भगवान शिव के मस्तक पर चन्द्रमा
चन्द्रमा को अभयदान देकर अपने शीश पर धारण करने वाले भगवान शिव को ‘चन्द्रमौली, चन्द्रशेखर, चन्द्रचूड़, भालचन्द्र व शशिशेखर’ कहा जाता है । सुर (देवता) और असुर दोनों ने ही समुद्र-मंथन में बराबर का श्रम किया था परन्तु श्रीहरि देवताओं की तरफ थे इसलिए अमृत देवताओं को ही प्राप्त हुआ था । असुरों ने धन्वन्तरि से बलपूर्वक अमृत कलश छीन लिया था किन्तु अमरत्व बलपूर्वक प्राप्त नहीं किया जा सकता । अमरत्व तो केवल उसे ही प्राप्त हो सकता है जिस पर श्रीहरि की कृपा होती है । अमरत्व प्राप्त करने के लिए मनुष्यों को श्रीहरि के चरणों में भक्ति रखनी चाहिए । जो उनके श्रीचरणों से दूर है उसे अमरत्व प्राप्त नहीं हो सकता ।
श्रीहरि ने मोहिनी रूप धारणकर अमृत कलश को असुरों से लेकर देवताओं में अमृत वितरित कर दिया और असुर मोहिनी के मायाजाल में फंसकर अमृत से वंचित रह गए । अमृत के वितरण के समय असुर स्वर्भानु वेष बदलकर देवताओं की पंक्ति में बैठ गया । सूर्य और चन्द्रमा ने देवताओं के वेष में अपने मध्य में बैठे स्वर्भानु को पहचान लिया । उन्होंने संकेत से श्रीहरि को सूचित कर दिया कि यह सुर नहीं है । दैत्य ने इन दोनों का संकेत देख लिया । तब तक स्वर्भानु को अमृत मिल चुका था । संकेत पाकर श्रीहरि ने अपने चक्र से उसका सिर धड़ से अलग कर दिया ।
मस्तक कट जाने पर धड़ ‘केतु’ बन गया । ब्रह्मा ने उसे दूर अन्तरिक्ष में फेंक दिया । उसका मस्तक ‘राहु’ कहलाया । वह विकृत एवं विकराल मुख चन्द्रमा को पकड़ने के लिए दौड़ा क्योंकि इस समय अमृत चन्द्रमा के पास था । राहु जब चन्द्रमा की ओर दौड़ा तो देवता चन्द्रमा को आगे करके अपनी राजधानी अमरावती पहुंचने के लिए पूरे वेग से दौड़े किन्तु जब वे अमरावती पहुंचे तो राहु उनसे पहले पहुंचकर उनका रास्ता रोके खड़ा था । राहु ने चन्द्रमा को पकड़कर निगल लिया किन्तु धड़ न होने के कारण चन्द्रमा उसके गले से बाहर निकल आया ।
राहु को अपनी भूल का पता लगा कि उसे निगलने की बजाय चन्द्रमा को चबा जाना चाहिए था । चन्द्रमा को उसने चबाने के लिए फिर पकड़ने की कोशिश की । इतने में चन्द्रमा शिवजी के पास चला आया और बोला, ‘हे भगवान ! मैं आपकी शरण में हूँ। मेरी रक्षा कीजिए।’
भगवान शिव ने चंद्रमा और राहु को दिया जटाओं में स्थान
भगवान शंकर बोले—‘डरो मत !’ उन्होंने चन्द्रमा को अपने मस्तक पर जटाओं में रख लिया । इस प्रकार भगवान शिव ‘चन्द्रशेखर’, चन्द्रमौली व चन्द्रचूड़ कहलाए ।
इतने में राहु भी शिवजी के पास पहुंचा और बोला, ‘भगवान ! आप परम ब्रह्म परमात्मा हैं । आप ही हम असुरों के परम आराध्य हैं । मैं आपके चरणों में कोटि-कोटि प्रणाम करता हूँ । आप सबके पालक हैं । चन्द्रमा मेरा आहार है । आप इसे मुझे प्रदान करें ।’
भगवान शिव ने कहा—‘मैं सबका आश्रयदाता हूँ । सुर और असुर दोनों मुझे प्रिय हैं । तुम्हारे उदर नहीं है इसलिए तुम बिना आहार के रह सकते हो । तुम अमृतपान कर चुके हो । चन्द्रमा भी अमृतपान करके अमृतमय हो गया है और मेरी शरण में आया है । मैंने उसे अभयदान दिया है । तुम भी मेरी जटाओं में आ जाओ ।’
भगवान शिव के कण्ठ का आभूषण है राहु के सिरों की मुण्डमाला
राहु भी शिवजी को प्रणाम करके उनके मस्तक पर चन्द्रमा के पास स्थित हो गया । चन्द्रमा राहु के भय से कांपने लगा । तब उसमें से अमृत स्त्रावित (बहने) होने लगा । उस अमृत स्त्राव से निकले अमृतकणों के छू जाने से राहु के अनेक सिर हो गए । भगवान शिव ने उन सिरों को लेकर मुण्डमाला बना ली । इस प्रकार राहु के सिरों की वह मुण्डमाला भगवान शिव के कण्ठ का आभूषण बन गयी।
अष्ट गुरु ज्ञानी जाके, मुख वेद बानी शुभ।
भवन में भवानी सुख, सम्पत्ति लहा करें।।
मुण्डन की माला जाके चन्द्रमा ललाट सोहै।
दासन के दास जाके दारिद दहा करे।।
भगवान शिव का चन्द्रमा व मुण्डमाला धारण करने का रहस्य
भगवान शिव के चन्द्रकला व मुण्डमाला धारण करने का गूढ़ रहस्य है । चन्द्रकला धारण करने का कारण यह है कि उनके ललाट में तृतीय नेत्र जो अग्नि रूप है, की ऊष्मा त्रिलोकी को भस्म करने में सक्षम हैं, वह उन्हें पीड़ित न करे, ताप न दे, इसीलिए उन्होंने अपने सिर पर गंगा और चन्द्र दोनों को धारण कर रखा है । शिव की मुण्डमाला मरणशील प्राणी को सदैव मृत्यु का स्मरण कराती है जिससे वह दुष्कर्मों से दूर रहे।
कितने आश्चर्य की बात है कि कालकूट हलाहल विष का पानकर शिव अजर-अमर और अविनाशी बन गए लेकिन देवता लोग जिन्होंने समुद्र-मंथन से उत्पन्न अमृत का पान किया, वे सर्वथा के लिए अजर-अमर नहीं हुए ।
महादेव की मुण्डमाल में सती के सभी पूर्व जन्म के शीश बताये जाते है. राहु के नहीं!!!