mirabai praying to bhagwan krishna

प्रार्थना द्वारा हम ईश्वर से सम्पर्क स्थापित करते हैं; इसलिए प्रार्थना भगवान और मनुष्य के बीच विश्वास भरी बातचीत है । अधिकांश लोग भिखारियों की तरह से प्रार्थना किया करते हैं और भगवान के समक्ष अपने अभावों का रोना रोते रहते हैं । प्रार्थना करना भगवान से याचना करना नहीं है; वह तो आत्मा की पुकार है । 

भगवान के अनन्य भक्त भगवान को पाने की ही प्रार्थना करते हैं । परमात्मा के बिछोह में भक्त की तड़पन पर जो कुछ उनके हृदय से निकलता है, वही सच्ची प्रार्थना है और वही भगवान के प्रेम की प्राप्ति का उपाय है । जैसे किसी भक्त की पुकार कितनी सच्ची है—

आओ प्यारे मोहना ! पलक झांपि तोहि लेउँ ।
ना मैं देखौं और कों, ना तोहि देखन देउँ ।।

ऐसी प्रार्थना पर भगवान भी रीझ जाते हैं । भगवान श्रीकृष्ण उद्धव से कहते हैं–’मैं तो आत्मसमर्पण करने वाले भक्तों के हाथ बिक जाता हूँ, उनका क्रीतदास हो जाता हूँ ।’

मनुष्य को भगवान का प्रेम प्राप्त करने के लिए कैसी प्रार्थना करनी चाहिए, यह जानने के लिए कुछ प्रेमी भक्तों की प्रार्थनाएं इस पोस्ट में दी जा रही हैं—

मीराबाई की प्रार्थना

कृष्णभक्ति की विरहहाग्नि में विदग्ध व्यक्तित्त्व का नाम है मीरा । मीरा की उपासना में तन्मयता, वेदना और हृदय की सच्ची पुकार है । जब श्रीकृष्ण विरह की मर्मान्तक पीड़ा संगीत की तानों में भी संभाले न संभलती तो वीणा की मादकता में मीरा गा उठतीं–

एक मोहन ही मेरा घर बार भी आराम भी ।
मेरी दुनियाँ की सुबह और मेरे जग की शाम भी ।।

राज औ सरताज मोहन के सिवा कोई नहीं ।
वैद्य मेरे रोग का मोहन सिवा कोई नहीं ।।

एक दिन प्रेम साधना करते समय वो गा उठीं–

तुम्हरे कारण सब सुख छोड्या अब मोहिं कयूँ तरसावौ हौ ।
बिरह-बिथा लागी उर अंतर सो तुम आय बुझावौ हौ ।।

अब छोड़त नहिं बणै प्रभूजी हँसकर तुरत बुलावौ हौ ।
मीरा दासी जनम-जनम की अंग से अंग लगावौ हौ ।।

ऐसी प्रेम साधना में निमग्न होकर मीरा ‘साईं की सेज’ का सुख पा सकी, प्रेम का अमृत पी सकीं ।

बिल्वमंगल की प्रार्थना

भगवान प्रेम के अधीन हैं । प्रेमियों को सुख देने तथा उनके साथ प्रेममयी लीलाएं करने में ही उनको आनन्द मिलता है । भगवान की इस प्रेम परवशता को बताते हुए भक्त बिल्वमंगल कहते हैं कि—‘मुझ निर्बल का हाथ छुड़ा कर जाना तो तुम्हारे लिए बहुत आसान है; परन्तु मेरे हृदय से निकल कर दिखाओ, तब तुम्हें सबल जानूंगा ।’

हाथ छुड़ाये जात हौ, निबल जानि कै मोहि ।
हिरदै तें जब जाहुगे, सबल बदौंगो तोहि ।।

सूरदासजी की प्रार्थना

अपनी भगति दे भगवान ।
कोटि लालच जो दिखावहु, नाहिनै रुचि आन ।।

अर्थात्—भगवन् ! मुझे आप अपनी भक्ति दीजिए । आप मुझे करोड़ों प्रकार के लालच दिखाते हो; परन्तु वे मुझे एक भी नहीं भाते हैं ।

कबीर की प्रार्थना

कबीर भगवान से प्रार्थना करते हैं कि मेरा फकीर मन तो तेरे से लग गया है, तुम्हारी नाम-साधना में जो सुख है वह अमीरी में भी नहीं है ।

मन लागो मेरो यार फकीरी में । जो सुख पावों नाम-भजन में सो सुख नाहिं अमीरी में ।।

श्रीकृष्ण-भक्त रसखान की प्रार्थना

रसखान दिल्ली के शाही बादशाही वंश के थे; परन्तु श्रीकृष्ण-प्रेम में शाही ठसक छोड़ कर व्रजवासी बन गए । श्रीकृष्ण का कृपा-हस्त पकड़ कर अंत तक उन्हीं के साथ हास-विलास करते रहे । उनकी मस्ती और माधुर्यपूर्ण प्रार्थना का एक उदाहरण है–

मानुष हौं तो वही रसखानि,
बसौं ब्रज गोकुल गाँव के ग्वारन ।
जो पसु हौं तो कहा बसु मेरो,
चरौं नित नन्दकी धेनु मँझारन ।।
पाहन हौं तो वही गिरिकौ,
जो धर्यौ कर छत्र पुरन्दर-धारन ।
जो खग हौं तो बसेरो करौ,
मिलि कालिंदी-कूल-कदंबकी डारन ।।

दयाबाई की विरह-वेदनायुक्त मर्मस्पर्शी प्रार्थना

दयाबाई कितने करुण-कण्ठ से भगवान से प्रार्थना कर रही हैं–

जनम जनमके बीछुरे, हरि अब रह्यो न जाय ।
क्यों मनकूँ दुख देत हौ, बिरह तपाय तपाय ।।
बौरी ह्वै चितवत फिरूँ, हरि आवैं केहि ओर ।
छिन उठूँ छिन गिरि परूँ, राम दुखी मन मोर ।।

हे हरि ! अनेक जन्मों से मैं तुमसे बिछुड़ गई हूँ, पर अब तुम्हारे विरह की तपन सही नहीं जाती, क्यों मेरे मन को दु:ख देते हो ? तुम किधर से आ रहे हो, यह देखने के लिए मैं पागलों की तरह सब तरफ देखती रहती हूँ और इस कारण बार-बार कभी गिरती हूँ फिर उठती हूँ । मेरा मन बहुत दु:खी है ।

ब्रह्माजी की प्रार्थना

‘हे प्रभो ! मुझे ऐसा सौभाग्य प्राप्त हो कि मैं इस जन्म में अथवा किसी तिर्यक्-योनि (कीट-पतंग की योनि) में ही जन्म लेकर आपके दासों में से एक होऊँ, जिससे आपके चरण-कमलों की सेवा कर सकूँ । अहो ! व्रजवासी धन्य हैं, जिनके मित्र (सुहद्) परमानन्दरूप पूर्णब्रह्म स्वयं आप हैं । इस धरातल पर व्रज में और उसमें भी गोकुल में किसी कीड़े-मकोड़े की योनि पाना ही परम सौभाग्य है, जिससे कभी किसी व्रजवासी की चरणरज से मस्तक को अभिषिक्त होने का सौभाग्य मिले ।’

जिन व्रजवासियों की चरण-धूलि को ब्रह्माजी चाहते हैं, उनका कितना बड़ा महत्त्व है । ये व्रजवासीगण मुक्ति के अधिकार को ठुकराकर उससे बहुत आगे बढ़ गये हैं ।

भगवान श्रीकृष्ण के परम प्रिय सखा उद्धवजी की प्रार्थना

श्रीउद्धवजी भगवान के स्वधाम गमन के समय उनसे प्रार्थना करते हैं–‘हे स्वामिन् ! आप हमारा परित्याग मत करें । हम आपके प्रेमी भक्त हैं, हम आपके बिना कैसे रहेंगे ? हे प्रभो ! हमें यह भय नहीं है कि आपके न रहने पर हम माया से मोहित हो जायेगे; क्योंकि आपकी माया को हम जीतने में समर्थ हैं । इसका आशय यह नहीं है कि हमें अपनी साधना का अभिमान है । हे अच्युत ! हमें तो आपके जूठन का अभिमान है, आपके दासत्व का अभिमान है । हमने आपकी धारण की हुई माला पहनी, आपके लगाये हुए चंदन लगाये, आपके उतारे हुए वस्त्र पहने और आपके धारण किए हुए गहनों से अपने-आपको सजाते रहे । हम आपकी जूठन खाने वाले दास हैं, अत: माया पर अवश्य ही विजय प्राप्त कर लेंगे । हमें तो एकमात्र आपके दु:सह वियोग का भय है ।’

माता कुन्ती की अनुपम प्रार्थना

महारानी कुन्ती भगवान श्रीकृष्ण की बुआ थीं । उनका जीवन सदा विपत्ति में ही गुजरा । इस विपत्ति में भी उन्हें सुख था । उनका मानना था–’भगवान का विस्मरण होना ही विपत्ति है और उनका स्मरण बना रहे, यही सबसे बड़ी सम्पत्ति है ।’ उन्हें भगवान श्रीकृष्ण का कभी विस्मरण हुआ ही नहीं, अत: वे सदा सुख में ही रहीं ।

कुन्तीजी भगवान से प्रार्थना करती हैं–’हे जगद्गुरो ! हम पर सदा विपत्तियां ही आती रहें, क्योंकि आपके दर्शन विपत्ति में ही होते हैं और आपके दर्शन होने पर फिर इस संसार के दर्शन नहीं होते और मनुष्य आवागमन से रहित हो जाता है।’ (श्रीमद्भा. १।८।२५)

भीष्मपितामह की स्तुति

श्रीमद्भागवत में पितामह भीष्म द्वारा अंत समय में भगवान की जो स्तुति की गयी है, वह याद रखने योग्य है । उसके कुछ अंश इस प्रकार हैं–

‘युद्ध में घोड़ों की टापों से उड़ी हुई रज से धूसरित तथा चारों ओर छिटकी हुई अलकों वाले, परिश्रमजन्य पसीने की बूँदों से सुशोभित मुख वाले और मेरे तीक्ष्ण बाणों से विदीर्ण हुई त्वचा वाले, सुन्दर कवचधारी श्रीकृष्ण मेरी आत्मा में प्रवेश करें ।’

‘मेरी प्रतिज्ञा को सत्य करने के लिए अपनी प्रतिज्ञा छोड़ कर रथ से उतर पड़े और सिंह जैसे हाथी को मारने के लिए दौड़ता है; उसी तरह चक्र को लेकर पृथ्वी कंपाते श्रीकृष्ण मेरी ओर दौड़े । उस समय शीघ्रता के कारण उनका दुपट्टा गिर पड़ा था । मुझ आतातायी के तीक्ष्ण बाणों से विदीर्ण होकर फटे हुए कवच वाले घाव और रूधिर से सने हुए जो भगवान मुकुन्द मुझे हठपूर्वक मारने को दौड़े, वे मेरी गति हों ।’

ऐसी अनोखी अनुपम आराधना संसार में अन्य किसी के द्वारा नहीं की गई है।

श्रीचैतन्य महाप्रभु की दास्य-भक्ति प्रार्थना

दास्यभक्ति के समान कोई सुख नहीं है, इसकी तुलना में अन्य सुख व्यर्थ हैं । श्रीचैतन्य महाप्रभु अपने को संसारी जीव मानते हुए श्रीकृष्ण से दास्य भक्ति की प्रार्थना इस प्रकार करते हैं–

धन जन नाहिं मांगो कविता सुन्दरी ।
शुद्ध भक्ति देह मोरे कृष्ण कृपा करि ।।
अति दैन्य पुन: माँगो दास्य भक्ति दाना ।
आपनाके करे संसारी जीवन अभिमाने ।। (श्रीश्रीचैतन्यचरितामृत)

वृत्रासुर की प्रार्थना

वृत्रासुर ने भगवान को प्रत्यक्ष अनुभव करते हुए प्रार्थना की–‘जैसे पक्षियों के पंख-विहीन बच्चे अपनी मां की राह देखते रहते हैं, जैसे भूखे बछड़े अपनी माँ का दूध पीने के लिए व्याकुल हो उठते हैं और सबसे ऊपर जैसे वियोगिनी प्रेमिका अपने प्रियतम से मिलने के लिए बेचैन हो उठती है; वैसे ही हे कमलनयन ! रमणीयता की मूर्ति, सर्व सौभाग्यनिधि परमात्मन् ! तुम्हें देखने के लिए मेरे नेत्र छटपटा रहे हैं ।’ (श्रीमद्भा. ६।११।२६)

भगवान से हमारा रिश्ता दुतरफा है । हम उनका जिस प्रकार और जैसा भजन-ध्यान करते हैं, वैसा ही वे हमारा ध्यान-भजन करते हैं । श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है–

‘ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम् ।’ (४।११)

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