अग्या सिर पर नाथ तुम्हारी॥
भावार्थ:-माता, पिता, गुरु और स्वामी की बात को बिना ही विचारे शुभ समझकर करना (मानना) चाहिए। फिर आप तो सब प्रकार से मेरे परम हितकारी हैं। हे नाथ! आपकी आज्ञा मेरे सिर पर है॥
संसार में जब किसी नदी पर नांव में बैठ कर जाते हैं तो हमेशा संभल कर नांव में बैठे रहते हैं डर रहता है की पानी की ओर झुकेंगे तो कहीं नदी में डूब ना जाये। ठीक वैसे ही भगवान की ओर जाते समय गुरु के बताये मार्ग पर ही आगे जाना है।
~~~जगद्गुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज
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