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भगवान श्रीकृष्ण द्वारा युधिष्ठिर को आत्म-तत्त्व का उपदेश

प्रलयकाल में समस्त जगत का संहार करके उसे अपने उदर में स्थापित कर दिव्य योग का आश्रय ले मैं एकार्णव के जल में शयन करता हूँ । एक हजार युगों तक रहने वाली ब्रह्मा की रात पूर्ण होने तक महार्णव में शयन करके उसके बाद जड़-चेतन प्राणियों की सृष्टि करता हूँ । किंतु मेरी माया से मोहित होने के कारण जीव मुझे नहीं जान पाते हैं । कहीं भी कोई भी ऐसी वस्तु नहीं है, जिसमें मेरा निवास न हो । भूत, भविष्य जो कुछ है, वह सब मैं ही हूँ । सभी मुझसे ही उत्पन्न होते हैं; फिर भी मेरी माया से मोहित होने के कारण मुझे नहीं जान पाते हैं ।

श्रीचैतन्य महाप्रभु जी की शिक्षाओं का सार है ‘शिक्षाष्टक’

प्रकाण्ड विद्वान होते हुए भी श्रीचैतन्य महाप्रभु ने किसी ग्रंथ की रचना नहीं की । इनके मुख से आठ श्लोक ही निकले बताये जाते हैं, जो ‘शिक्षाष्टक’ के नाम से प्रसिद्ध हैं । वैष्णवों के लिए तो यह ‘शिक्षाष्टक’ कंठहार-स्वरूप है ।