bhagwan vishnu on garunda

भगवान को चिन्ता सबकी रहती है, पर विशेष चिन्ता उन्हें दीनों व निर्बलों की होती है। सभी प्राणी ईश्वर की संतान हैं परन्तु दीनजन तो प्रभु के विशेष बालक हैं। 

जहां-जहां दीनता है, वहां-वहां भगवान प्रत्यक्ष प्रकट हैं

सुने री मैंने निरबल के बल राम ।
पिछली साख भरूँ संतन की, आइ सँवारे काम ।।
जब लगि गज बल अपनो बरत्यो, नेक सर्यो नहिं काम ।
निरबल ह्वै हरि नाम पुकार्यो, आये आधे नाम ।।
द्रुपद-सुता निरबल भई ता दिन, तजि आये निज धाम ।
दुःशासन की भुजा थकित भई, बसन रूप भये स्याम ।।
अप-बल, तप-बल और बाहु बल, चौथो है बल दाम ।
‘सूर’ किसोर कृपा तें सब बल, हारे को हरि नाम ।।

अर्थात्—मैंने ऐसा सुना है कि भगवान तो केवल निर्बल के बल हैं। संतों और भक्तों का जीवन साक्षी है कि भगवान ने उनके बिगड़े काम संवार दिए। गजेन्द्र को जब तक अपने बल का घमंड रहा, तब तक उसने सब कुछ करके देख लिया किन्तु अपने को ग्राह से न बचा सका और जब उसका घमण्ड चूर हुआ और ‘दीनबन्धु’ की याद आयी तो भगवान ने उसे ग्राह के बंधन से मुक्त करने में पलक झपकने का भी समय नहीं लगाया और आधा नाम लेते ही सहायता के लिए दौड़ पड़े। इसी को ‘गजेन्द्रमोक्ष’ कहते हैं।

चीरहरण के समय द्रौपदी ने भगवान को तब तक नहीं पुकारा जब तक उसे जरा भी किसी की आशा बनी रही। उसने पाण्डवों, द्रोण, विदुर और पितामह भीष्म की ओर आशा से देखा कि ये मुझे बचा लेगें, किन्तु जब वह सब ओर से निराश हो गयी तब उसने निराश्रय के आश्रय और निर्बल के बल भगवान का स्मरण किया तो भगवान को आते कितनी देर लगती है; जहां करुण आह्वान हुआ कि वे भक्तवत्सल प्रभु दौड़ पड़े।

संसार में चार प्रकार के बल है—निज बल, भजन का बल, शारीरिक बल और धन बल। ये सभी बल भगवान की कृपा से ही प्राप्त होते हैं किन्तु जो इन सब बलों का आश्रय छोड़ देता है और हरिनाम का आश्रय ग्रहण करता है, तब उसको भगवान की पूर्ण कृपा प्राप्त हो जाती है। 

दीन और दीनानाथ

दीन का अर्थ है—असमर्थ, अशक्त, जिसमें कुछ करने की शक्ति नहीं, जिसके पास कोई साधन नहीं और जो पूरी तरह से निर्बल है। 

दीन को कौन अपनाये?—संसार में दीनों से प्रेम करने वाले, उनका आदर करने वाले और उन्हें अपनाने वाले केवल दो ही होते हैं—१. भगवान, और २. संत। इसलिए उन्हें दीनदयाल, दीनबन्धु, दीनवत्स, दीनप्रिय और दीनानाथ कहते हैं। 

भगवान की कृपा के विशेष पात्र हैं दीन-दु:खी

सबल, धनी-मानी लोगों का आधार तो कुछ और भी होता है पर दीनों का आधार तो ‘दीनदयाल’ ही होता है। ‘जैसे उड़ी जहाज को पंछी, पुनि जहाज पे आवे’ अर्थात् समुद्र के बीच जहाज के मस्तूल से उड़े हुए पंछी को मस्तूल के सिवा और ठिकाना कहां हो सकता है? वैसे ही दीनों का चित्त भगवान से छूटे भी तो किससे लगे? क्योंकि उनके पास मोह में फंसाने वाली वस्तुएं नहीं होतीं। इसलिए दीन प्रभु के कहलाते हैं, और प्रभु दीनों का कहलाता है। 

कभी भगवान भक्तों को दुखी नहीं होने देते ।
जैसे मां-बाप बच्चों को कभी रोने नहीं देते ।
बुराइयां दूर बच्चों की सभी मां-बाप करते हैं ।
प्रभो आकर के भक्तों के पाप और ताप हरते हैं ।
भक्त की राह में कांटे कभी बोने नहीं देते।।

भक्तों को देते हैं  दु:ख का अमोघ दान

भगवान जिस पर कृपा करते हैं, उसे दु:ख का अमोघ दान दिया करते हैं। उसका धन हर लेते हैं, मान घटा देते हैं, नाते-रिश्तेदार, मित्रों में उसके प्रति घृणा व उपेक्षा पैदा कर देते हैं। इससे वह संसार के बंधन से मुक्त होकर प्रभु की ओर बढ़ता है। अपनी ओर खींचने के लिए ही भगवान उसे दु:ख का दान देते हैं।

बड़भागी है वही, जिसे हरि ने अपनाया ।
हरकर धन-जन-मान, मोह-तम दूर हटाया ।।
भोग-लाभ की क्रिया सभी की असफल चोखी ।
घर-समाज से मिली सहज दुत्कार अनोखी ।। (भाई हनुमानप्रसादजी पोद्दार)

‘जो मेरी आशा करता है, मैं उसका सर्वनाश कर देता हूँ। इतने पर भी जो मेरी आशा नहीं छोड़ता, उसको मैं अपना दासानुदास बना लेता हूँ।’

भगवान श्रीकृष्ण ने जब कुन्ती से वर मांगने को कहा तो दीनता के इसी विशिष्ट गुण को देखकर कुन्ती ने उस समय दीनता मांगी।

सुख के माथे सिल पड़ी, जो नाम हृदय से जाय ।
बलिहारी वा दु:ख की जो छिन छिन राम रटाय ।।

ऐसे बहुत कम उदाहरण हैं जब आदमी बड़ा हो और भगवान उस पर न्यौछावर हो गए हों। जब मनुष्य जन्म का बड़ा होने पर भी जब अपना बड़प्पन खोकर अत्यन्त दीन होकर भगवान के शरण आया, उसी दिन प्रभु ने उसे अपने निकट खींच लिया।

राजा बलि ने जब राजत्व का साज हटाकर मस्तक झुकाया, तब प्रभु ने उसके आंगन में खड़े रहना अंगीकार किया। यह मानभंग, ऐश्वर्यनाश आदि भगवान की बड़ी कृपा से होता है। यदि कोई धन का होकर रह रहा है, तो भगवान चाहते हैं कि वह धन का न होकर हमारा होकर रहे। वे उसे अपनी गोद में लेना चाहते हैं। इसीलिए सूदासजी कहते हैं—

प्रभु मैं पीछौं लियौ तुम्हारौ ।
तुम तौ दीनदयाल कहावत, सकल आपदा टारौ।।

अर्थात्—प्रभु मैंने आपका आश्रय अच्छी तरह पकड़ लिया है। आप दीनों पर दया करने वाले हैं, इसलिए आपका नाम है दीनदयाल। अत: आप मुझ दीन की सारी विपत्तियों को समाप्त कर दीजिए।

बोझ प्रभु के कन्धे पर

जिसे जगत (समाज, परिवार, आतमीयजनों व मित्रों) का आधार है, उसकी जगदाधार (भगवान) से कैसी रिश्तेदारी। जिसके खाते में जगत का आधार जमा नहीं रह गया, उसी का बोझ प्रभु अपने कंधों पर ढोते हैं।

द्वारकाधीश भीष्म के यहां नहीं गए, कौरवाधिपति दुर्योधन के यहां नहीं गए पर विदुरजी के घर गए। कितनी प्रसन्नता हुई विदुरजी को। श्रीकृष्ण और सुदामा की मित्रता—श्रीकृष्ण  सुदामा जैसे होते तो कोई महत्व नहीं था पर वे तो राजराजेश्वर थे, उन्होंने गरीब सुदामा के चरण धोए, चरणामृत लिया, महलों में छिड़का, मित्रके चरण दबाए और दीन को गले लगाया। भगवान तो हैं ही गरीब-निवाज।

देखि सुदामा की दीन दशा करुणा करिके करुणानिधि रोये।

जब चैतन्य महाप्रभुजी ने किया कुष्ठी का आलिंगन

चैतन्य महाप्रभु पुरी से दक्षिण भारत की यात्रा कर रहे थे। रास्ते में उन्होंने एक कुष्ठी को देखा जिसके सारे शरीर में गलित कुष्ठ था पर वह बड़े प्रेम से वेदना भरे स्वर में भगवान का कीर्तन कर रहा था। महाप्रभु ने जब कीर्तन सुना तो प्रेम में उन्मत्त होकर अपनी दोनों बाहें फैलाकर उस कोढ़ी को आलिंगन देने के लिए बढ़े। वह व्याकुल होकर पीछे हटते हुए बोला—‘आप यह क्या कर रहे हैं? मुझ पापी का स्पर्श न करें प्रभु।’

महाप्रभु ने कोढ़ी से कहा—‘प्रेम से भगवान का नाम लेने वाला सारे संसार को पवित्र करता है। आपके स्पर्श से मैं पवित्र हो जाऊंगा।’

पीब और सड़ांध से भरे घावों से आकुल कुष्ठी को महाप्रभु ने जबरदस्ती भुजाओं में भरकर हृदय से लगा लिया। आश्चर्य क्या! कुष्ठी तत्काल स्वस्थ हो गया।

दीनों की, गरीबों की, रोगियों की, विधवाओं की, अनाथों की, असहायों की, दु:खियों की जितनी सेवा हो सके करनी चाहिए। यदि गरीबों ने हमें अपना मान लिया, तो सच मानिये, हमें गरीब-निवाज भगवान भी अपना लेंगे।

जिसने दु:खियों को अपनाया बढ़कर उनकी बाँह गही ।
परहितार्थ जिनका वैभव है है उनसे ही धन्य मही ।। (मैथिलीशरण गुप्त)

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