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भक्ति हो तो भक्त सुधन्वा जैसी
सुधन्वा का कटा मस्तक ‘गोविन्द ! मुकुन्द ! हरि !’ पुकारता हुआ श्रीकृष्ण के चरणों पर जा गिरा । श्रीकृष्ण ने झट से उस सिर को दोनों हाथों में उठा लिया । उसी समय उस मुख से एक ज्योति निकली और सबके देखते श्रीकृष्ण के श्रीमुख में लीन हो गई ।
श्रीगिरिराज चालीसा
श्रीराधा ने श्रीकृष्ण से कहा–’प्रभो ! जहां वृन्दावन नहीं है, यमुना नदी नहीं हैं और गोवर्धन पर्वत भी नहीं है, वहां मेरे मन को सुख नहीं मिल सकता है ।’ भगवान श्रीकृष्ण ने अपने गोलोकधाम से चौरासी कोस भूमि, गोवर्धन पर्वत एवं यमुना नदी को भूतल पर भेजा ।
गुरु-भक्ति से युगल स्वरूप के दर्शन : भक्ति कथा
युगलस्वरूप के साक्षात् दर्शन करने से श्रीविट्ठलविपुलदेव के नेत्र स्तब्ध और देह जड़ हो गई, नेत्रों से प्रेमाश्रु बहने लगे । मुख से बोल निकले—‘हे रासेश्वरी ! आप करुणा करके मुझे अपनी नित्यलीला में स्थान दो । अब मेरे प्राण संसार में नहीं रहना चाहते हैं ।’
भगवान श्रीकृष्ण का सबसे लोकप्रिय मन्त्र (अर्थ सहित)
भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं—‘अर्जुन ! जो मेरे नामों का गान करके मेरे निकट नाचने लगता है, या जो मेरे नामों का गान करके मेरे समीप प्रेम से रो उठते हैं, उनका मैं खरीदा हुआ गुलाम हूँ; यह जनार्दन दूसरे किसी के हाथ नहीं बिका है–यह मैं तुमसे सच्ची बात कहता हूँ ।’
कृष्णावतार में किस देवता ने लिया कौन-सा अवतार ?
यह प्रसंग अथर्ववेद के श्रीकृष्णोपनिषत् से उल्लखित है । जानते हैं, श्रीकृष्ण के परिकर के रूप में किस देवता ने क्या भूमिका निभाई ?
भगवान का अमोघ अस्त्र : सुदर्शन चक्र
भगवान श्रीकृष्ण का प्रिय आयुध सुदर्शन चक्र अत्यन्त वेगवान व जलती हुई अग्नि की तरह शोभायमान और समस्त शत्रुओं का नाश करने वाला है । सुदर्शन चक्र का ध्यान करने से श्रीकृष्ण की प्राप्ति होती है और हमेशा के लिए भक्तों का भय दूर हो जाता है व जीवन संग्राम में विजय प्राप्त होती है ।
श्रीजीवगोस्वामी विरचित मधुर रस से पूर्ण ‘युगलाष्टक’
श्रीजीवगोस्वामी का श्रीप्रिया-प्रियतम युगलसरकार के चरणों में परम अनुराग था । रामरस अर्थात् श्रृंगाररस के आप उपासक थे । परम वैरागी श्रीजीव गोस्वामी की भक्ति-भावना का कोई पार नहीं है । इनकी सेवा में चारों ओर से अपार धन आता किन्तु वे उस धन को यमुनाजी में फेंक देते थे । श्रीजीव गोस्वामी मूर्धन्य विद्वान समझे जाते थे ।
भगवान विष्णु के चरण-चिह्न और उनका भाव
भगवान के चरणरज की ऐसी महिमा है कि यदि इस मानव शरीर में त्रिभुवन के स्वामी भगवान विष्णु के चरणारविन्दों की धूलि लिपटी हो तो इसमें अगरू, चंदन या अन्य कोई सुगन्ध लगाने की जरूरत नहीं, भगवान के भक्तों की कीर्तिरूपी सुगन्ध तो स्वयं ही सर्वत्र फैल जाती है ।
श्रीकृष्ण की आराधिका श्रीराधा
भगवान प्रेम के भूखे हैं । उनकी एक से दो होने की इच्छा हुई इसलिए भगवान प्रेम-लीला के लिए श्रीराधा और श्रीकृष्ण के रूप में दो हो जाते हैं । वास्तव में श्रीराधा श्रीकृष्ण से अलग नहीं होतीं, श्रीकृष्ण ही प्रेम की वृद्धि के लिए श्रीराधा को अलग करते हैं । दोनों में कोई-छोटा-बड़ा नहीं है । दोनों ही एक-दूसरे के इष्ट और एक-दूसरे के भक्त हैं ।
श्रीराधा ने अपने प्रिय भक्त के लिए जब खीर बनाई
जब भगवान श्रीकृष्ण के प्रेम की लालसा सभी भोगों और वासनाओं को समाप्त कर प्रबल हो जाती है, तभी साधक का व्रज में प्रवेश होता है । यह व्रज भौतिक व्रज नहीं वरन् इसका निर्माण भगवान के दिव्य प्रेम से होता है ।