तन छार ब्याल कपाल भूषन नगन जटिल भयंकरा।
सँग भूत प्रेत पिसाच जोगिनि बिकट मुख रजनीचरा।।
जो जिअत रहिहि बरात देखत पुन्य बड़ तेहि कर सही।
देखिहि सो उमा बिबाहु घर घर बात असि लरिकन्ह कही। (श्रीरामचरितमानस)
अर्थात्–’दूल्हा भगवान शिव के शरीर पर राख (भस्म) लगी है, साँप और कपाल के गहने हैं, वह नंगे, जटाधारी और भयंकर हैं। उनके साथ भयानक मुखवाले भूत, प्रेत, पिशाच, योगिनियां और राक्षस हैं। जो बारात को देखकर जिन्दा बचेगा, सचमुच उसके बड़े ही पुण्य हैं और वही पार्वती का विवाह देखेगा। लड़कों ने घर-घर जाकर यह बात कही।’
सप्तर्षियों द्वारा पर्वतराज हिमालय को पार्वती का विवाह शिव से करने की प्रेरणा देना
सप्तर्षियों ने हिमालय से कहा–’पर्वतराज! शिवजी जगत के पिता हैं और पार्वती जगत की माता मानी गयी हैं। शिव को अपनी कन्या देकर तुम कृतार्थ हो जाओगे।’ पर्वतराज हिमालय ने कुछ भयभीत होते हुए कहा–’मेरा हृदय शूलपाणि को अपनी कन्या देने की अनुमति नहीं दे रहा है। जिसके पास न कोई राजाओं-सी सामग्री है, न ऐश्वर्य, न स्वजन और न बन्धु-बान्धव ही हैं; रहने तक को अपना घर भी नही है, उसे भला कोई पिता अपनी कन्या देने की मूर्खता करेगा?’ परन्तु बोलने में निपुण सप्तर्षियों ने पर्वतराज हिमालय और महारानी मेना को अपनी कन्या शिव को समर्पित करने के लिए राजी कर लिया।
शिवगणों ने वर का किया श्रृंगार
श्रीरामचरितमानस में गोस्वामी तुलसीदासजी ने शिवजी के दूल्हा वेष का बड़ा ही सुन्दर चित्रण किया है–
सिवहि संभु गन करहिं सिंगारा।
जटा मुकुट अहि मौरु सँवारा॥
कुंडल कंकन पहिरे ब्याला।
तन बिभूति पट केहरि छाला।।
ससि ललाट सुंदर सिर गंगा।
नयन तीनि उपबीत भुजंगा॥
गरल कंठ उर नर सिर माला।
असिव बेष सिवधाम कृपाला।।
कर त्रिसूल अरु डमरु बिराजा।
चले बसहँ चढ़ि बाजहिं बाजा॥
देखि सिवहि सुरत्रिय मुसुकाहीं।
बर लायक दुलहिनि जग नाहीं॥
बिष्नु बिरंचि आदि सुरब्राता।
चढ़ि चढ़ि बाहन चले बराता॥
सुर समाज सब भाँति अनूपा।
नहिं बरात दूलह अनुरूपा।। (मानस १।९२।१-८)
अर्थात्–शिवजी के गण शिवजी का श्रृंगार करने लगे। जटाओं का मुकुट बनाकर उस पर साँपों का मौर सजाया गया। शिवजी ने साँपों के ही कुंडल और कंकण पहने, शरीर पर विभूति रमायी और वस्त्र की जगह बाघम्बर लपेट लिया। शिवजी के सुंदर मस्तक पर चन्द्रकला, सिर पर गंगाजी, तीन नेत्र, साँपों का जनेऊ, गले में विष और छाती पर नरमुण्डों की माला थी। इस प्रकार उनका वेष अशुभ होने पर भी वे कल्याण के धाम और कृपालु हैं। एक हाथ में त्रिशूल और दूसरे में डमरू सुशोभित है। गणों के मध्य परम गुणी, दस भुजाओं से युक्त, हाथ में पिनाक, शूल और कपाल लिए, गजचर्म ओढ़े हुए शिवजी सफेद स्फटिक के समान धर्मरूपी वृषभ पर सवार होकर गौरा को ब्याहने चले हैं। बाजे बज रहे हैं। शिवजी को देखकर देवांगनाएँ मुस्कुरा रही हैं और कहती हैं कि इस वर के योग्य दुलहिन संसार में नहीं मिलेगी।
जैसा दूल्हा वैसी ही उसकी बारात
जस दूलहु तसि बनी बराता।
कौतुक बिबिध होहिं मग जाता।।(मानस १।९४।१)
देवताओं के साथ शिवजी के गण भी बराती बने–प्रेत के आसन पर सवार शिव की भगिनी (बहन) चण्डी, भूत-प्रेत, पिशाच, वेताल, ब्रह्मराक्षस, शाकिनी, प्रमथ, यातुधान, तुम्बुरु, हाहा, हूहू, गंधर्व, किन्नर आदि समस्त रुद्रसेना।
कोउ मुख हीन विपुल मुख काहू।
बिनु पद कर कोउ बहु पद बाहू।।
विपुल नयन कोउ नयन बिहीना।
रिष्टपुष्ट कोउ अति तनखीना। (मानस १।९३।७-८)
बारात हिमालयपुरी में प्रवेश कर चुकी थी। श्मशाननिवासी ढेर-के-ढेर भूत-पिशाच नगर की वीथिकाओं में घूम रहे थे। भय के मारे नगर के सारे घरों के द्वार बन्द हो गए। छोटे-छोटे बालक घबराहट के कारण अपने घर का रास्ता ही भूल गए और घर-घर जाकर कहने लगे–’प्रेत, बेताल और भयंकर भूत बराती हैं तथा बावला वर बैल पर सवार है। हम सत्य कहते हैं, जो जीते बच गए तो करोड़ों ब्याह देखेंगे।’
बारात में भगवान शिव के भयानक एवं सौम्य दोनों ही रूपों के दर्शन
पार्वतीजी के साथ विवाह के अवसर पर बारात में भगवान शिव के भयानक एवं सौम्य दोनों ही रूपों के दर्शन हुए हैं। महारानी मेना ने पर्वतराज हिमाचल से कहा–’गिरिजा के होने वाले पति को पहले मैं देखूंगी। शिव का कैसा रूप है, जिसके लिए मेरी बेटी ने ऐसी उत्कृष्ट तपस्या की है।’ भगवान शिव महारानी मेना के भीतर के अहंकार को जान गए और उन्होंने अद्भुत लीला की।
महारानी मेना के अहंकार को दूर करने के लिए शिव ने रचा अद्भुत रूप
भगवान शिव महारानी मेना के सामने आए। वे वृषभ पर सवार थे। उनके पांच मुख थे और प्रत्येक मुख में तीन-तीन नेत्र। सारे अंगों में विभूति लगाये, मस्तक पर जटाजूट, चन्द्रमा का मुकुट, दस हाथ और उनमें कपाल, पिनाक, त्रिशूल और ब्रह्मरूपी डमरु आदि लिए, बाघंबर का दुपट्टा, भयानक आंखें, आकृति विकराल और हाथी की खाल का वस्त्र। भगवान शिव स्वयं जितने अद्भुत थे उनके अनुचर भी उतने ही निराले थे। शंकरजी के विकट वेष को देखकर स्त्रियां भयभीत हो गयीं।
विकट बेष रुद्रहि जब देखा।
अबलन्ह उर भय भयउ बिसेषा।।
भागि भवन पैठीं अति त्रासा।
गए महेसु जहां जनवासा।। (मानस १।९६।४-५)
महारानी मेना का नारदजी, पार्वती आदि को फटकारना
राजा हिमाचल के घर में प्रलय मच गया। शिव के स्वरूप को देखकर महारानी मेना मूर्छित होकर गिर पड़ी। फिर सचेत होकर नारद को कोसने लगीं–’दुर्बुद्धि देवर्षि! तुमने मुझ नारी को ठग लिया। हाय मैं क्या करुं? कहां जाऊं? कहां गये वे भविष्यवक्ता ऋषि! अगर मिल जाएं तो मैं उनकी दाढ़ी-मूंछ ही उखाड़ लूं। इस समय वशिष्ठ की तपस्विनी पत्नी भी न जाने कहां चली गयी, वही आई थी अगुआ बनकर।’
क्रोधावेश में महारानी मेना अपनी पुत्री को भी कटु वचन सुनाने लगीं–’अरी दुष्ट लड़की! तूने स्वयं ही स्वर्ण की मुद्रा देकर कांच खरीदा है। चंदन छोड़कर पंक (कीचड़) लपेटा है। हंस उड़ाकर पिंजड़े में कौआ पाल लिया है। सूर्य छोड़कर खद्योत (जुगनू) पकड़ लिया है। सिंह को छोड़कर सियार का आश्रय लिया है। रेशमी वस्त्र को त्यागकर चमड़ा क्यों पहनना चाहती है?’
‘कहां तुम कमल के समान विशाल नेत्र वाली और कहां शिव भयंकर तीन नेत्रों वाले विरुपाक्ष? कहां तुम चन्द्रमा के समान मुख वाली और कहां शिव पांच मुख वाले, तुम्हारे सिर पर सुन्दर वेणी और शिव के सिर पर जटाजूट, तुम्हारे शरीर पर चंदन का लेप और शिव के शरीर पर चिताभस्म, कहां तुम्हारा दुकूल और कहां शिव का गजचर्म! कहां तुम्हारे दिव्य आभूषण-हार और कहां शिव के सर्प और उनकी मुण्डमाला! कहां सभी देवता तुम्हारे सेवक और कहां भूतों तथा बलि को प्रिय समझने वाला वह शिव! कहां तुम्हें सुख देने वाला मृदंगवाद्य और कहां उनका डमरु? कहां तुम्हारी भेरी की ध्वनि और कहां उनका अशुभ श्रृंगी का शब्द! कहां तुम्हारे बाजे ‘ढक्का’ का शब्द और कहां उनका अशुभ गले का शब्द। उन्होंने तुम्हारे प्रिय कामदेव को भी भस्म कर दिया है।’
‘उनकी न जाति का पता है और न ही ज्ञान और विद्या का। न तो उनके पास धन है, न घर, न ही उनके माता-पिता और बन्धु हैं। इनकी उम्र भी विवाह-योग्य नहीं है। गले में विष दिखायी पड़ता है। वाहन भी बैल है। भूत पिशाच ही उनके सहायक हैं। स्त्रियों को सुख देने वाले जो गुण वरों में बताए गए हैं, वे एक भी उनमें नहीं है। लोक में प्रसिद्ध है कि–
कन्या वरयते रूपं माता वित्तं पिता श्रुतम्।
बान्धवा: कुलमिच्छन्ति मिष्टान्नमितरे जना:।।
अर्थात्–’वर के अंदर कन्या रूप, माता धन, पिता विद्या तथा बन्धु-बान्धव अच्छा कुल देखना चाहते हैं, किन्तु अन्य आदमी मिठाइयों पर नजर रखते हैं।’
‘अब तुम ही देखो उस विरुपाक्ष में इनमें से कौन-सी बात है? पार्वती! तेरी बुद्धि को धिक्कार है, तुझे धिक्कार है। तूने गिरिराज के इस कुल का उपहास करा दिया।’
पितरों की मानसी कन्या महारानी मेना का क्रोध जब चरम पर पहुंच गया, तब स्वयं पार्वती ने कहा–’मां, आपकी बुद्धि इस समय इतनी विपरीत कैसे हो गयी! शिव स्वयं साक्षात् ईश्वर हैं, देवों के देव महादेव हैं, सुन्दर हैं, कल्याणकारी हैं। वह स्वयं अकिंचन हैं किन्तु ब्रह्माण्ड की सब सम्पत्तियां उनके पैरों में लोटती हैं। शिव के वास्तविक तत्त्व को समझने वाला कोई है ही नहीं। मैंने मन-वचन-कर्म से शिव का वरण कर लिया है। आप मुझे शिव के हाथों में सौंपकर अपना जीवन सफल करें।’
महारानी मेना के शिव-पार्वती विवाह के विरुद्ध होने से वरपक्ष के भी छक्के छूट गए। तब नारदजी ने राजा हिमाचल के महल में जाकर पार्वती के पूर्वजन्म की कथा सुनाकर और शिव के साथ उनका सनातन सम्बन्ध बताकर सभी का भ्रम दूर कर दिया।
मयना सत्य सुनहु मम बानी।
जगदंबा तव सुता भवानी।।
अजा अनादि सक्ति अबिनासिनी।
सदा संभु अरधंग निवासिनी।। (मानस १।९८।२-३)
स्वयं भगवान विष्णु द्वारा समझाए जाने पर महारानी मेना इस शर्त पर राजी हुईं कि शिव इस अमंगल वेष को त्यागकर सुन्दर वेष में मेरी पुत्री से विवाह के लिए आएं तभी मैं अपनी पुत्री उन्हें दूंगी।
भगवान शंकर का मंगलमय वैवाहिक वेष
शूलपाणि शिव ने देखा कि मेना के अनुरूप ही स्वरूप धारण करने के अतिरिक्त और कोई मार्ग नहीं है। अत: लौकिक गति को देखकर और देवताओं के मनाने पर भूतनाथ शिव ने अपना सहज वेष बदल लिया। ब्याह तो ब्याह ही है, चाहें ईश्वर का ही क्यों न हो।
लखि लौकिक गति संभु जानि बड़ सोहर।
भए सुंदर सत कोटि मनोज मनोहर।।
नील निचोल छाल भइ फनि मनि भूषन।
रोम रोम पर उदित रूपमय पूषन।।
गन भए मंगल बेष मदन मन मोहन।
सुनत चले हियँ हरषि नारि नर जोहन।। (पार्वती मंगल)
मंगलमय वैवाहिक वेष में भगवान शिव करोड़ों सूर्यों के समान तेजस्वी, कामदेव से भी अधिक सर्वांग सुन्दर, प्रसन्न मुद्रायुक्त, मनोहर गौरवर्ण, लावण्य से युक्त, मालती की माला पहने, रत्नजटित मुकुट धारण किए, गले में सुन्दर हार व हाथों में कंगन व बाजूबन्द पहने, बहुमूल्य रेशमी वस्त्र धारण किए, चंदन-अगरु-कस्तूरी के लेप लगाये, हाथ में रत्नमय दर्पण लिए हैं।
उनका गजचर्म नीलाम्बर हो गया और जितने सर्प थे, वे मणिमय आभूषण हो गए। विष्णु आदि समस्त देवता बड़े प्रेम से उनकी सेवा कर रहे थे। सूर्यदेव ने छत्र लगा रखा था। चन्द्रदेव मस्तक पर मुकुट बनकर उनकी शोभा बढ़ा रहे थे। गंगा और यमुना भगवान शिव को चंवर डुला रही थीं। आठों सिद्धियां उनके आगे नाच रही थीं। अप्सराओं के साथ गंधर्व शिवजी का यशोगान करते हुए चल रहे थे। उनको देखकर ऐसा जान पड़ता था मानो शिवजी शारदीय पूर्णिमा के चन्द्रमा हैं, देवतालोग नक्षत्रों के समान हैं तथा उन्हें देखने के लिए उनके चारों ओर नगरवासी चकोरों के समुदाय की भांति सुन्दर लग रहे थे। शिवजी के गणों का वेष भी मंगलमय हो गया।
ऐसे सुन्दर रूप वाले उत्कृष्ट देवता भगवान शिव को जामाता के रूप में देखकर महारानी मेना चित्रलिखी-सी रह गयीं और चन्द्रलेखा से अलंकृत दूल्हे की आरती उतारते हुए महारानी सखियों से कह रही थीं–’ऐसा अवर्णनीय मनोहर स्वरूप?’
महारानी मेना की सारी चिन्ता व शोक दूर हो गए और उन्होंने अपने पहले अक्षम्य व्यवहार के लिए शिवजी से क्षमा मांगी। इस प्रकार विचित्र दूल्हे का अपनी नित्यसंगिनी से संयोग हुआ–
करहिं बिबिध बिधि भोग बिलासा।
गनन्ह समेत बसहिं कैलासा।। (मानस १।१०३।५)
भगवान शिव के विचित्र वरवेष का भाव
भगवान शिव संसार के विचित्र दूल्हे हैं, सबसे अलग, एकदम न्यारे। मनुष्य जब विवाह करता है तो उसे उबटन, हल्दी, तेल-फुलेल आदि लगाकर सुन्दर बनाने की कोशिश की जाती है। परन्तु भगवान शिव ने वरवेष में भी भस्म धारण कर शरीर की नश्वरता का बोध कराया और संदेश दिया कि जीवन में शरीर मुख्य नहीं है, वह तो एक दिन भस्म होने वाला है। भगवान शिव ने सर्वलोकों के अधिपति होकर भी विभूति और व्याघ्रचर्म को अपना भूषण-वसन बनाकर संसार में वैराग्य को ही श्रेष्ठ बतलाया है।
वरवेष में मनुष्य को आभूषण पहनाए जाते हैं। शिवजी ने आभूषण में सर्प (भुजंग) लिपटाकर यही संदेश दिया कि यदि आभूषणों में ज्यादा आसक्ति हुई तो भूषण ही भुजंग की तरह डसने लगेंगे। सम्पत्ति का अतिरेक विपत्ति है। अति सुख का दूसरा नाम दु:ख है। शिवजी ने आभूषण के रूप में सर्प लिपटाकर जगत को अनासक्ति का आदर्श दिखाया।
वरवेष में मनुष्य हाथ में तलवार रखता है किन्तु शिवजी ने त्रिशूल के रूप में तीन शूलों–काम, क्रोध और लोभ–को अपने हाथ में पकड़ा है अर्थात् इन तीनों दुर्गुणों पर शिवजी का नियन्त्रण है।
वरवेष में मनुष्य घोड़ी पर बैठता है पर शिव नन्दी (बैल) पर सवार होकर गौरा को ब्याहने चले हैं। चार पैर वाला नन्दी धर्म का स्वरूप है। नन्दी की सवारी कर शिवजी यही संदेश देते हैं कि मेरा गृहस्थ जीवन भी धर्ममय होगा।
शिवजी की बारात में रुद्रसेना–तामस से तामस यक्ष, भूत, प्रेत, पिशाच, बेताल, डाकिनी शाकिनी इसी तथ्य को इंगित करते हैं कि परमेश्वर वही है जिसे सब पूजें।
शिव ही निराकार, निर्गुण, निष्कल ब्रह्म हैं और उमा ही उनकी माया है। माया होने से ही शिव सगुण साकार और सविशेष हो जाते हैं। वही शिव अपनी माया उमा के साथ कभी संयोगी होते हैं, तो कभी वियोगी होते हैं और जगत के कल्याण के लिए अनेक लीलाएं किया करते हैं–‘तुम्ह माया भगवान शिव सकल जगत पितु मातु।’