जब भगवान अवतार धारण करते हैं, तब वे अकेले ही प्रकट नहीं होते हैं; उनके साथ अनेक देवतागण भी अपने अंशरूप में अवतरित होते हैं । जब पृथ्वी पर रावण (जिसका अर्थ है संसार को रुलाने वाला) का आतंक छा गया, सर्वत्र त्राहि-त्राहि मच गयी, तब भगवान श्रीराम ने सज्जनों की रक्षा और दुष्टों के संहार के लिए अवतार धारण किया । उस समय अनेक देवतागण वानरों और भालुओं के रूप में प्रकट हुए थे । कैलासपति भगवान शंकर ने समाधिवस्था में श्रीराम के अवतार धारण करने का संकल्प जान लिया । भगवान रुद्र (शंकर) भी अपने आराध्य की सेवा करने तथा कठिन कलिकाल में भक्तों की रक्षा करने की इच्छा से श्रीराम के प्रमुख सेवक के रूप में अवतरित हुए ।
जेहि शरीर रति राम सों सोइ आदरहिं सुजान ।
रुद्रदेह तजि नेहबस बानर भे हनुमान ।। (दोहावली १४२)
भगवान शंकर ने यह अवतार बिना शक्ति (पार्वती) के अकेले ही धारण किया, इसलिए नैष्ठिक ब्रह्मचर्य इस अवतार का मुख्य लक्षण है । ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करके हनुमानजी ने मानव समाज के सामने आचरण सम्बन्धी महान आदर्श प्रस्तुत किया है । हनुमानजी ने जिस समाज में जन्म लिया, उसमें बहुपत्नी-प्रथा थी । हनुमानजी का जन्मसिद्ध ब्रह्मचर्य का गुण किसी न्यूनता या अयोग्यता के कारण नहीं था । वे चाहते तो भोगविलासमय जीवन व्यतीत कर सकते थे लेकिन वे जन्म से ही इस प्रकार के जीवन से दूर रहे ।
मतवाले हाथी या खूंखार शेरों पर विजय पाने वाला मनुष्य ‘वीर’ कहलाता है किन्तु मन को जीतकर काम पर विजय पाने वाला मनुष्य ‘महावीर’ होता है । आजन्म ब्रह्मचर्य-व्रत के कारण ही हनुमानजी महावीर कहलाते हैं ।
प्रभु श्रीराम के प्रमुख व अंतरंग सेवक जैसे अधिकार के पद को संभालते हुए ब्रह्मचर्य का पालन करना खेल नहीं है, यह बहुत बड़ी तपस्या है । हनुमानजी इस तप में कितने खरे उतरे, यह उनके जीवन की एक घटना से स्पष्ट है—
माता सीता की खोज में हनुमानजी ने रात्रि में लंका में प्रवेश किया । उन्हें पता तो था नहीं कि रावण ने जनकनन्दिनी को कहां रखा है, अत: वे राक्षसों के घर में घूमते फिरे । वे राक्षसों के अंत:पुर थे, संयमियों के नहीं । सुरापान और उन्मत्त विलास ही राक्षसों के प्रिय व्यसन थे । अपनी उन्मत्त-क्रीडा के बाद राक्षसगण निद्रामग्न हो चुके थे और प्रत्येक घर में अस्त-व्यस्त वस्त्रों में निद्रालीन राक्षस युवतियां हनुमानजी को देखने को मिलीं ।
हनुमानजी ने कभी सीताजी को देखा तो था नहीं, अत: जिस सुन्दरी स्त्री को देखते तो सोचते, हो-न-हो यही सीता माता हैं, फिर जब उससे बढ़ कर किसी सुन्दर स्त्री को देखते तो उसे सीताजी समझने लगते । कभी उनको लगता—इनमें से यदि कोई भी सीता नहीं तो सीताजी गईं कहां ? सम्पाती की बात झूठ तो हो नहीं सकती । उसने कहा था—‘मैं सीताजी को लंका में बैठे देख रहा हूँ ।’
जानकीजी को ढूंढ़ना है तो स्त्रियां जहां रह सकती हैं, वहीं तो ढूंढ़ना पड़ेगा—यही सोचकर वे फिर सीताजी को खोजने लगते । अब वे रावण के अंत:पुर में पहुंच गए । वहां एक स्वर्णनिर्मित पलंग पर रावण सो रहा था और उसके समीप गलीचों पर सहस्त्रों स्त्रियां सो रही थीं । किसी का सोते समय मुख खुला था, कोई खर्राटे भर रही थी, किसी के मुख से पान की पीक बह रही थी । अस्त-व्यस्त पड़ी ऐसी अवस्था वाली परस्त्री को देखना सद्गृहस्थों के लिए भी बहुत बड़ा दोष है, हनुमानजी तो आजन्म ब्रह्मचारी थे । उनके मन में बड़ी घृणा हुई ।
वे सोचने लगे—‘आज मेरा व्रत खण्डित हो गया । ब्रह्मचारी को तो स्त्रियों के चित्र को भी नहीं देखना चाहिए । मैंने अर्धनग्न अवस्था में अचेत पड़ीं इन स्त्रियों को देखा है । इससे मुझे दोष लगा, बड़ा अपराध हुआ है । इसका क्या प्रायश्चित करुँ ? मन में बड़ा पश्चात्ताप, ग्लानि और अत्यन्त दु:ख हो रहा है ।’
जिसने कोई व्रत, कोई नियम दीर्घकाल तक पालन किया हो, उससे अनजाने में वह नियम टूट जाए, तो व्रत-भंग की वेदना क्या होती है इसका अनुमान लगाना आम मनुष्य के लिए सम्भव नहीं है ।
‘मैं मरणान्त प्रायश्चित करुंगा’—हनुमानजी ने मन में संकल्प किया ।
कोई अनर्थ हो, वे कुछ कर बैठें, इससे पहले ही जैसे हृदय में आराध्य के हस्तकमल का प्रकाश हुआ । रघुवंशशिरोमणि श्रीराम अपने भक्तों, आश्रितों की सदा रक्षा करते हैं । हनुमानजी की अंतरात्मा की आवाज आई—
‘माता सीता स्त्रियों में ही मिलेंगी, इसी भावना से मैंने रावण के अंत:पुर में प्रवेश किया था । मैं तो माता जानकी को ढूंढ़ रहा था, किसी नारी के सौन्दर्य पर तो मेरी दृष्टि नहीं गई और ना ही मेरे मन में कोई विकार आया । ये जो स्त्रियों के अर्धनग्न देह मुझे देखने पड़े, ये तो मेरी दृष्टि में शव के समान ही थे, फिर मेरा अखण्ड ब्रह्मचर्य का व्रत कैसे भंग हो सकता है ?’
‘व्रत का मूल मन है, देह नहीं । अपना अंत:करण ही पुरुष का साक्षी होता है । पाप और पुण्य में भावना ही प्रधान होती है । जब मेरी भावना ही दूषित नहीं हुई, तब प्रायश्चित ही किस बात का ? मैं जिस काम के लिए यहां आया था वह तो पूरा हुआ ही नहीं, मुझे सब काम छोड़कर सीताजी को खोजना चाहिए ।’
यह सोचकर ब्रह्मचर्य का मूर्तिमान रूप हनुमानजी दूसरी जगह सीताजी को खोजने लगे ।
‘जहां काम तहँ राम नहिं, जहां राम नहिं काम’ अर्थात् जिसके मन में काम भावना होती है वह श्रीराम की उपासना नहीं कर सकता और जो श्रीराम को भजता है, वहां काम ठहर नहीं सकता । हनुमानजी के तो रोम-रोम में राम बसे हैं और वे सारे संसार को ‘सीयराममय’ देखते थे, इसीलिए हनुमानजी को आजन्म ब्रह्मचर्य का पालन करना असम्भव नहीं था । हनुमानजी के अखण्ड ब्रह्मचर्यव्रत में कोई त्रुटि नहीं आई । उनके मन में जो पश्चात्ताप जगा था, वह ब्रह्मचर्य-व्रत के प्रति उनकी प्रबल निष्ठा और जागरुकता का सूचक है । इसीलिए वे ‘जितेन्द्रिय’ कहलाते हैं और प्रभु श्रीराम के अंतरंग पार्षद होकर उनकी अष्टयाम-सेवा का सौभाग्य भी उन्हें ही प्राप्त हुआ है और माता सीता के अजर-अमर रहने के आशीर्वाद से ही सप्त चिरंजीवियों में उनका नाम है ।
संसार में ब्रह्मचर्य एक ऐसी तपस्या है, जिसको सिद्ध कर लेने पर मनुष्य में अनेक दिव्य और दुर्लभ गुण आ जाते हैं और जिसके बल पर मनुष्य महान-से-महान कार्य कर सकता है । सच्चे ब्रह्मचारी के लिए कोई भी बात असम्भव नहीं होती है । हनुमानजी ब्रह्मचारियों में अग्रग्रण्य हैं । हनुमानजी का आजन्म नैष्ठिक ब्रह्मचर्य-पालन का आदर्श अद्वितीय है इसीलिए वे ‘सकलगुणनिधान’ हैं ।
अंजनीगर्भसम्भूतो वायुपुत्रो महाबल:।
कुमारो ब्रह्मचारी च हनुमन्ताय नमो नम: ।।
आज देश में नवयुवकों में जो चारित्रिक पतन देखने को मिल रहा है उसका उत्तर स्वामी विवेकानन्द के शब्दों में है—‘देश के उद्धार के लिए श्रीराम और हनुमानजी की उपासना जोरों से प्रचलित की जानी चाहिए ।’ क्योंकि हनुमानजी की उपासना से भक्तों में भी उनके गुण प्रकट होने लगते हैं ।
अर्चना जी नमस्कार, आपने बहुत ही सुंदर लेख लिखा हैं, जो दिल को छू गयी।ये लेख बहुत प्रेरणा प्रद हैं और भारतीय साहित्य और संस्कृति की और पुनः रुचि जगाने में अत्यंत महतपूर्ण भूमिका निभा सकती हैं। मैं यूँही अनायास internet पर यह लेख पढ़कर बहुत प्रभावित हुआ और निश्चय ही आपके बाक़ी लेख भी पढ़ूँगा। मंगल हो।