krishna and rukmani

अहंकार या अभिमान एक ऐसी छाया है जो व्यक्ति को अपने घेरे में बहुत ही आसानी से ले लेता है; लेकिन भगवान का स्वभाव है कि वे भक्त में अभिमान नहीं रहने देते हैं । अभिमान जन्म-मरण रूप संसार का मूल है और अनेक प्रकार के क्लेशों और शोक को देने वाला है । भगवान अहंकार को शीघ्र ही मिटाकर भक्त का हृदय निर्मल कर देते हैं । उस समय थोड़ा कष्ट महसूस होता है; लेकिन बाद में उसमें भगवान की करुणा ही दिखाई देती है । 

तुलसीदासजी (राचमा, उत्तरकाण्ड ७।७४।५-६) में कहते हैं–

सुनहु राम कर सहज सुभाऊ ।
जन अभिमान न राखहिं काऊ ।।
संसृत मूल सूलप्रद नाना ।
सकल सोक दायक अभिमाना ।।

भगवान श्रीकृष्ण द्वारा रुक्मिणीजी का गर्व-हरण

एक बार ग्रीष्म ऋतु में भगवान श्रीकृष्ण अंत:पुर में शय्या पर लेटे हुए थे और रुक्मिणीजी रत्नजड़ित पंखा झल रही थीं । रुक्मिणीजी श्रीकृष्ण की सेवा कर रही थीं; लेकिन मन-ही-मन सोच रही थीं कि वह सबसे सुन्दर हैं; इसीलिए श्रीकृष्ण उनमें सबसे ज्यादा आसक्त हैं, सबसे अधिक प्रेम करते हैं, वे उनके अधीन हैं ।

भगवान की सेवा करते समय मन सेव्य (आराध्य) में ही लगा रहना चाहिए

रुक्मिणीजी सेवा तो श्रीकृष्ण की कर रही थीं; किन्तु उनका मन अपने सौंदर्य के अभिमान में फंसा हुआ था । अपने सौंदर्य के प्रति उनके मन में अभिमान आया तो भगवान की सेवा में विघ्न हो गया ।

संसार में हर व्यक्ति अपनी तारीफ चाहता है । मनुष्य जब अच्छे कपड़े पहनता है, श्रृंगार आदि करता है तो यही सोचता है कि हम जंच रहे हैं या नहीं, दूसरा कोई देखेगा तो तारीफ करेगा या नहीं ? तारीफ या प्रशंसा की चाह हर किसी में होती है पर मनुष्य का पतन प्रशंसा से ही होता है ।

भगवान श्रीकृष्ण जान गए कि रुक्मिणीजी के मन में अपने श्रृंगार-सौंदर्य के लिए अभिमान है । भगवान को अभिमान बिल्कुल नहीं भाता है । वे रुक्मिणीजी से कहने लगे—

‘देवि ! तुम जैसी सौंदर्यवती की योग्य-प्रशंसा और कद्र तो कोई सम्राट ही कर सकता है, मुझ जैसा गोपाल नहीं । मेरे बारे में गलत बताकर किन्हीं साधु-संतों ने तुम्हें चकमा दिया है । तुम राजकन्या हो और मैं गौओं का सेवक गोपाल हूँ । तुम गोरी हो और मैं श्याम हूँ । हमारा सम्बन्ध बेमेल है । राजा-महाराजाओं को छोड़कर तुमने मुझसे विवाह क्यों किया ? मैं तुम्हें क्या सुख दे सकता हूँ ? मैं तो निरपेक्ष और उदासीन हूँ । मुझे नारी के सौंदर्य या सुवर्ण की द्वारिका से कोई लगाव नहीं है । राजाओं से डर कर मैं समुद्र में रहता हूँ । स्वयं निर्धन हूँ और निर्धन से ही प्रेम करता हूँ । मुझे तो एकान्त ही बड़ा प्रिय है । मैं लोकाचार की अपेक्षा नहीं करता हूँ । ऐसे पुरुष के साथ रह कर स्त्रियों को बड़ा कष्ट होता है । जो अवस्था, रूप, धन तथा गुण में समान हों, उसी से मित्रता या विवाह करना चाहिए । तुम्हारा भाई रुक्मी भी मुझसे शत्रुता रखता है । शत्रुओं के मान-मर्दन के लिए ही मैं तुम्हें ले आया । अब भी कुछ बिगड़ा नहीं है । अत: तुम अपने अनुरूप किसी पराक्रमी राजा या सम्राट का वरण कर लो, जिससे तुम्हें इस लोक में भी सुख प्राप्त हो तथा परलोक में भी कल्याण हो ।’

ऐसा कहकर भगवान श्रीकृष्ण के मुख पर एक अजीब-सी हंसी बिखर गई । 

‘श्रीकृष्ण मेरा परित्याग कर रहे हैं’—यह सोचकर रुक्मिणीजी का मुख सूख गया, पंखा हाथ से छूट कर गिर गया और वे मूर्च्छित हो गईं । 

जब उन्हें होश आया तो श्रीकृष्ण ने सान्त्वना देते हुए कहा—‘मैं तो मजाक कर रहा था, तुम तो मुझे प्राणों से भी अधिक प्यारी हो ।’

रुक्मिणीजी जान गईं कि उनकी यह भूल थी कि श्रीकृष्ण उनमें आसक्त होंगे; वे तो उदासीन हैं । मेरे अभिमान को दूर करने के लिए ही प्रभु ने यह सब कुछ कहा है । वे श्रीकृष्ण से विनय-पूर्वक कहने लगीं—

‘मेरे नाथ ! मेरा त्याग न करो । हमारे पुत्र प्रद्युम्न के भी पुत्र हो चुका है और उस पौत्र अनिरुद्ध का भी विवाह हो गया है । अब आपको यह मजाक सूझा है । प्रभु ! यह सच है कि हमारा सम्बन्ध बेमेल है । कहां आप हैं और कहां मैं ? कहां तो आप त्रिभुवनाधीश और कहां मैं आपके चरणों में पड़ी जड़ प्रकृति । आप सर्वेश और सर्वव्यापक हैं । आपके चरित्र को कैसे जाना जा सकता है ? आपके अतिरिक्त तो कुछ है ही नहीं । शंकर आदि देवता भी आपकी पूजा करते हैं । समस्त पुरुषार्थों के फल आप ही हैं । आपको पाने के लिए भक्तगण अपना सर्वस्व त्याग कर देते हैं । जो विषयों में लीन हैं, वे आपके महत्व को क्या जानें ? आपने अपने दिव्य धनुष की टंकार से राजाओं को भगा कर मेरा हरण किया है, उन्हीं के डर से आप समुद्र में रहते हैं—इस पर कौन विश्वास करेगा ? जिसके लिए चक्रवर्ती सम्राटों ने अपने साम्राज्यों को छोड़ कर तपस्या का आश्रय लिया, उस श्रीनिवास के चरणों को छोड़ कर मैं दूसरे किसका आश्रय लूँ ? आप ही मेरे इस और परलोक के स्वामी हैं । जन्म-जन्मान्तरों में कर्मवश मैं जहां जाऊँ, आपके ये श्रीचरण मुझे प्राप्त हों । आप आत्माराम होकर भी मेरी ओर देखते हैं, यह आपकी बड़ी कृपा है ।’

‘ज्ञानीजन आपका भजन करते हैं और मूर्ख मेरा । ज्ञानीजन आपको ढूंढ़ते हैं और मूर्ख मुझे । (चूंकि रुक्मिणीजी लक्ष्मीजी का अंशावतार हैं; इसलिए सांसारिक मनुष्य लक्ष्मी की कामना से उनको भजते हैं ।) मेरे नाथ ! आज से मैं घर में महारानी नहीं, दासी बन कर रहूंगी । आपकी बड़ी कृपा है कि मुझे आपने अपनी दासी बनाया है । सांसारिक जीव तो काल के अधीन हैं, उनके साथ विवाह क्यों किया जाए ? मैं तो आपके चरणों की सेवा करने का अवसर पाकर धन्य हो गई हूँ । मैंने लौकिक और भौतिक इच्छा से आपसे विवाह नहीं किया है । आज से मैं आपकी महारानी नहीं वरन् दासी हूँ ।’

रुक्मिणीजी का अभिमान दूर हुआ और उनमें नम्रता आ गई । जब तक वह मानिनी थी, तब तक भगवान श्रीकृष्ण ने कहा था—‘मैं तेरे योग्य नहीं हूँ ।’ अब जब अभिमान निर्मूल हो गया तो रुक्मिणीजी भगवान से कहने लगीं—‘मैं आपके योग्य नहीं हूँ ; मैं रानी नहीं, दासी हूँ ।’ 

अब भगवान रुक्मिणीजी का सम्मान करने लगे । सांसारिक जीव जब हर प्रकार से नम्र होकर भगवान की शरण में जाता है, तब भगवान उसे आदर से अपना लेते हैं ।

कथा से शिक्षा

इस प्रसंग से भगवान श्रीकृष्ण यही शिक्षा देते हैं कि शुद्ध प्रेम में विकार-वासना का अभाव होता है । भगवान की सेवा करते समय आँख और मन को आराध्य में ही पिरोये रखना चाहिए । जो भगवान के सिवाय अन्य किसी वस्तु मे आनन्द ढूंढ़ता है, वह सच्चा सुखी नहीं हो सकता है । 

जगत का कोई भी सौंदर्य स्थाई नहीं है, वह तो क्षणभंगुर है । केवल भगवान का सौंदर्य ही नित्य और सदैव बढ़ने वाला है ।

भगवान को पाने के लिए दैन्य की आवश्यकता होती है । दैन्य का अर्थ है दीनता अर्थात् अभिमान-शून्यता । मनुष्य में तरह-तरह के अभिमान भरे पड़े हैं । जैसे–सौंदर्य का अभिमान, पद का अभिमान, ज्ञान का, धन का, त्याग का, सेवा का और न जाने कितने तरह के अभिमान । जहां-जहां अभिमान है, वहां-वहां भगवान की विस्मृति हो जाती है । इसलिए भक्ति का पहला लक्षण है दैन्य अर्थात् अपने को सर्वथा अभावग्रस्त, अकिंचन पाना । बस भगवान ऐसे ही भक्त के कंधे पर हाथ रखे रहते हैं ।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here