ब्रह्मवैवर्तपुराण में भगवान श्रीकृष्ण ने श्रीराधा से कहा है–’राधिके ! वास्तव में हम-तुम दो नहीं हैं; जो तुम हो, वही मैं हूँ और जो मैं हूँ, वही तुम हो । जैसे दूध में धवलता है, अग्नि में दाहिका शक्ति है, पृथ्वी में गन्ध है, उसी प्रकार मेरा-तुम्हारा अभिन्न सम्बन्ध है । वास्तव में, राधा और कृष्ण एक ही हैं, पर खेल के लिए दो रूप बने हुए हैं । ये परस्पर एक-दूसरे की आराधना करते हैं । अत: ये दोनों ही परस्पर आराध्य और आराधक हैं । 

श्रीकृष्ण जिनकी आराधना करते हैं, वे राधा हैं तथा जो सदैव श्रीकृष्ण की आराधना करती हैं, वे राधिका कहलाती हैं।  ब्रह्माण्डपुराण में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है–’राधा की आत्मा सदा मैं श्रीकृष्ण हूँ और मेरी (श्रीकृष्ण की) आत्मा निश्चय ही राधा हैं । श्रीराधा वृन्दावन की ईश्वरी हैं, इस कारण मैं राधा की ही आराधना करता हूँ ।’

इसीलिए श्रीराधा की प्रेम और श्रद्धापूर्वक की गंई उपासना से श्रीकृष्ण की दास्य-भक्ति प्राप्त हो जाती है ।

श्रीकृष्ण की दास्य-भक्ति प्रदान करने वाला श्रीराधा स्तोत्र

त्वं देवी जगतां माता विष्णुमाया सनातनी ।
कृष्णप्राणाधिदेवी च कृष्णप्राणाधिका शुभा ।।

अर्थात्—श्रीराधे ! तुम देवी हो । जगज्जननी सनातनी विष्णुमाया हो । श्रीकृष्ण के प्राणों की अधिष्ठात्री देवी तथा उन्हें प्राणों से भी अधिक प्यारी हो । शुभस्वरूपा हो ।

कृष्णप्रेममयी शक्ति: कृष्णसौभाग्यरुपिणी ।
कृष्णभक्तिप्रदे राधे नमस्ते मंगलप्रदे ।।

अर्थात्—कृष्णप्रेममयी शक्ति तथा श्रीकृष्णसौभाग्यरूपिणी हो । श्रीकृष्ण की भक्ति प्रदान करने वाली मंगलदायिनी राधे ! तुम्हें नमस्कार है ।

अद्य मे सफलं जन्म जीवनं सार्थकं मम ।
पूजितासि मया सा च या श्रीकृष्णेन पूजिता ।।

अर्थात्—आज मेरा जन्म सफल है । आज मेरा जीवन सार्थक हुआ; क्योंकि श्रीकृष्ण ने जिसकी पूजा की है, वही देवी आज मेरे द्वारा पूजित हुई ।

कृष्णवक्षसि या राधा सर्वसौभाग्यसंयुता ।
रासे रासेश्वरीरूपा वृन्दा वृन्दावने वने ।।

अर्थात्—श्रीकृष्ण के वक्ष:स्थल में जो सर्वसौभाग्यशालिनी राधा हैं, वे ही रासमण्डल में रासेश्वरी व वृन्दावन में वृन्दा, हैं ।

कृष्णप्रिया च गोलोके तुलसी कानने तु या ।
चम्पावती कृष्णसंगे क्रीडा चम्पककानने ।।

अर्थात्—गोलोक में कृष्णप्रिया, तुलसी-कानन में तुलसी, कृष्णसंग में चम्पावती, व चम्पक कानन में क्रीड़ा हैं ।

चन्द्रावली चन्द्रवने शतश्रृंगे सतीति च ।
विरजादर्पहन्त्री च विरजातटकानने ।।

अर्थात्—चन्द्रवन में चन्द्रावली, शतश्रृंग पर्वत पर सती व विरजा नदी के तटपर स्थित कानन में विरजादर्पहन्त्री हैं ।

पद्मावती पद्मवने कृष्णा कृष्णसरोवरे ।
भद्रा कुंजकुटीरे च काम्या वै काम्यके वने ।।

अर्थात्—वे पद्मवन में पद्मावती, कृष्ण सरोवर में कृष्णा, कुंज कुटीर में भद्रा व काम्यक वन में काम्या हैं ।

वैकुण्ठे च महालक्ष्मीर्वाणी नारायणोरसि ।
क्षीरोदे सिन्धुकन्या च मर्त्ये लक्ष्मीर्हरिप्रिया ।।

अर्थात्—वे वैकुण्ठ में महालक्ष्मी, नारायण के हृदय में वाणी, क्षीरसागर में सिन्धुकन्या व मर्त्यलोक में हरिप्रिया लक्ष्मी हैं ।

सर्वस्वर्गे स्वर्गलक्ष्मीर्देवदु:खविनाशिनी ।
सनातनी विष्णुमाया दुर्गा शंकरवक्षसि ।।

अर्थात्—वे सम्पूर्ण स्वर्ग में देवदु:खविनाशिनी स्वर्गलक्ष्मी तथा शंकर के वक्ष:स्थल पर सनातनी विष्णुमाया दुर्गा हैं ।

सावित्री वेदमाता च कलया ब्रह्मवक्षसि ।
कलया धर्मपत्नी त्वं नरनारायणप्रसू: ।।

अर्थात्—वे ही अपनी कला द्वारा वेदमाता सावित्री होकर ब्रह्मा के वक्ष में विलास करती हैं । देवि राधे ! तुम्हीं अपनी कला से धर्म की पत्नी एवं नर-नारायण मुनि की जननी हो ।

कलया तुलसी त्वं च गंगा भुवनपावनी ।
लोमकूपोद्भवा गोप्य: कलांशा रोहिणी रति: ।।

अर्थात्—तुम्हीं अपनी कला द्वारा तुलसी तथा भुवनपावनी गंगा हो । गोपियां तुम्हारे रोमकूपों से प्रकट हुई हैं । रोहणी तथा रति तुम्हारी कला की अंशस्वरूपा हैं ।

कलाकलांशरूपा च शतरुपा शची दिति: ।
अदितिर्देवमाता च त्वत्कलांशा हरिप्रिया ।।

अर्थात्—शतरूपा, शची और दिति तुम्हारी कला की कलांशरूपिणी हैं । देवमाता हरिप्रिया अदिति तुम्हारी कलांशरूपा हैं ।

देव्यश्च मुनिपत्न्यश्च त्वत्कलाकलया शुभे ।
कृष्णभक्तिं कृष्णदास्यं देहि मे कृष्णपूजिते ।।

अर्थात्—शुभे ! देवांगनाएं और मुनिपत्नियां तुम्हारी कला की कला से प्रकट हुई हैं । कृष्णपूजिते ! तुम मुझे श्रीकृष्ण की भक्ति और श्रीकृष्ण का दास्य प्रदान करो ।

एवं कृत्वा परिहारं स्तुत्वा च कवचं पठेत् ।
पुराकृतं स्तोत्रमेतद्भक्तिदास्यप्रदं शुभम् ।।

अर्थात्—इस प्रकार श्रीराधा की स्तुति करके मनुष्य श्रीराधा कवच का पाठ करे । यह प्राचीन शुभ स्तोत्र श्रीहरि की भक्ति एवं दास्य प्रदान कपने वाला है ।
(ब्रह्मवैवर्त, प्रकृतिखण्ड, ४४-५७)

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here