bhagwan shiv pooja

आज के भाग-दौड़ भरे जीवन, मंहगाई व महामारी के संकटकाल मे हर किसी के लिए भगवान की विधिवत् पूजा के लिए न तो समय है, न ही शक्ति और न ही साधन । साथ ही संसार में ऐसे दिव्य पदार्थ उपलब्ध नहीं हैं, जिनसे परमात्मा की पूजा की जा सके । हिन्दू धर्मशाल्त्र समुद्र की तरह अगाध हैं । उनमें हर समस्या का समाधान निहित है । भौतिक पूजा में असमर्थ होने पर शास्त्रों में एक अत्यंत सरल व सबके लिए सुगम साधन बताया गया है और वह है—भगवान की मानस-पूजा । 

मानस या मानसी-पूजा का प्रचलन उतना ही प्राचीन है जितना कि भगवान । पूर्वकाल में ऋषि-मुनि घोर जंगलों व अरण्यों में रह कर तपस्या किया करते थे । उनके पास पूजा के भौतिक साधन उपलब्ध नहीं रहते थे । अत: वे ध्यान में ही भगवान की मानस-पूजा किया करते थे । 

मानस-पूजा में मन के घोड़े दौड़ाने और कल्पनाओं की उड़ान भरने की पूरी छूट होती है । इसमें मनुष्य स्वर्गलोक की मन्दाकिनी के जल से अपने आराध्य को स्नान करा सकता है, कामधेनु के दुग्ध से पंचामृत का निर्माण कर सकता है, सोने-चांदी-हीरे-जवाहरात से बने वस्त्राभूषण धारण करा सकता है, कुबेर की पुष्पवाटिका के स्वर्ण-कमल व पारिजात पुष्पों की माला पहना सकता है, कस्तूरी चंदन का लेप लगा कर, गुग्गुल और शुद्ध घी की बनी धूप दिखा कर और मन से ही छप्पन-भोग लगा कर भगवान को हजार गुना अधिक संतोष दे सकता है । ऐसी मानस पूजा से भक्त और भगवान को कितना संतोष मिलता होगा, यह शब्दों में बयान नहीं किया जा सकता । इसमें भक्त और भगवान के बीच बना सम्पर्क गाढ़-से-गाढ़ होता जाता है । भगवान को दिव्य पदार्थ अर्पण करते समय जब उनकी सुगन्ध साधक की सांसों से टकराती है तो उसकी नस-नस में भगवत्प्रेम की मादकता भर जाती है । ‘हर्र लगे न फिटकरी’ भक्त और भगवान दोनों खुश ।

श्रीआदि शंकराचार्यजी ने भगवान शिव की मानस पूजा का एक स्तोत्र लिखा है, जो हिन्दी अर्थ सहित इस प्रकार है—

भगवान शिव मानस पूजा स्तोत्र (हिन्दी अर्थ सहित)

रत्नै: कल्पितमासनं हिमजलै: स्नानं च दिव्याम्बरं
नानारत्नविभूषितं मृगमदामोदांकितं चन्दनम् ।
जातीचम्पकबिल्वपत्ररचितं पुष्पं च धूपं तथा
दीपं देव दयानिधे पशुपते हृत्कल्पितं गृह्यताम् ।। १ ।।

हे दयानिधि पशुपति ! हे देव ! यह रत्ननिर्मित सिंहासन, शीतल जल से स्नान, अनेक प्रकार के रत्नजड़ित दिव्य वस्त्र, कस्तूरी की गंध वाला चंदन, जूही-चम्पा और बिल्वपत्र की पुष्पांजलि तथा धूप-दीप—यह सब मानसिक पूजा के उपचार आप ग्रहण कीजिए ।

सौवर्णे नवरत्नखण्डरचिते पात्रे घृतं पायसं
भक्ष्यं पंचविधं पयोदधियुतं रम्भाफलं पानकम् ।
शाकानामयुतं जलं रुचिकरं कर्पूरखण्डोज्ज्वलं
ताम्बूलं मनसा मया विरचितं भक्त्या प्रभो स्वीकुरु ।। ३ ।।

मैंने नवरत्नों के खण्डों से जड़े सोने के पात्र में घी मिलाई हुई खीर, दूध और दही सहित पांच प्रकार के व्यंजन, कदलीफल (केले), शर्बत, तरह-तरह के शाक (साग), कर्पूर मिश्रित स्वच्छ व मीठा जल और ताम्बूल—ये सब मन के द्वारा ही बना कर आपके लिए प्रस्तुत किए हैं । हे प्रभो ! कृपया इन्हें स्वीकार कीजिए ।

छत्रं चामरयोर्युगं व्यजनकं चादर्शकं निर्मलं
वीणाभेरिमृदंगकाहलकला गीतं च नृत्यं तथा ।
साष्टांगं प्रणति: स्तुतिर्बहुविधा ह्येतत्समस्तं मया
संकल्पेन समर्पितं तव विभो पूजां गृहाण प्रभो ।। ३ ।।

छत्र, दो चंवर, सुन्दर स्वच्छ दर्पण, वीणा, भेरी, मृदंग, दुन्दुभी आदि वाद्य, गान और नृत्य, साष्टांग प्रणाम, नाना प्रकार की स्तुति—ये सब मैं संकल्प से ही आपको समर्पित करता हूँ । हे प्रभो ! आप मेरी यह पूजा ग्रहण कीजिए ।

आत्मा त्वं गिरिजा मति: सहचरा: प्राणा: शरीरं गृहं
पूजा ते विषयोपभोगरचना निद्रा समाधिस्थिति: ।
संचार: पदयो: प्रदक्षिणविधि: स्तोत्राणि सर्वा गिरो 
यद्यत्कर्म करोमि तत्तदखिलं शम्भो तवाराधनम् ।। ४ ।।

हे शम्भो ! मेरी आत्मा तुम हो, बुद्धि पार्वतीजी हैं, प्राण आपके गण हैं, शरीर आपका मन्दिर है, समस्त विषय-भोग की रचना (घर, व्यवसाय, पत्नी, पुत्र) आपकी पूजा है, निद्रा समाधि है, मेरा चलना-फिरना आपकी परिक्रमा है तथा समस्त शब्द आपके स्तोत्र हैं । इस प्रकार मैं जो-जो भी कर्म करता हूँ, वह सब आपकी पूजा-आराधना ही है ।

करचरणकृतं वाक्कायजं कर्मजं वा
श्रवणनयनजं वा मानयं वापराधम् ।
विहितमविहितं वा सर्वमेतत्क्षमस्व
जय जय करुणाब्धे श्रीमहादेव शम्भो ।। ५ ।।

हे प्रभो ! मैंने हाथ, पैर, शरीर, कर्म, कानों, नेत्र और मन से जो भी अपराध किए हों; वे विहित हों या अविहित, उन सबको आप क्षमा कीजिए । करुणा के सागर महादेव शंकर ! आपकी जय हो ।

॥ इति श्रीमद् शंकराचार्य विरचिता शिव मानस पूजा समाप्ता ॥

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here