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वेदों में जब भाट बन कर की राजा राम की स्तुति

भगवान की कृपा प्राप्त करने के लिए भगवान की आराधना, स्तुति करना आवश्यक है । भगवत्कृपा केवल मनुष्यों के लिए ही नहीं वरन्, देवता, दानव, वेद, ऋषि-मुनि—त्रिलोकी के समस्त जीवों की चाह रही है; क्योंकि यही सुख-शान्ति व सफलता का साधन है ।

राजा परीक्षित की किस गलती की वजह से कलियुग का आरम्भ...

जिस बालक को गर्भ में ही परमात्मा श्रीकृष्ण के दर्शन हो गए हों, वह कितना पवित्र होगा ! किन्तु कलियुग का प्रभाव ही ऐसा है, अच्छे-अच्छों को प्रभावित कर देता है । वैसे तो जिस दिन, जिस क्षण श्रीकृष्ण इस पृथ्वी को त्याग कर गोलोकधाम पधारे थे, उसी क्षण से अधर्म रूपी कलियुग का आरम्भ हो गया था ।

हजार नामों के समान फल देने वाले भगवान श्रीकृष्ण के 28...

भगवान श्रीकृष्ण ने कहा—‘मैं अपने ऐसे चमत्कारी 28 नाम बताता हूँ जिनका जप करने से मनुष्य के शरीर में पाप नहीं रह पाता है । वह मनुष्य एक करोड़ गो-दान, एक सौ अश्वमेध-यज्ञ और एक हजार कन्यादान का फल प्राप्त करता है ।

विभिन्न प्रकार की सिद्धियां और उनके लक्षण

मनुष्य सिद्धि प्राप्ति के लिए अनेक कष्ट सहकर विभिन्न उपाय करता है परन्तु भगवान श्रीकृष्ण उद्धवजी को कहते हैं कि जो मुझ एक परमात्मा को अपने हृदय में धारण करता है, सब सिद्धियां उसके चरणतले आ जाती हैं और चारों मुक्तियां उसकी दासी बन कर सदैव उसके पास रहती हैं ।

कब है गीता का अध्ययन सार्थक ?

गीता भगवान श्रीकृष्ण का संसार को दिया गया प्रसाद है । गीता को समझने के लिए सिर्फ और सिर्फ आवश्यक है श्रीकृष्ण की शरणागति । इसीलिए गीता में शरणागति की बात मुख्य रूप से आई है । गीता शरणागति से ही शुरु होती है और शरणागति में ही समाप्त हो जाती है ।

श्रीकृष्ण : ‘वेदों में मैं सामवेद हूँ’

श्रीकृष्ण चरित्र भी सामवेद के इस मन्त्र की तरह मनुष्य को हर परिस्थिति में सम रह कर जीना सिखाता है । भगवान श्रीकृष्ण की सारी लीला में एक बात दिखती है कि उनकी कहीं पर भी आसक्ति नहीं है । द्वारकालीला में सोलह हजार एक सौ आठ रानियां, उनके एक-एक के दस-दस बेटे, असंख्य पुत्र-पौत्र और यदुवंशियों का लीला में एक ही दिन में संहार करवा दिया, हंसते रहे और यह सोचकर संतोष की सांस ली कि पृथ्वी का बचा-खुचा भार भी उतर गया ।

अंत मति सो गति

मोह या आसक्ति ही मनुष्य के समस्त दु:खों का कारण है । राजर्षि भरत ने मरणासन्न मृगछौने पर दया करके उसकी रक्षा की, यह तो बड़े पुण्य का कार्य था परन्तु इसमें धीरे-धीरे एक दोष उत्पन्न हो गया, यह उनको पता ही न चला ।

अहंकार से बचने के लिए क्या कहती है गीता

अर्जुन को लगता था कि भगवान श्रीकृष्ण का सबसे लाड़ला मैं ही हूँ । उन्होंने मेरे प्रेम के वश ही अपनी बहिन सुभद्रा को मुझे सौंप दिया है, इसीलिए युद्धक्षेत्र में वे मेरे सारथि बने । यहां तक कि रणभूमि में स्वयं अपने हाथों से मेरे घोड़ों के घाव तक भी धोते रहे । यद्यपि मैं उनको प्रसन्न करने के लिए कुछ नहीं करता फिर भी मुझे सुखी करने में उन्हें बड़ा सुख मिलता है ।

काश, मैं भगवान का प्यारा भक्त होता !

वह स्वभाव क्या है, जिससे आकर्षित होकर भगवान भक्त को खोजते फिरें, उसका पता पूछें, उससे मिलने के लिए रोते फिरें, अपने भक्त की चाकरी करें, वे गुण जिसके कारण भक्त भगवान को अत्यन्त प्यारा लगने लगता है—यह जानने की जिज्ञासा हर प्रेमीभक्त को होती है ।

गीता का स्थितप्रज्ञ भक्त कवि धनंजय

गीता में अर्जुन श्रीकृष्ण से पूछते है—हे मधुसूदन ! ये स्थितप्रज्ञ क्या होता है ? इसे समझाओ ! भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं—‘पार्थ ! दुःख भोगते हुए भी जिसके मन में उद्वेग नहीं होता और जो न ही सुख की लालसा रखता है तथा जिसके ह्रदय में क्रोध, मोह, भय आदि विकारों के लिए कोई स्थान नहीं होता है वह मनुष्य स्थितप्रज्ञ है, वह मुनि, संन्यासी स्थिरबुद्धि कहा जाता है ।’