जैसे कठपुतली के नाच में कठपुतली और उसका नाच तो दर्शकों को दिखायी देता है; परन्तु कठपुतलियों को नचाने वाला सूत्रधार पर्दे के पीछे रहता है, जिसे दर्शक देख नहीं पाते हैं । उसी प्रकार यह संसार तो दिखता है; किन्तु इस संसार का सृष्टिकर्ता, पालनकर्ता और संहारकर्ता भगवान कहीं दिखायी नहीं देता है; इसीलिए मनुष्य स्वयं को ही कर्ता मानकर अहंकार में रहता है ।
‘अयम् ब्रह्म’ : महाभारत की कथा
पाण्डवों का राजसूय यज्ञ चल रहा था । देश-विदेश के राजा-महाराजा तो आये थे ही, बड़े-बड़े ऋषि-मुनि भी इस यज्ञ में पधारे थे । उस समय बातों-ही-बातों में धर्मराज युधिष्ठिर ने कहा—‘मुझे अब तक परमात्मा के दर्शन नहीं हुए हैं ।’
श्रीकृष्ण पाण्डवों के साथ इतने दिनों से थे; किंतु कोई उन्हें पूरी तरह से पहचान नहीं सका था । धर्मराज युधिष्ठिर को तो यह पता नहीं था कि श्रीकृष्ण साक्षात् परब्रह्म परमात्मा हैं । राजसूय यज्ञ में श्रीकृष्ण को जूठी पत्तलें उठाते देख कर वह यही समझते थे कि यह तो मामा का लड़का है; इसलिए काम करता है । इसमें नई बात क्या है ?
परमात्मा के सांनिध्य में रहते हुए भी वे परमात्मा को नहीं पहचान सके; किंतु नारद जी से रहा न गया । उन्होंने युधिष्ठिर से कहा—‘राजन् ! ये दुर्वासा, जमदग्नि जैसे बड़े-बड़े ऋषि-मुनि तुम्हारा मिष्ठान खाने और दक्षिणा लेने के लोभ से यहां नहीं आये हैं । ये लोग तुम्हारा कुछ भी लेने यहां नहीं आये हैं । ये तो यहां परब्रह्म परमात्मा के दर्शन करने के लिए आए हैं, जो तुम्हारे घर में विराजमान हैं । राजन् ! तुम बहुत सौभाग्यशाली हो, जो परमात्मा तुम्हारी इस सभा में उपस्थित है ।
धर्मराज युधिष्ठिर ने परमात्मा के दर्शन करने की इच्छा से चारों ओर नजर घुमाई; किंतु उन्हें कहीं भी भगवान के दर्शन नहीं हुए । श्रीकृष्ण की तरफ जब भी नजर गई तो उन्होंने यही समझा कि ये मेरे मामा के लड़के हैं ।
नारद जी ने कहा—‘विश्व को उत्पन्न करने वाले ब्रह्मा के पिता भी इसी सभा में हैं ।’
युधिष्ठिर ने कहा—‘कहां हैं ? मुझे तो कहीं दिखाई नहीं देते हैं ।’
श्रीकृष्ण ने सोचा—अब नारद जी चुप ही रहें तो अच्छा है । उन्होंने नारद जी को इशारा किया कि भाई, बंद कर दो अब अपनी कहानी; किंतु नारद जी से रहा न गया । उन्होंने मन में सोचा कि धर्मराज युधिष्ठिर अभी तक परमात्मा को पहचान नहीं सके हैं । मैंने धर्मराज के घर का अन्न खाया है । ब्राह्मण जिसका खाते हैं, उसका कल्याण करते हैं । आज चाहे परमात्मा नाराज हों तो हो; मैं तो आज उन्हें जाहिर (प्रकट) करके रहूँगा ।
नारद जी ने श्रीकृष्ण की तरफ ऊंगली उठा कर कहा—‘अयम् ब्रह्म—ये ही ब्रह्म हैं । ऋषिगण इन्हीं के दर्शन करने आए हैं ।’
परमात्मा श्रीकृष्ण ने सिर झुका कर कहा—‘मैं ब्रह्म नहीं हूँ । नारदजी को को झूठ बोलने की आदत है ।’
मनुष्य प्रकट होना चाहता हैं । सभी मनुष्यों के मन में यह भावना छिपी रहती है कि संसार मुझे जाने; मेरा नाम-प्रसिद्ध हो; किंतु परमात्मा गुप्त रहना चाहते हैं ।
गीता (७।२५) में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं—‘मैं सबके सामने प्रकाशित क्यों नहीं होता, लोग मुझे पहचानते क्यों नहीं ? क्योंकि मैं योगमाया से अपने को ढका रखता हूँ ।’ भगवान की लीला का आयोजन योगमाया ही करती है । संसारी जीवों के सामने भगवान की भगवत्ता को छुपा कर रखना आदि काम योगमाया करती हैं ।
भगवान श्रीकृष्ण द्वारा युधिष्ठिर को आत्म-तत्त्व का उपदेश
तब धर्मराज युधिष्ठिर ने भगवान श्रीकृष्ण से आत्म-तत्त्व का उपदेश देने को कहा । भगवान श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर को आत्मतत्त्व का वर्णन करते हुए कहा—
‘इस समय धर्म की स्थापना और दुष्टों के विनाश के लिए मैंने अपनी माया से मानव-शरीर में अवतार धारण किया है । जो लोग मुझे केवल मनुष्य समझ कर मेरी अवहेलना करते हैं, वे मूर्ख हैं । मैं ही देवताओं का आदि हूँ । ब्रह्मा आदि देवताओं की मैंने ही सृष्टि की है । ब्रह्मा से लेकर छोटे-से कीड़े तक में मैं व्याप्त हूँ ।
द्युलोक मेरा मस्तक, सूर्य और चन्द्रमा आंखें, गौ, अग्नि और ब्राह्मण मेरे मुख, वायु मेरी साँस, आठ दिशाएं मेरी बांहें, नक्षत्र मेरे आभूषण और अंतरिक्ष मेरा वक्ष:स्थल है । मेरे हजारों मस्तक, हजारों मुख, हजारों नेत्र, हजारों भुजाएं, हजारों उदर, हजारों उरु और हजारों पैर हैं । मैं पृथ्वी को सब ओर से धारण करके समस्त ब्रह्माण्ड से दस अंगुल ऊँचे अर्थात् सबसे परे विराजमान हूँ ।
प्रलयकाल में समस्त जगत का संहार करके उसे अपने उदर में स्थापित कर दिव्य योग का आश्रय ले मैं एकार्णव के जल में शयन करता हूँ । एक हजार युगों तक रहने वाली ब्रह्मा की रात पूर्ण होने तक महार्णव में शयन करके उसके बाद जड़-चेतन प्राणियों की सृष्टि करता हूँ । सभी मुझसे ही उत्पन्न होते हैं; फिर भी मेरी माया से मोहित होने के कारण मुझे नहीं जान पाते हैं । कहीं भी कोई भी ऐसी वस्तु नहीं है, जिसमें मेरा निवास न हो । भूत, भविष्य जो कुछ है, वह सब मैं ही हूँ ।’
गीता में ऐसे बहुत-से श्लोक हैं, इनके अलावा महाभारत व श्रीमद्भागवत में ऐसे अनेक वाक्य हैं, जिनसे यह सिद्ध होता है कि श्रीकृष्ण पूर्ण परात्पर सनातन ब्रह्म हैं । कमलनयन श्रीकृष्ण ही सबकी आत्मा हैं । गीता (७।७) में वे स्वयं कहते हैं–
‘हे अर्जुन ! मेरे अतिरिक्त दूसरी कोई भी वस्तु नहीं है । माला के सूत्र में पिरोये हुए मणियों के समान यह समस्त ब्रह्माण्ड मुझमें पिरोया हुआ है ।’
मैं ही गति, भर्ता, प्रभु, साक्षी, शरण, निवास, सुहृद मैं ही ।
मैं उत्पत्ति, प्रलय, स्थान, निधान नित्य बीज मैं ही ।।
मैं ही मेघ रोकता, तपता, मैं ही बरसाता हूँ वृष्टि ।
मैं ही अमृत, मृत्यु भी मैं ही, सदसत् मैं ही सारी सृष्टि ।। (श्रीहनुमानप्रसादजी पोद्दार)
हम सब के घरों में भी भगवान विराजमान हैं; परंतु उनको देखने की दिव्यचक्षु हमारे पास नहीं हैं । नारद जी जैसे संतों-गुरुओं की कृपा से हमें वैसी आंखें मिलें तो परमात्मा के दर्शन घर में ही हो सकेंगे ।
बहुत सुन्दर लेख हैं जिस गहराई से शब्दों चयन किया गया उसमे निपुणता और भक्ति दोनो दिखाई देती। धन्य हैं आप।