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त्रिभुवन के गुरु भगवान शिव अंजनादेवी के अंक में हनुमान रूप से अवतरित हुए तो उनका शिक्षा-गुरु भगवान सूर्य को ही बनना था । हनुमानजी विद्या पढ़ने के लिए भगवान सूर्य के पास गये और उनसे ही उन्हें सारी विद्याएं प्राप्त हुईं ।

सूर्यदेव क्यों बने हनुमानजी के गुरु ?

कहा जाता है कि हनुमानजी को जन्म ग्रहण करने के कुछ ही समय बाद इतनी भूख लगी कि वे माता के पय:पान से तृप्त नहीं हो सके । इससे चिन्तित होकर मां अंजना उनके लिए जंगल में फल लेने गयीं, तब तक सूर्योदय होने लगा । आकाश में उगते सूर्य को देखकर हनुमान उसे लाल फल समझकर निगलने के लिए बढ़े । उस समय सूर्यग्रहण था और राहु सूर्य को ग्रस्त करने के लिए आया था । हनुमानजी का विशाल आकार और उनको सूर्य को निगलते देखकर राहु ने डरकर देवराज इन्द्र से निवेदन किया कि एक दूसरा महाराहु मेरा अधिकार छीन कर मुझे भी ग्रस्त करना चाहता है, अत: आप मेरी रक्षा करें । इन्द्र को ऐरावत पर चढ़कर आते देख पवन-कुमार ने उसे बड़ा-सा सफेद फल समझा और उसी को पकड़ने के लिए दौड़ चले । यह देखकर इन्द्र ने अपने वज्र से हनुमानजी के मुख पर जोरों से प्रहार किया, जिससे उनकी हनु (ठुड्डी) टेढ़ी हो गयी और वे पृथ्वी पर गिर पड़े । इससे कुपित होकर वायुदेव ने अपना प्रवाह रोक दिया जिससे सबका श्वास अवरुद्ध होने लगा । यह देखकर ब्रह्माजी ने हनुमानजी को पूर्ण स्वस्थ कर उन्हें अमरत्व प्रदान किया और अग्नि-जल-वायु से अभय प्रदान किया। इस प्रकार हनु के टेढ़ी हो जाने से आंजनेय (अंजना के पुत्र) ‘हनुमान’ कहलाए ।  उस समय सूर्यदेव ने भी हनुमानजी को विद्या-दान (शिक्षा) देने का वर दिया ।

सूर्यदेव की थी विचित्र अध्यापन शैली

कुछ समय बाद सूर्यदेव का हनुमानजी को शिक्षा देने का क्रम शुरु हुआ परन्तु सूर्यदेव की शिक्षा देने की शैली बड़ी विचित्र थी ।

वाल्मीकीय रामायण के अनुसार हनुमानजी माता के आदेश से सूर्यदेव के पास अध्ययन के लिए गए । सूर्यदेव ने इसे बालक का खेल समझकर टालमटोल की और कहा कि मैं तो एक जगह स्थिर नहीं रहता हूँ, उदयाचल से अस्ताचल की ओर जाता रहता हूँ, पढ़ने-पढ़ाने के लिए गुरु-शिष्य का आसन पर आमने-सामने बैठना आवश्यक है, अत: पढ़ाना सम्भव नहीं है । 

हनुमानजी तो ज्ञान के पिपासु थे । वे बोले—‘मैं आपके अतिरिक्त किसी और से विद्या ग्रहण नहीं करुंगा ।’ 

हनुमानजी की दृढ़ता देखकर भगवान सूर्य प्रसन्न हो गये, वे तो उनकी ज्ञानपिपासा की परीक्षा ले रहे थे । भला, रुद्रावतार, रामभक्त हनुमान से श्रेष्ठ उन्हें कौन शिष्य मिल सकता था ! वे हनुमानजी को विद्या-दान देने को राजी हो गये ।

हनुमानजी को सूर्य के सामने अध्ययन करने में उनके रथ की गति के समान ही तीव्र गति से पीछे की ओर चलना पड़ता था । हनुमानजी बालकों के समान खेल करते हुए, पूर्व से पश्चिम की ओर उलटे चलते हुए सूर्यदेव जो भी उपदेश करते उसे शीघ्र ही याद कर लेते थे । उन्हें सूर्यदेव की बातों को सुनने, समझने में कोई कठिनाई नहीं हुई । 

सूर्यदेव द्वारा हनुमानजी को विद्या-दान

सूर्यदेव ने थोड़े ही समय में समस्त विद्याओं, वेदों, शास्त्रों, आगम-पुराण, कलाओं, नीति, अर्थशास्त्र, दर्शन तथा व्याकरणशास्त्र का ज्ञान हनुमानजी को करा दिया । इसी कारण हनुमानजी समस्त विद्या, छन्द तथा तपोविधान में बृहस्पति के समान हो गए ।

ऐसा अद्भुत और आश्चर्यमय अध्ययन-अध्यापन ब्रह्मा, विष्णु, महेश, इन्द्र आदि देवताओं और लोकपालों ने कभी देखा नहीं था । इस दृश्य को देखकर वे आश्चर्यचकित रह गये और उनकी आंखें चौंधिया गयीं । वे सोचने लगे कि यह तो शौर्य, वीररस, धैर्य आदि सद्गुणों का साक्षात् स्वरूप आकाश में उपस्थित हो गया है ।

भगवान श्रीराम द्वारा हनुमानजी के व्याकरण-ज्ञान की प्रशंसा

वाल्मीकीय रामायण में स्वयं भगवान श्रीराम लक्ष्मणजी से हनुमानजी के व्याकरण-ज्ञान की भूरि-भूरि प्रशंसा करते हुए कहते हैं—

‘जिसे ऋग्वेद की शिक्षा न मिली हो, जिसने यजुर्वेद का अभ्यास न किया हो तथा जो सामवेद का विद्वान न हो, वह ऐसा सुन्दर नहीं बोल सकता । निश्चय ही इन्होंने सम्पूर्ण व्याकरण का अनेक बार अध्ययन किया है क्योंकि बहुत बोलने पर भी इनके मुख से कोई अशुद्धि नहीं निकली ।’यही कारण है कि हनुमान चालीसा में हनुमानजी को ‘जय हनुमान ज्ञान गुण सागर’ कहा गया है ।

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