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कई बार मन में यह प्रश्न उठता है कि रावण जैसा प्रकाण्ड विद्वान जिसने अपने शीश अर्पण कर भगवान शिव को प्रसन्न किया, ‘शिव ताण्डव स्तोत्र’ जैसे काव्य की रचना की; वह सीताहरण जैसे निन्दनीय कर्म को कैसे कर सकता है ? क्या वह इतना अज्ञानी था या इसके पीछे उसका कोई गुप्त उद्देश्य था ?

इसका उत्तर है कि रावण ने शत्रु भाव से भगवान से प्रेम किया और अपनी इस अनूठी साधना को उसने मरते दम तक निभा कर भगवान श्रीराम के चरणों में परम गति प्राप्त की ।

भगवान को प्राप्त करने के लिए उनसे अनूठी प्रेम-साधना करनी पड़ती है । यह साधना चार प्रकार की मानी गयी है—१. भगवान से दास्य भाव से प्रेम, २. सख्य भाव से प्रेम, ३. वात्सल्य भाव का प्रेम और माधुर्य भाव से प्रेम । रावण ने प्रभु श्रीराम को पाने की साधना अनूठे शत्रु भाव से की थी ।

रावण जिसने श्रीराम से शत्रुता कर पाई परम गति

रावण महान पंडित और ज्ञानी था । वनवास के समय जब लक्ष्मणजी ने शूपर्णखा के नाक-कान काट दिए तो उसने रावण के पास जाकर खर-दूषण और त्रिशिरा के वध का समाचार सुनाया । रावण ने विचार किया कि ‘देवता, असुर, नाग और पक्षियों में कोई ऐसा नहीं है जो मेरे सेवक को नुकसान पहुंचा सके; उन्हें भगवान के सिवाय और कौन मार सकता है ?’

यदि पृथ्वी का भार हरण करने के लिए भगवान ने ही अवतार लिया है तो मैं मन, वचन और कर्म से उनसे हठपूर्वक वैर करुंगा; क्योंकि इस राक्षस रूपी तामस-देह से भजन करके तो मैं भवसागर से पार नहीं हो सकता । प्रभु श्रीराम के बाण के आघात से प्राण छोड़ने पर इस भवसागर से तर जाऊंगा । मेरी आत्मा परमात्मा के चरणों में लीन हो जाएगी । इसी कारण वह अपने इस गुप्त निर्णय पर अटल रहा । माता सीता का हरण करके श्रीराम से वैर बढ़ाया और सीताजी को ले जाकर अशोक वाटिका में रख दिया ।

रावण को उसके निश्चय से डिगाने के लिए उसकी पत्नी मंदोदरी के अलावा मारीच, जटायु, हनुमान, विभीषण, अंगद, कुम्भकर्ण तथा गुप्तचरों ने अपने-अपने तरीके से प्रयास किए, पर वह अपने निश्चय पर अडिग रहा और शत्रु बन कर आनन्दकन्द भगवान के प्रेम में लीन हो गया ।

ताड़का के पुत्र मारीच को श्रीराम ने मुनियों के यज्ञ में विघ्न डालने पर बाण से सौ योजन दूर फेंक दिया था; इसलिए उसने श्रीराम को साक्षात् ईश्वर के रूप में पहचान लिया था । मारीच ने रावण को सीताहरण न करने के लिए समझाया पर रावण ने एक न मानी ।

सीताहरण के समय जटायु जब रावण से कहते हैं कि श्रीराम की क्रोधरूपी भयानक अग्नि में तेरा सारा वंश पतिंगा होकर भस्म हो जाएगा तो रावण उनसे कुछ कहता नहीं है और न ही उन्हें मारता है; ताकि वे श्रीराम को रावण द्वारा सीताहरण की सूचना दे सकें । रावण रास्ते में सीताजी को वस्त्र डालने से भी नहीं रोकता ताकि पर्वत पर बैठे वानर भी सीताहरण की कहानी श्रीराम को सुना सकें ।

हनुमानजी ने उलट-पलट कर लंका जलाई, फिर भी रावण उन्हें सीताजी से मिल कर सकुशल लौट जाने देता है ताकि हनुमानजी से सभी सूचना प्राप्त कर भगवान श्रीराम लंका आकर उसका व समस्त राक्षसकुल का उद्धार करें ।

जब भी अवसर मिलता मंदोदरी रावण को समझाती थी । वह रावण से कहती है—

समुझत जासु दूतकइ करनी ।
स्त्रवहिं गर्भ रजनीचर घरनी ।।
तासु नारि निज सचिव बोलाई ।
पठवहु कंत जो चहहु भलाई ।। (राचम (५।३६।७-८) 

अर्थात्—‘जिनके दूत की करनी का स्मरण आते ही राक्षसों की स्त्रियों के गर्भ गिर जाते हैं, हे प्यारे स्वामी ! यदि भला चाहते हैं, तो अपने मंत्री को बुलाकर उसके साथ उनकी स्त्री को भेज दीजिए ।’

रावण अपनी बुद्धिमती पत्नी की बात हंस कर टाल देता; क्योंकि वह अच्छी तरह जानता था कि उसका कल्याण किसमें है । 

रावण के बुद्धिमान मंत्री माल्यवान् जब रावण को समझाते हैं तो रावण उसे दरबार से निकलवा देता है । परम्तु अपने सौतेले भाई विभीषण की बातों को चुपचाप सुनता है । विभीषण रावण को समझाते हुए कहते है—

तात राम नहिं नर भूपाला ।
भुवनेस्वर कालहू कर काला ।।

ब्रह्म अनामय अज भगवंता ।
व्यापक अजित अनादि अनंता ।।

गो द्विज धेनु देव हितकारी ।
कृपा सिंधु मानुष तनुधारी ।।

जन रंजन भंजन खल ब्राता ।
बेद धर्म रच्छक सुनु भ्राता ।। (राचमा ५।३९।१-४)

विभीषण आगे कहते हैं—‘जो मनुष्य अपना कल्यान, सुन्दर यश, सुबुद्धि, शुभ गति और तरह-तरह के सुख चाहता हो, वह हे स्वामी ! परस्त्री के ललाट को चौथ के चन्द्रमा की तरह त्याग दे ।’

जो आपन चाहै कल्याना ।
सुजसु सुमति सुभ गति सुख नाना ।।

सो परनारि लिलार गोसाई ।
तजउ चउथि के चंद कि नाईं ।। (राचमा ५।३८।५-६)

विभीषण रावण को मान, मोह और मद त्याग कर कोसलपति श्रीरामचन्द्रजी का भजन करने के लिए कहते हैं । मुनि पुलस्त्यजी (रावण इनके कुल में जन्मा था) ने अपने शिष्य के हाथ यह बात कहला भेजी है । मुनि पुलस्त्यजी का नाम सुनकर रावण विभीषण को चरण-प्रहार करके कहता है—‘मेरे नगर में रह कर तपस्वियों से प्रेम करता है, उन्हीं से जा मिल ।’

रावण जानता था कि बिना विभीषण के पहुंचे भगवान श्रीराम को उसे मुक्ति देने में कठिनाई होगी । साथ ही वह राक्षस वंश को भी चलाना चाहता था । अपने बेटे की मृत्यु का दु:ख भी उसे अपने लक्ष्य से नहीं डिगा पाया ।

युद्ध में शत्रु भाव से श्रीराम को भजता हुआ रावण अपनी माया से उन्हें खूब छकाता है । जब सिर व भुजाएं कटने पर भी वह मरता नहीं है, तब श्रीराम विभीषण की ओर देखते हैं; इसीलिए तो रावण ने विभीषण को वहां भेजा था । विभीषण श्रीराम को बताते हैं—

सुनु सरबग्य चराचर नायक ।
प्रनतपाल सुर मुनि सुखदायक ।।

नाभिकुंड पियूष बस याकें ।
नाथ जिअत रावनु बल ताकें ।। (राचमा ६।१०२।४-५)

विभीषण के द्वारा रावण की नाभि में अमृत होने की सूचना देने पर श्रीराम ने इककीस बाणों से रावण की नाभि के अमृत को सुखा दिया । रावण ने इस नश्वर देह का त्याग कर दिया और उसका तेज श्रीराम के मुख में समा गया ।

तासु तेज समान प्रभु आनन ।
हरषे देखि संभु चतुरानन ।। (राचमा ६।१०३।९)

रावण प्रसन्न था कि उसने भगवान श्रीराम से हठपूर्वक वैर किया और उन्हीं के बाणों के आघात से उसका जीव प्राण छोड़कर प्रभु चरणों में लीन हो गया । उसका उद्देश्य पूर्ण हो गया । 

जब रावण की मृत्यु हो गई, तब मंदोदरी पति के शव के पास विलाप करती हुई भगवान की दयालुता का बखान करते हुए कहती है—

अहह नाथ रघुनाथ सम कृपासिंधु नहिं आन ।

जोगि बृंद दुर्लभ गति तोहि दीन्हि भगवान ।। (राचमा ६।१०४)ऐसी अनोखी साधना संसार के इतिहास में कम ही देखने को मिलती हैं । कवि दिनकर ने सही कहा है—‘सिर देकर सौदा करते हैं जिन्हें प्रेम का रंग चढ़ा ।’

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