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भगवान के भक्त भगवान से भी अद्भुत होते हैं । भीष्म पितामह ने अपने आराध्य श्रीकृष्ण का पूजन बाणों से किया, जब वह अर्जुन के रथ पर बैठे थे; ऐसा ही प्रसंग भक्त-श्रेष्ठ सुधन्वा का है, जिससे अर्जुन को बचाने के लिए भगवान श्रीकृष्ण ने अपने समस्त पुण्य अर्पित कर दिए ।

महाभारत युद्ध के बाद सम्राट युधिष्ठिर के अश्वमेध यज्ञ का घोड़ा चम्पकपुरी राज्य की सीमा में पहुंचा । इस अश्व की रक्षा कर रहे थे श्रीकृष्ण के बाह्य-प्राण अर्जुन और उनके सबसे बड़े पुत्र प्रद्युम्न । विशाल पाण्डव और यादव सेना भी साथ में थी । चम्पकपुरी बड़ा ही धर्मनिष्ठ राज्य था जिसका प्रत्येक नागरिक एकपत्नी-व्रती, व भगवद्भक्त था । चम्पकपुरी के महाराज हंसध्वज ने अश्वमेध-यज्ञ के घोड़े को पकड़कर बांधने की आज्ञा दे दी । महाराज हंसध्वज ने सोचा कि मैं वृद्ध हो गया हूँ किन्तु अभी तक मेरे नेत्रों को श्रीकृष्ण के दर्शन का सौभाग्य प्राप्त नहीं हुआ है । यह अश्व रोका जाएगा तो अपने प्रियजन पाण्डव व यादवों के प्राण बचाने श्रीकृष्ण अवश्य आएंगे और मैं उनका दर्शन करुंगा ।

राजा के गुरु थे—शंख और लिखित मुनि । उन्होंने घोषणा कर दी कि कल प्रात:काल निर्धारित समय पर जो रणभूमि में नहीं पहुंचेगा उसे खौलते तेल के कड़ाहे में डाल दिया जाएगा ।

श्रीकृष्ण के चरणों में प्राणार्पण करने का सौभाग्य जीवन में बार-बार नहीं मिलता इसलिए राजा हंसध्वज उनके चारों पुत्र और राज्य के समस्त युवक व वृद्धजन कवच पहन कर युद्धभूमि में पहुंच गए ।

राजा के नेत्र यह देखकर अंगार हो गए कि युद्धभूमि में उनके सबसे छोटे पुत्र सुधन्वा का कहीं पता नहीं था । उसकी खोज के लिए सैनिक भेजे गए ।

भगवान के परम भक्त सुधन्वा

रणभूमि में समय पर न पहुंच पाने में राजा हंसध्वज के पांचवे व सबसे छोटे पुत्र सुधन्वा का कोई दोष नहीं था । युद्ध की घोषणा होने पर जब वह माता के पास आज्ञा लेने पहुंचे तो मां ने कहा—‘यदि तू अर्जुन को युद्ध में छका सके तो श्रीकृष्ण उसकी रक्षा के लिए अवश्य आएंगे । उनको देखकर तू डरना मत । श्रीकृष्ण के सामने युद्ध में मरने वाला मरता नहीं है, वह तो अपनी इक्कीस पीढ़ियों को तार देता है । यदि तुझे उनके सम्मुख वीर गति प्राप्त होगी तो मुझे सच्ची प्रसन्नता होगी ।’

इसके बाद जब सुधन्वा अपनी नव-विवाहिता पत्नी प्रभावती के पास युद्ध में जाने की आज्ञा लेने गए तो उनकी पत्नी ने कहा—‘मैं जानती हूँ कि श्रीकृष्ण के समीप जाकर कोई इस संसार में लौटता नहीं; परन्तु आपके चले जाने पर एक अंजलि देने वाला पुत्र रहना चाहिए ।’ 

प्रभावती का हृदय जान रहा था कि उसे पति का दर्शन पुन: नहीं होने वाला है । पत्नी का धर्मसंगत आग्रह सुधन्वा को मानना पड़ा । वहां से स्नान कर कवच धारण कर जब वे चले तो रास्ते में उन्हें सैनिक मिल गए और वे उन्हें पकड़ कर युद्धभूमि में ले आए ।

राजा हंसध्वज को जब सुधन्वा के देरी से आने का कारण पता चला तो वे क्रोधित होकर बोले—‘श्रीकृष्ण का पावन नाम सुन कर भी तू काम के वश हो गया, तुझ जैसे कुपुत्र का तो उबलते तेल में जल मरना ही उचित है ।’

तेल का कड़ाह अग्नि पर चढ़ा दिया गया; किन्तु सुधन्वा को पकड़कर किसी को कड़ाहे में डालना नहीं पड़ा । सत्पुत्र स्वयं पिता की आज्ञा का पालन करना अपना कर्तव्य मानता है । 

सुधन्वा ने गले में तुलसी की माला धारण की और हाथ जोड़ कर प्रार्थना करने लगा—‘गोविन्द ! मुझे देह का मोह नहीं है, बस एक ही दु:ख है कि आपके श्रीचरणों का प्रत्यक्ष दर्शन नहीं हुआ । लोग कहेंगे कि सुधन्वा तेल में उबल कर मरा । मुझे अग्निदाह से बचाइए और इस देह को अपने श्रीचरणों में गिरने दीजिए ।’

ये स्मरन्ति च गोविन्दं सर्वकामफलप्रदम् ।
तापत्रय विनिर्मुक्ता जायन्ते दु:खवर्जिता: ।।

अर्थात्—जो लोग समस्त कामनाओं को पूर्ण करने वाले, समस्त फलों के दाता गोविन्द का स्मरण करते हैं, वे तीनों तापों से छूट कर सदा के लिए दु:खरहित हो जाते हैं ।

भक्त सुधन्वा जिसके लिए खौलता तेल भी शीतल हो गया

‘श्रीकृष्ण ! गोविन्द !’ इस प्रकार भगवन्नामों को पुकारते हुए सुधन्वा खौलते तेल के कड़ाहे में कूद गया । कोई आर्त हृदय से पुकारे और वह मोरमकुट वाला न सुने, ऐसा तो कभी हो नहीं सकता । प्रह्लाद के लिए उसने अग्नि शीतल की । द्वापर में दो बार दावाग्नि का पान किया । तो क्या आश्चर्य कि सुधन्वा के लिए आज खौलता तेल शीतल हो गया । 

सुधन्वा को तो शरीर का भान ही नहीं था, वह तो खौलते तेल में तैर रहे हैं और उनका एक रोम भी न झुलसा; यह देखकर सभी को संदेह हुआ कि कहीं इसने कोई मंत्र या औषधि का प्रयोग तो नहीं किया या तेल गरम है भी या नहीं ! यह जानने के लिए पुरोहितों ने एक नारियल तेल में डलवाया । तेल में गिरते ही नारियल तड़ाक् से फूटा और उसके दो टुकड़े हो गए । दोनों टुकड़े उछलकर राजा के पुरोहित शंख व लिखित के सिर पर जाकर तेजी से लगे । तब जाकर उन्हें बुद्धि आई कि हमने एक सच्चे भगवद्भक्त पर संदेह किया । 

सुधन्वा को तेल से निकाला गया । प्रायश्चित करने के लिए शंख मुनि उसी उबलते हुए तेल के कड़ाहे में कूद पड़े; किन्तु सुधन्वा के प्रभाव से उनके लिए भी तेल शीतल हो गया । मुनि ने सुधन्वा को गले से लगा लिया । तब मुनि के साथ सुधन्वा तेल के कड़ाहे से बाहर आए ।

राजा ने सुधन्वा से कहा—‘श्रीकृष्ण जिसके रथ का सारथ्य करते हैं, उन गाण्डीवधारी अर्जुन को तुम्हीं संतुष्ट कर सकते हो; अत: तुम्हीं सेना का नेतृत्व करो ।’ 

पिता को प्रणाम कर सुधन्वा युद्ध के लिए चल दिए । सेनापति सुधन्वा के नेतृत्व में चम्पकपुरी की सेना का पाण्डव सेना के साथ घोर युद्ध हुआ । पाण्डव सेना में हाहाकार मच गया । अंत में अर्जुन को युद्ध के लिए आना पड़ा । 

अर्जुन को उत्तेजित करते हुए सुधन्वा ने कहा—‘श्रीकृष्ण आपके रथ के सारथी हैं; इसलिए आप विजयी होते हैं । आपने अपने सारथि को आज कहां छोड़ दिया ! कहीं मेरे साथ युद्ध करने के कारण ही तो उन्होंने आपका साथ नहीं छोड़ दिया है ? गोविन्द के बिना आप मुझसे युद्ध कर सकेंगे ?’

सुधन्वा ने ऐसी बाणों की वर्षा की कि अर्जुन घायल हो गए और उनका सारथी मारा गया । अब सुधन्वा ने अर्जुन को ललकारते हुए कहा—‘युद्ध से भागना नहीं, अपने सर्व-समर्थ नित्य सारथि (श्रीकृष्ण) का स्मरण कर उन्हें बुला लीजिए ।’

अर्जुन ने श्रीकृष्ण का स्मरण किया, श्रीकृष्ण को कहीं से आना तो था नहीं, वे तुरंत प्रकट हो गए और रथ की डोरी संभाल ली । सुधन्वा और अर्जुन ने उन्हें एक साथ प्रणाम किया । सुधन्वा ने अर्जुन को जिस लिए युद्ध में संत्रस्त किया था, उसका वह उद्देश्य पूरा हो गया । मोरमुकुटधारी कमललोचन गोविन्द सामने आ गए, सुधन्वा धन्य हो गया । 

सुधन्वा का लक्ष्य तो श्रीकृष्ण के चरणों में वीर गति प्राप्त करना था, इसके लिए जानते हैं उसने क्या रणनीति बनाई ?

अब सुधन्वा ने अर्जुन को फिर ललकारा—‘अब तो त्रिभुवननाथ आपके सारथी हो गए हैं, अब मुझ पर विजय पाने के लिए कोई प्रतिज्ञा कीजिए ।’ 

क्रोध में कांपते हुए अर्जुन ने प्रतिज्ञा की—‘मेरे पूर्वज पुण्यहीन होकर नरक में जाएं, यदि इन तीन बाणों से मैं सुधन्वा का मस्तक न काट दूँ ।’

सुधन्वा ने हंसते हुए कहा—‘जिसके रथ पर श्रीकृष्ण सारथी हैं, विजय तो उसकी निश्चित है; लेकिन मैं भी इनके चरणों में प्रतिज्ञा करता हूँ कि यदि आपके इन तीन बाणों को न काट दूँ तो मुझे अधम गति प्राप्त हो ।’ 

प्रतिज्ञा करते ही सुधन्वा ने बाणों की झड़ी लगा दी जिससे अर्जुन के रथ ‘नंदीघोष’ का एक अंश टूट गया और वह कुम्हार के चाक की तरह घूमने लगा । श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा—‘मुझसे पूछे बिना तुमने प्रतिज्ञा करके अच्छा नहीं किया । इस राज्य में सब एकपत्नी-व्रती हैं । इस व्रत के प्रभाव से सुधन्वा महान् हैं और इस विषय में हम दोनों ही कमजोर हैं (श्रीकृष्ण की सोलह हजार एक सौ आठ रानियां व अर्जुन की दो पत्नियां थीं ।) अर्जुन ने कहा—‘आप जब तक साथ हैं, तब तक मुझ पर कोई संकट नहीं आ सकता ।’ 

सुधन्वा से अर्जुन की रक्षा के लिए श्रीकृष्ण ने अर्पण किए अपने पुण्य

जैसे ही अर्जुन ने पहला बाण चढ़ाया, ‘मेरे गोवर्धन धारण का पुण्य इस बाण के साथ’ कह कर श्रीकृष्ण ने अर्जुन के बाण को शक्ति प्रदान की । किन्तु सुधन्वा ने ‘गिरिधारी प्रभु की जय !’ कह कर बाण चला दिया और अर्जुन के पहले बाण के दो टुकड़े कर दिए । आकाश में देवता आश्चर्य में पड़ गए ।

जैसे ही अर्जुन ने दूसरा बाण संधान किया, श्रीकृष्ण ने कहा—‘मेरे अनेकानेक पुण्य मैंने इस बाण को अर्पित किए ।’ ‘श्रीकृष्णचन्द्र की जय !’ कह कर सुधन्वा ने दूसरा बाण चलाया और अर्जुन के दूसरे बाण को भी निष्फल कर दिया ।

अर्जुन के तीसरे बाण को श्रीकृष्ण ने अपने रामावतार का पूरा पुण्य दे दिया । बाण की पूंछ पर ब्रह्माजी को और मध्य में काल को बिठाया और बाण के अग्र भाग पर स्वयं विराजमान हो गए ।

सुधन्वा ने नतमस्तक होते हुए कहा—‘मेरे स्वामी ! मैं जान गया कि आप स्वयं मेरा वध करने, मेरे कण्ठ का स्पर्श करके मुझे धन्य करने बाण पर बैठ कर आ रहे हैं । आओ नाथ ! मुझे कृतार्थ करो । अर्जुन, त्रिभुवनपति श्रीकृष्ण तुम्हारे बाण को शक्ति देने के लिए केवल अपना पुण्य ही नहीं देते, उस पर स्वयं आरुढ़ होते हैं; अत: विजय तो निश्चित ही तुम्हारी है; लेकिन श्रीकृष्ण-कृपा से मैं भी तुम्हारे इस बाण को अवश्य काट दूंगा ।’

अर्जुन का तीसरा बाण छूटा तो ‘भक्तवत्सल भगवान की जय !’ कह कर सुधन्वा ने भी बाण छोड़ दिया । काल की भी शक्ति नहीं थी कि वह भक्त के प्रभाव को रोक लेते । अर्जुन का बाण ठीक बीच में से कट कर दो टुकड़े हो गया ।

सुधन्वा की प्रतिज्ञा पूरी हुई । अब भगवान को अर्जुन का प्रण पूरा करना था । कटे बाण का अग्रभाग गिरा नहीं उसने सुधन्वा का मस्तक काट दिया । मस्तकहीन सुधन्वा के शरीर ने पाण्डव सेना को तहस-नहस कर दिया ।

सुधन्वा का कटा मस्तक ‘गोविन्द ! मुकुन्द ! हरि !’ पुकारता हुआ श्रीकृष्ण के चरणों पर जा गिरा । श्रीकृष्ण ने झट से उस सिर को दोनों हाथों में उठा लिया । उसी समय उस मुख से एक ज्योति निकली और सबके देखते श्रीकृष्ण के श्रीमुख में लीन हो गई । भक्तवत्सल भगवान ने अपने दोनों भक्तों की प्रतिज्ञाएं पूरी कीं ।

‘जिस भक्ति में आराध्य के अतिरिक्त किसी अन्य की अभिलाषा न हो, जो ज्ञान और कर्म से न बंधी हो और जिसमें कृष्ण की अनुकूलता प्राप्त करते हुए उनका चिंतन और मनन किया जाए, वही उत्तम भक्ति है ।’

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