नंदगांव के पास जंगल में ‘कदम्ब टेर’ नामक स्थान है जो कि कदम्ब के वृक्षों से घिरा है । इस स्थान को ‘टेर कदम्ब’ या कदम्ब टेर’ इसलिए कहते हैं क्योंकि इस स्थान पर भगवान श्रीकृष्ण गायें चराते थे और सायंकाल कदम्ब के वृक्ष पर बैठ कर दूर चरने गई गायों को बुलाने के लिए टेर (आवाज) लगाने के लिए वंशी बजाते थे । 

जहां-जहां भगवान के चरण टिकते हैं, उस-उस भूमि में भगवान का प्रभाव प्रवेश कर जाता है; इसलिए उस भूमि की रज को अत्यन्त पवित्र और कल्याणकारी माना जाता है । श्रीचैतन्य महाप्रभु के शिष्य श्रीरूप गोस्वामी की यह भजनस्थली रही है, यहीं पर उनकी भजन-कुटी है । 

जब भगवान श्रीकृष्ण के प्रेम की लालसा सभी भोगों और वासनाओं को समाप्त कर प्रबल हो जाती है, तभी साधक का व्रज में प्रवेश होता है । यह व्रज भौतिक व्रज नहीं वरन् इसका निर्माण भगवान के दिव्य प्रेम से होता है ।

श्रीरूप गोस्वामी और उनके भाई श्रीसनातन गोस्वामी दोनों पहले बंगाल प्रांत में गौड़ देश के शासक के उच्चाधिकारी थे । हाथी-घोड़े, महल, खजाने, दास-दासियां अपरिमित ऐश्वर्य और संसार के सुख की सभी सामग्री इनको उपलब्ध थी । अपने महान वैभव का इन्होंने उल्टी (वमन) की तरह परित्याग कर वैराग्य धारण किया और व्रज में आकर श्रीराधाकृष्ण के अखण्ड भजन में लग गए ।

एक बार श्रीरूप गोस्वामी नन्दगांव में कदम्ब टेर की अपनी कुटी में भजन कर रहे थे । उसी समय उनके बड़े भाई श्रीसनातन गोस्वामी वृन्दावन से उनसे मिलने आए । बहुत दिनों के बाद दोनों एक-दूसरे से मिले और कुशल-क्षेम पूछा । श्रीरूप गोस्वामी ने देखा कि बड़े भाई बड़े दुर्बल हो गए हैं । श्रीसनातन गोस्वामी कभी भिक्षा मांगते, कभी नहीं मांगते, दिन-रात भजनानन्द में लीन रहते थे ।

श्रीरूप गोस्वामी के मन में विचार आया कि आज बड़े भैया आए हैं, आज मैं अत्यंत स्वादिष्ट खीर का भोग ठाकुरजी को लगाकर वह प्रसाद अपने बड़े भाई को पवाऊंगा (खिलाऊंगा) । किन्तु यहां इस घोर जंगल में दूध, चावल, शक्कर कहां से प्राप्त हो ? श्रीरूपजी का शरीर तो भजन अवस्था में था, नेत्र बन्द, स्थिर आसन परन्तु मन बड़े भाई के आतिथ्य की कल्पनाओं में मग्न था ।

उनके मन में भाई को खीर खिलाने का विचार आते ही उसी समय भक्तों के मनोरथ पूर्ण करने वाली लाड़िलीजी (श्रीराधा) एक बालिका के रूप में खीर का सब सामान—एक पात्र में दूध, चावल, शक्कर ले आईं और दरवाजे से ही आवाज देकर बोलीं—‘रूप बाबा, ओ रूप बाबा ।’

श्रीरूपजी ने अधखुले नेत्रों से पूछा—‘कौन है ?’

मुस्कुराते हुए श्रीराधा ने कहा—‘बाबा ! मैं हूँ, मैया ने आपके लिए दूध भेजा है, साथ में चावल और शक्कर भी है, खीर बना लेना ।’

भजन में विघ्न के भय से श्रीरूपजी ने पूरे नेत्र नहीं खोले इसलिए वे अपनी आराध्या को पहचान नही पाए; किन्तु उनके भजन का सम्पूर्ण फल साक्षात् रूप में उनके सामने खड़ा था । 

श्रीरूप गोस्वामी ने कहा—‘लाली खीर कैसे बनाऊंगा । मेरे पास न अग्नि का साधन है और न ही खीर रखने के लिए कोई बर्तन ।’ (व्रज में छोटी लड़कियों को लाली कहते हैं ।)

श्रीराधा ने कहा—‘बाबा ! मैया ने कहा है कि बाबा यदि भजन कर रहे हों तो तू ही खीर बना देना ।’

श्रीरूप ने कहा—‘अच्छा लाली ! तो बना जा ।’

श्रीराधा ने बिना अग्नि के ही खीर बना दी और कदम्ब के पत्ते दोने बना दिए । उन दोनों में खीर रखकर वे चली गयीं ।

कदम्ब के पत्तों के दोने में उस खीर का श्रीरूप गोस्वामी ने ठाकुरजी का भोग लगाया । थोड़ी ही देर में बड़े भाई श्रीसनातन गोस्वामी भी अपना नित्य नियम का भजन पूरा करके आ गये ।

श्रीरूप ने अपने बड़े भाई श्रीसनातन गोस्वामी को खीर का प्रसाद दिया । जैसे ही उन्होंने वह खीर मुंह से लगाई तो उन्हें प्रेम का नशा सा छा गया और वे प्रेम-मूर्च्छा में चले गए ।

श्रीरूप बोले—‘भैया भैया !’

भगवान की दृष्टि जहां पड़ती है, वहां सब वस्तुएं दिव्य और अलौकिक हो जाती हैं और भगवान के स्पर्श से वह भोजन दिव्य, अलौकिक, रसमय और परम मधुर हो जाता है । उस भोजन को करने से सारे शरीर में ऐसी प्रसन्नता, आनन्द और तृप्ति आ जाती है जिसका कि कोई ठिकाना नही ।

श्रीसनातन ने पूछा—‘यह खीर कहां से आई है ? इसमें तो अलौकिक स्वाद है ।’

श्रीरूप गोस्वामी ने कहा—‘भैया ! आज आपको खीर खिलाने की इच्छा हुई, तभी एक छोटी बालिका खीर का सब सामान लेकर आई और स्वयं अपने हाथों से खीर बना कर रख गई है ।’

श्रीसनातनजी समझ गए कि श्रीराधा ही भक्त की इच्छा पूर्ण करने के लिए स्वयं सामान लाईं और खीर बनाने में कष्ट उठाया । 

वे फफक-फफक कर रोने लगे । श्रीसनातन गोस्वामी ने श्रीरूप गोस्वामी से कहा—‘मेरी इस बात को दृढ़तापूर्वक हृदय में धारण कर लो और अब पुन: ऐसी इच्छा कभी मत करना । इस तुच्छ शरीर के लिए तुमने कामना की और अपने इष्ट को कष्ट दिया । आगे से तुम अपनी वैराग्य की चाल से ही चलना ।’ 

अपनी आराध्या श्रीराधा को कष्ट देने के कारण दोनों भाइयों की आंखों से प्रेमाश्रु बहने लगे ।

कदम्ब टेर के मन्दिर में आज भी खीर का प्रसाद मिलता है और कदम्ब के वृक्षों पर आज भी इक्का-दुक्का दोने दिखाई पड़ जाते हैं जिन्हें पुजारी मन्दिर में संजो कर रखते हैं ।

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