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चिंता और शोक से मुक्ति के लिए गीता के कुछ सिद्ध...

भगवान ही शान्ति का आगार है और कोई नहीं, उन्हीं के शरण में जाने से ही परम शान्ति मिलती है, मिल सकती है, धन-वैभव से शान्ति नहीं मिल सकती । विद्या से भी शान्ति नहीं मिलती। वह तो उसकी शरण में जाने से ही मिलेगी ।

भगवान श्रीकृष्ण के अनन्य भक्तों की प्रार्थनाएं

भगवान के अनन्य भक्त भगवान को पाने की ही प्रार्थना करते हैं । परमात्मा के बिछोह में भक्त की तड़पन पर जो कुछ उनके हृदय से निकलता है, वही सच्ची प्रार्थना है और वही भगवान के प्रेम की प्राप्ति का उपाय है ।

भगवान श्रीकृष्ण ने गीता का उपदेश क्यों किया ?

श्रीमद्भगवद्गीता एक अलौकिक ग्रन्थ है, जिसमें बहुत ही विलक्षण भाव भरे हुए हैं । गीता का आशय खोजने के लिए जितना प्रयत्न किया गया है, उतना किसी दूसरे ग्रन्थ के लिए नहीं किया गया है, फिर भी इसकी गहराई का पता नहीं चल पाया है; क्योंकि इसका वास्तविक अर्थ तो केवल भगवान श्रीकृष्ण ही जानते हैं ।

श्रीकृष्ण की दास्य-भक्ति प्रदान करने वाला श्रीराधा स्तोत्र

श्रीकृष्ण जिनकी आराधना करते हैं, वे राधा हैं तथा जो सदैव श्रीकृष्ण की आराधना करती हैं, वे राधिका कहलाती हैं। ब्रह्माण्डपुराण में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है--’राधा की आत्मा सदा मैं श्रीकृष्ण हूँ और मेरी आत्मा निश्चय ही राधा हैं । श्रीराधा वृन्दावन की ईश्वरी हैं, इस कारण मैं राधा की ही आराधना करता हूँ ।’ इसीलिए श्रीराधा की प्रेम और श्रद्धापूर्वक की गंई उपासना से श्रीकृष्ण की दास्य-भक्ति प्राप्त हो जाती है ।

भक्त के प्रेम में भगवान बन गए तराजू का बाट

भगवान का दूसरा नाम प्रेम है और वे प्रेम के अधीन हैं । वे प्रेम के अतिरिक्त अन्य किसी साधन से नहीं रीझते हैं । प्रेमवश वह कुछ भी कर सकते हैं, कहीं भी सहज उपलब्ध हो सकते हैं । तुच्छ-से-तुच्छ मनुष्य के हृदय में भी यदि भगवान के प्रति प्रेम और भक्ति आ जाए तो भक्ति की प्रेम-डोर से बंध कर भगवान उसके घर तक पहुँच जाते हैं और उसके पीछे-पीछे डोलते हैं ।

भगवान श्रीकृष्ण का ‘मुरारी’ नाम कैसे पड़ा ?

श्रीकृष्ण के नामकरण संस्कार में गर्गाचार्यजी ने यशोदा माता और नंदबाबा से कहा था कि—‘यह बालक नारायण ही है और यह युग-युग में रंग परिवर्तित करता है । सत्य युग में यह श्वेत वर्ण का और त्रेता युग में रक्त वर्ण का था; किंतु इस समय द्वापर युग में यह मेघश्याम रूप धारण करके आया है । अत: इसका नाम अब ‘कृष्ण’ होगा ।’ यशोदा माता ने गोपियों को यह बात बता दी थी; इसलिए गोपियां वेणुगीत में श्रीकृष्ण को मुरारी नाम से सम्बोधित करती हैं ।

भगवान श्रीकृष्ण द्वारा रुक्मिणीजी का गर्व-हरण

भगवान का स्वभाव है कि वे भक्त में अभिमान नहीं रहने देते; क्योंकि अभिमान जन्म-मरण रूप संसार का मूल है और अनेक प्रकार के क्लेशों और शोक को देने वाला है । भगवान अहंकार को शीघ्र ही मिटाकर भक्त का हृदय निर्मल कर देते हैं । उस समय थोड़ा कष्ट महसूस होता है; लेकिन बाद में उसमें भगवान की करुणा ही दिखाई देती है ।

भगवान श्रीकृष्ण की दिव्य विभूतियां

गीता के दसवें अध्याय में भगवान की विभूतियों का बड़ा ही रोचक वर्णन किया गया है; किन्तु श्रीकृष्ण स्वयं अर्जुन से कहते हैं--’मेरी विभूतियों का अन्त नहीं है, यह तो मैंने तेरे लिए संक्षेप में कहा है’ (गीता १०।१९)।

भगवान श्रीकृष्ण की गो-सेवा

गोकुलेश गोविन्द प्रभु, त्रिभुवन के प्रतिपाल।गो-गोवर्धन-हेतु हरि, आपु बने गोपाल।।द्वापर में दुइ काज-हित, लियौ प्रभुहि अवतार।इक गो-सेवा, दूसरौ भूतल कौं उद्धार।। (श्रीराधाकृष्णजी...

भगवान श्रीकृष्ण द्वारा उद्धवजी को ज्ञानोपदेश

उद्धवजी ने भगवान से कहा—‘आपने थोड़े समय में मुझे अच्छा ज्ञान दिया है । मैं आपकी शरण में हूँ, मैं भी आपके साथ आपके धाम चलूंगा ।’ भगवान ने कहा—‘उद्धव ! तेरे हृदय में मैं चैतन्य रूप से स्थित हूँ । तू मेरा जहां ध्यान करेगा, वहीं मैं प्रकट हो जाऊंगा । तू यह भावना रखना कि श्रीकृष्ण मेरे साथ ही हैं ।’ भगवान अपनी चरण-पादुका उद्धवजी को देकर स्वधाम पधार गए ।