भगवान शिव नटराज के रूप में संगीत कला के सर्जक व संरक्षक माने जाते हैं । डमरु उनका विशेष वाद्ययंत्र है । ‘डमरु’ शब्द सुनते ही जो पहली तस्वीर आंखों के सामने आती है, वह है डमरु बजा कर नृत्य करते हुए भगवान शिव की । जब शिव जी ध्यानावस्था में होते हैं तो उनका डमरु त्रिशूल पर टंगा रहता है और जब शिव चार हाथों वाले नटराज रूप में नृत्य-भूमि पर उतरते हैं, तब उनके एक दायें हाथ में रजोगुण का प्रतीक डमरू होता है, जो समस्त जीव-जगत की सृष्टि करता है और दूसरा दायां हाथ अभयमुद्रा में रहता है । उनके एक बायें हाथ में तमोगुण की प्रतीक अग्नि होती है, जिससे वे मानवीय आत्मा के बंधनों का संहार करते हैं और दूसरा बायां हाथ संकेत मुद्रा में कुछ झुका हुआ रहता है ।
शिव महापुराण के अनुसार भगवान शिव से पहले किसी को भी संगीत की जानकारी नहीं थी । न तो कोई नृत्य करना जानता था और न ही वाद्ययंत्रों को बजाना । भगवान शिव नृत्य-विज्ञान के प्रवर्तक माने जाते हैं । सृष्टि में संतुलन के लिए भगवान शिव ने डमरु धारण किया । डमरु की ध्वनि से ही लय व ताल का जन्म हुआ ।
ऐसा माना जाता है कि प्रदोष काल में भगवान शिव कैलाश पर्वत के रजत भवन में डमरु बजाते हुए आनन्दमग्न होकर जगत को आह्लादित करने के लिए नृत्य करते हैं । सभी देवता इस समय भगवान शंकर की पूजा व स्तुति के लिए कैलाश शिखर पर पधारते हैं । सरस्वती जी वीणा बजाकर, इन्द्र वंशी धारण कर, ब्रह्मा ताल देकर, महालक्ष्मी जी गाना गाकर, भगवान विष्णु मृदंग बजा कर भगवान शिव की सेवा करते हैं । यक्ष, नाग, गंधर्व, सिद्ध, विद्याधर व अप्सराएं भी प्रदोष काल में भगवान शिव की स्तुति में लीन हो जाते हैं ।
शिव का डमरु नाद साधना का प्रतीक माना जाता है । नाद अर्थात् वह ध्वनि जिसे ‘ओम्’ कहा जाता है ।
यह योग साधना में भीतरी अनाहत नाद का संकेत है; जिसे ‘नाद ब्रह्म’ कहते हैं । डमरू-निनाद आत्मानन्द के आनन्द की अनुभूति का प्रतीक है ।
डमरु की ध्वनि को वीर रस की ध्वनि भी माना जाता है । शिव जब डमरु बजा कर ताडंव नृत्य करते हैं तो प्रकृति आनंद से भर जाती है और संसार के दु:ख को दूर कर नई शुरुआत का संदेश देते हैं । डमरु की धुन शिथिल पड़े मन को पुन: जाग्रत कर देती है । शिव का डमरु लेकर ताण्डव नृत्य करना जगत् के मंगल के लिए, जगत् की सृष्टि के लिए होता है, संहार के लिए नहीं । उनके पैरों की थाप से यह धरती अन्न-जल और फल-फूल की उत्पत्ति का कारण बनती है ।
पाणिनी के अनुसार–भगवान शंकर के नृत्य करते समय उनके डमरू के घोष से व्याकरण-शास्त्र के मूल १४ सूत्र निकले । ये १४ सूत्र हैं—
(१) अ-इ-उ-ण्
(२) ऋ-लृ-क्
(३) ए-ओ-ड्॰
(४) ऐ-औ-च्
(५) ह-य-व-र-ट्
(६) ल-ण्
(७) ञ-म-ड्॰-ण-न-म्
(८) झ-भ-ञ्
(९) घ-ढ-ध-ष्
(१०) ज-ब-ग-ड-द-श्
(११) ख-फ-छ-ठ-थ-च-ट-त-व्
(१२) क-प-य्
(१३) श-ष-स-र्
(१४) ह-ल्
इन सूत्रों को सनकादि ऋषियों ने संगृहीत किया और उसी से संस्कृत भाषा की उत्पत्ति हुई । भगवान शिव के डमरु से निकले चमत्कारी १४ सूत्रों को एक श्वास में बोलने का अभ्यास करने पर मन को अत्यंत शांति मिलती है और मन का तनाव निकल जाता है ।
यदि डमरु की आवाज लगातार बजती रहे तो यह आसपास के वातावरण को भी परिवर्तित कर देती है । डमरु की ध्वनि आसपास की नकारात्मक ऊर्जा और बुरी शक्तियों को दूर करती है ।
भगवान शिव स्वयं तो कल्याण करने वाले हैं ही; उनका वाद्ययंत्र से निकला शिवनाद भी आज के समय में मनुष्य के विचलित मन को शांति देने में अत्यंत सहायक है ।
भगवान शिव के डमरु का हिंदू, तिब्बती और बौद्ध धर्म में अत्यंत महत्व है ।