shiv ke roop

माथे में त्रिपुण्ड बिधु बालहू बिराजै ‘प्रेम’,
जटन के बीच गंगधार को झमेला है।
सींगी कर राजै एक कर में त्रिसूल धारे,
गरे मुंडमाल घाले काँधे नाग-सेला है।।
कटि बाघछाला बाँधे भसम रमाये तन,
बाम अंग गौरी देवी चढ़न को बैला है।
धेला है न पल्ले, खरचीला है अजूबी भाँति,
ऐसा गिरिमेला देव संभु अलबेला है।।

तन पर वस्त्र नहीं, दिशाएं ही जिनका वस्त्र है, कमर पर बाघम्बर या हाथी की खाल और सांप लपेट लेते हैं, नहीं तो बर्फीले पहाड़ों पर दिगम्बर ही घूमते हैं, चिता की भस्म ही जिनका अंगराग है, गले में मुण्डों की माला, केशराशि को जटाजूट बनाए, कण्ठ में विषपान किए हुए, अंगों में सांप लपेटे हुए, क्रीड़ास्थल श्मशान, प्रेत-पिशाचगण जिनके साथी हैं, एकान्त में उन्मत्त जैसे नृत्य करते हुए–ऐसा रुद्र स्वरूप, पर नाम देखो तो ‘शिव’। संसार में वे अपने भक्तों के लिए सर्वाधिक मंगलमय हैं। यह विरोधाभास भी बड़ा रहस्यपूर्ण हैं। ‘शिव’ जब अपने स्वरूप में लीन रहते हैं तब वह सौम्य रहते हैं, जब संसार के अनर्थों पर दृष्टि डालते हैं तो भयंकर हो जाते हैं।

नागेन्द्रहाराय त्रिलोचनाय भस्मांगरागाय महेश्वराय।
नित्याय शुद्धाय दिगम्बराय तस्मै ‘न’काराय नम: शिवाय।।

भगवान शिव का सगुण स्वरूप इतना अद्भुत, मधुर, मनोहर और मोहक है कि उनकी तेजोमयी मंगलमूर्ति को देखकर स्फटिक, शंख, कुन्द, दुग्ध, कर्पूर, चन्द्रमा आदि सभी लज्जित हो जाते हैं। समुद्र-मंथन से उद्भूत अमृतमय पूर्णचन्द्र भी उनके मनोहर मुख की आभा से लज्जित हो उठता है। मनोहर त्रिनयन, बालचन्द्र, जटामुकुट और उस पर दूध जैसी स्वच्छ गंगधारा मन को हठात् हर लेती है। हिमाद्रि के समान स्वच्छ व धवलवर्ण नन्दी पर जब शिव शक्तिरूपा उमा के साथ विराजमान होते हैं तब ऐसे शोभित होते हैं जैसे साक्षात धर्म के ऊपर ब्रह्मविद्या ब्रह्म के साथ विराजमान हैं।

भगवान शिव के विभिन्न नाम

‘शिव’ शब्द का अर्थ है ‘कल्याण’। शिव ही शंकर है। ‘शं’ का भी अर्थ है ‘कल्याण’; कर का अर्थ है–करने वाला, अर्थात् कल्याण करने वाला। पुराणों में भगवान शिव के अनेक नाम प्राप्त होते हैं। भगवान शिव के नामों का इतिहास उनकी अनेक क्रीड़ाओं, रूप, गुण, धाम, वाहन, आयुध आदि पर आधारित हैं। इनमें पांच नाम विशेष रूप से प्रमुख हैं–ईशान, अघोर, तत्पुरुष, वामदेव और सद्योजात।  समस्त जगत के स्वामी होने के कारण शिव ‘ईशान’ तथा निन्दित कर्म करने वालों को शुद्ध करने के कारण ‘अघोर’ कहलाते हैं। अपनी आत्मा में स्थिति-लाभ करने से वे ‘तत्पुरुष’ और विकारों को नष्ट करने के कारण ’वामदेव’ तथा बालकों के सदृश्य परम स्वच्छ और निर्विकार होने के कारण ‘सद्योजात’ कहलाते हैं। सोम-सूर्य-अग्निरूप तीन नेत्र होने से वे ‘त्र्यम्बकेश्वर’ कहलाए। ब्रह्मा से लेकर स्थावरपर्यन्त सभी जीव पशु माने गए हैं, अत: उनको अज्ञान से बचाने के कारण वे ‘पशुपति’ कहलाते हैं। शिवजी के उपासकों में उनका ‘महाभिषक्’ नाम अत्यन्त प्रिय है। देवों के देव होने के कारण उनकी ‘महादेव’ नाम से निरन्तर उपासना होती रही है। ‘सहस्त्राक्ष’ नाम उनकी प्रभुता का द्योतक है। सभी विद्याओं एवं भूतों के ईश्वर हैं, अत: ‘महेश्वर’ कहलाते हैं।

प्रणवस्वरूप चन्द्रशेखर शिव को ‘पुष्टिवर्धन’ भी कहा जाता है। यह नाम पुष्टि, पोषण और उनकी अनुग्रह शक्ति का द्योतक है। भगवान शिव ने हरिचरणामृतरूपा गंगा को जटाजूट में बांध लिया, अत: वे ‘गंगाधर’ कहलाए। कालकूट विष को अपनी योगशक्ति से आकृष्ट कर कण्ठ में धारण करके ‘नीलकण्ठ’ कहलाए। उसी समय उस विष की शान्ति के लिए देवताओं के अनुरोध पर चन्द्रमा को अपने ललाट पर धारणकर लिया और ‘चन्द्रशेखर, शशिशेखर’ कहलाए। भगवान शिव के मस्तक पर चन्द्रकला और गंगा–ये दोनों फायर-ब्रिगेड हैं जोकि उनके तीसरे नेत्र अग्नि और कण्ठ में कालकूट विष–इन दोनों को शान्त करने के लिए शीतल-तत्त्व हैं। कण्ठ में कालकूट विष और गले में शेषनाग को धारण करने से उनकी ‘मृत्युज्जयता’ स्पष्ट होती है। तामस से तामस असुर, दैत्य, यक्ष, भूत, प्रेत, पिशाच, बेताल, डाकिनी, शाकिनी, सर्प, सिंह–सभी जिसे पूजें, वही शिव ‘परमेश्वर’ हैं।

वे ‘नीलग्रीवी’, ‘नीलशिखण्डी’, ‘कृतिवासा’, ‘गिरित्र’, ‘गिरिचर’, ‘गिरिशय’, ‘क्षेत्रपति’ और ‘वणिक्’ आदि अनेक नामों से पूजे जाते हैं। शिव को उनके गुणों के कारण ‘मृत्युंजय’, ‘त्रिनेत्र, ‘पंचवक्त्र’, ‘खण्डपरशु’, ‘आदिनाथ’, ‘पिनाकधारी’, ‘उमापति’, ‘शम्भु’ और ‘भूतेश’ भी कहा गया है। वे ‘प्रमथाधिप’, ‘शूली’, ‘ईश्वर’, ‘शंकर’, ‘मृड’, ‘श्रीकण्ठ’, ‘शितिकण्ठ’, ‘विरुपाक्ष’, ‘धूर्जटि’, ‘नीललोहित’, ‘स्मरहर’, ‘व्योमकेश’, ‘स्थाणु’, ‘त्रिपुरान्तक’, ‘भावुक’, ‘भाविक’, ‘भव्य’, ‘कुशलक्षेम’ आदि नामों से भी अभिहित किए जाते हैं। पुराणों में भगवान शिव को विद्या का प्रधान देवता कहा गया है इसलिए उन्हें ‘विद्यातीर्थ’ और ‘सर्वज्ञ’ भी कहा जाता है।

शिवपुराण में शिव के निराकार एवं विराट् रूप का वर्णन मिलता है। शिव का एक नाम ‘अष्टमूर्ति’ है। इन अष्टमूर्तियों के नाम इस प्रकार हैं–शर्व, भव, रुद्र, उग्र, भीम, पशुपति, महादेव एवं ईशान। ये अष्टमूर्तियां क्रमश: पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, क्षेत्रज्ञ, सूर्य व चन्द्रमा को अधिष्ठित करती हैं। इनसे समस्त चराचर का बोध होता है। भक्ति-भावना से प्रेरित होकर शिवभक्तों ने शिव के अनेक नाम दिए है। किसी भक्त ने शिव को ‘अर्धनारीश्वर’ माना है, तो किसी ने उन्हें ‘मदनजित्’ कहा। किसी ने शिव को ‘भस्मधारी’ कहा।

मनुष्य संसार में बहुत दु:ख भोगता है जिनसे छुटकारा केवल प्रलय में ही मिलता है। शिव प्रलय के समय माता-पिता के समान सबको सुला देते हैं, सबके दु:खों को हर लेते हैं, अत: वे ‘हर’ कहलाते हैं और सभी को प्रलय के समय अपने स्वरूप में लीन कर परम शान्ति प्रदान करते हैं इसलिए ‘सदाशिव’ हैं। सभी सत्वगुण उन्हीं से प्रकट हैं, अत: वह सत्त्वगुण के समान स्वच्छ ‘कर्पूर-गौर’ हैं। वह पापियों को आध्यात्मिक, आधिदैविक और आधिभौतिक शूल (पीड़ा) देते हैं, इसलिए ‘त्रिशूलधारी’ हैं। प्रलयकाल में उनके अतिरिक्त दूसरा कोई नहीं रहता, ब्रह्माण्ड श्मशान हो जाता है, उसकी भस्म और रुण्ड-मुण्ड में वही व्यापते हैं अत: ‘चिता-भस्मालेपी’ और ‘रुण्ड-मुण्डधारी’ हैं। वह भूत, भविष्य और वर्तमान–तीनों को जानते हैं, इसी से ‘त्रिनयन’ कहलाते हैं। वृष का अर्थ है धर्म; शिवजी वृषभ पर चढ़ने वाले जाने जाते हैं अर्थात् धर्मात्माओं के हृदय में निवास करते हैं, वह धर्मारूढ़ हैं, इसी से ‘वृषवाहन’ हैं।

शिव के भयंकर व सौम्य दोनों ही रूप हैं। पुराणों में शिव के भयंकर रूप के अंतर्गत ‘कपाली’ रूप का वर्णन है। उनके इस रूप की आकृति भयावह है। उनकी जिह्वा और दृंष्ट्रा बाहर निकली हुई हैं। वे भीषण हैं। वस्त्रहीन होने से ‘दिगम्बर’ कहा जाता है। शरीर पर भस्म का अवलेपन हुआ है अत: ‘भस्मनाथ’ कहे जाते हैं। उनके हाथ में कपाल का कमण्डलु, गले में नरमुण्डमाला है व श्मशान उनकी प्रिय विहारभूमि है। शिव का एक नाम ‘रुद्र’ है क्योंकि वह दीन-दुखियों के दु:ख पर आँसू बहाते हैं तथा पापियों को रुलाते हैं। संहारकर्ता के रूप में उनका उग्र व ‘रुद्र’ रूप सामने आता है। इस रूप में उन्हें ‘चण्ड’, ‘भैरव’, ‘विरुपाक्ष’, ‘महाकाल’ आदि उपाधियां प्रदान की गईं। मत्स्यपुराण में शिव के इस रूप को साक्षात् ‘मृत्यु’ कहा गया है। इस रूप में उनके अनुचर दानव, दैत्य, यक्ष और गंधर्व रहते हैं। जैसे प्राणी कढ़ी-भात मिलाकर खा लेता है, वैसे ही विश्वसंहारक काल और समस्त प्रपंच को मिलाकर खाने वाले शिव मृत्यु का भी मृत्यु है, अत: ‘मृत्युज्जय’ भी वही है। शिव काल के भी काल है अत: ‘महाकाल’ या ‘महाकालेश्वर’ है।

पुराणों में शिव के उग्र रूप के साथ सौम्यरूप का भी उल्लेख किया गया है। इस रूप में वे सतत् मानवजाति के कल्याणकारी देवता हैं। वे ‘नटराज’ हैं, पार्वती के पति ‘उमामहेश्वर’ हैं, ‘अर्धनारीश्वर’ हैं, ‘हरिहर’ हैं, ‘वृषवाहन’ हैं, ‘लिंगमूर्ति’ हैं।

यजुर्वेद (१६।४१) में भगवान शंकर की विभिन्न नामों से स्तुति की गयी है–

‘नम: शम्भवाय च मयोभवाय च नम: शंकराय च मयस्कराय च नम: शिवाय च शिवतराय च।’
अर्थात–कल्याण एवं सुख के मूल स्त्रोत भगवान शिव को नमस्कार है। कल्याण के विस्तार करने वाले तथा सुख के विस्तार करने वाले भगवान शिव को नमस्कार है। मंगलस्वरूप और मंगलमयता की सीमा भगवान शिव को नमस्कार है।

गोस्वामी तुलसीदास ने अपने आराध्यदेव श्रीराम की भक्ति प्राप्त करने के लिए शिव की स्तुति की है। उन्होंने शिवजी के अनेक नामों का गुणगान किया है–

अहिभूषन दूषन-रिपु-सेवक देव-देव त्रिपुरारी।
मोह-निहार-दिवाकर संकर सरन-सोक-भयहारी।। (विनयपत्रिका पद ९)

संगीतज्ञ तानसेन भी शिव के नाम को एकमात्र आधार मानकर कहते हैं–

महादेव आदिदेव देवादेव महेश्वर ईश्वर हर।
नीलकंठ गिरजापति कैलासपति शिवशंकर भोलानाथ गंगाधर।।

तानसेन शिव से नाद-विद्या मांगते हुए उनके रूप का इस प्रकार का चित्रण करते हैं–

रूप बहुरूप भयानक बाघंकर।
अंबर खापर त्रिशूल कर।।
तानसेन को प्रभु दीने नाद विद्या।
संगत सौं गाऊँ बजाऊँ बीन कर धर।।

शिवालय का तत्त्व-रहस्य

प्राय: सभी शिव-मन्दिरों में प्रवेश करते ही सबसे पहले नन्दी के दर्शन होते हैं। उसके बाद कच्छप (कछुआ), गणेश, हनुमान, जलधारा, नाग आदि सभी शिव-मन्दिरों में विराजित रहते हैं। भगवान के इन प्रतीकों में बड़ा ही सूक्ष्मभाव व गूढ़ ज्ञान छिपा है।

नन्दी–यह सामान्य बैल नहीं है, यह ब्रह्मचर्य का प्रतीक है। भगवान धर्म ही नन्दी वृषभ के रूप में उनके वाहन बन गए हैं। जैसे नन्दी  शिव का वाहन है वैसे ही हमारी आत्मा का वाहन शरीर (काया) है। अत: शिव को आत्मा का एवं नन्दी को शरीर का प्रतीक माना जा सकता है। जैसे नन्दी की दृष्टि सदा शिव की ओर ही होती है, वैसे ही हमारा शरीर आत्माभिमुख बने अर्थात् शिवभाव से ओतप्रोत बने। इसके लिए तप एवं ब्रह्मचर्य की साधना जरूरी है। नन्दी के माध्यम से यही शिक्षा दी गई है।

कछुआ–कछुआ मन को दर्शाता है अर्थात् हमारा मन कछुए जैसा कवचधारी सुदृढ़ बनना चाहिए। जैसे कछुआ सदैव शिव की ओर ही गतिशील है, नन्दी की तरफ नहीं। वैसे ही हमारा मन भी आत्माभिमुख, शिवमय बनें, भौतिक या देहाभिमुख नहीं।

गणेश–जब मनुष्य के कर्म व मानसिक चिन्तन दोनों आत्मा की ओर बढ़ रहे हैं तब उनमें शिवरूपी आत्मा को प्राप्त करने की योग्यता आई है या नहीं, इसकी परख के लिए द्वार पर दो द्वारपाल खड़े हैं–गणेश और हनुमान।गणेशजी बताते हैं बुद्धि एवं समृद्धि का सदुपयोग करना। गणेशजी के हाथों में अंकुश आत्मनियन्त्रण व संयम का प्रतीक है। कमल निर्लेपता व पवित्रता का, पुस्तक उच्च विचारधारा की व मोदक मधुर स्वभाव का प्रतीक है। ऐसे गुण रखने पर ही मनुष्य शिव के दर्शन का पात्र होता है।

हनुमान— हनुमानजी विश्वहित के लिए सदैव सेवापरायण व संयमी रहे हैं। यही कारण है कि वे अर्जुन के रथ पर विराजित रहे व श्रीराम के प्रिय सेवक हैं। ऐसे गुणों से ही व्यक्ति शिवत्व का पात्र बनता है। गणेश और हनुमान की परीक्षाओं में उत्तीर्ण होने पर ही साधक को शिवरूप आत्मा की प्राप्ति हो सकती है। किन्तु इतनी कठिन परीक्षा में विजय मिलने पर साधक को अहंकार आ जाता है। इसीलिए शिव-मन्दिर में प्रवेशद्वार की सीढ़ी भूमि से कुछ ऊंची व प्रवेशद्वार भी कुछ छोटा होता है। ताकि साधक अत्यन्त विनम्रता व सावधानी से सिर झुकाकर अन्तिम प्रवेशद्वार में कदम रखे। अर्थात् अहंकार का तिमिर नष्ट होने पर ही उसे शिवलिंग के दर्शन होते हैं। शिव-मन्दिर में जो शिवलिंग है, उसे आत्मलिंग या ब्रह्मलिंग कहते हैं जो विश्व के कल्याण में निमग्न आत्मा है।

भगवान शिव के त्रिनेत्र, त्रिशूल, मुण्डमाला, कपाल, चिताभस्म आदि धारण करने का रहस्य

भगवान शिव के त्रिनेत्र, त्रिशूल, मुण्डमाला, कपाल, भस्म आदि धारण करने का गूढ़ रहस्य है। शिव के त्रिनेत्र, त्रिकाल अर्थात् भूत, भविष्य और वर्तमान-ज्ञान के बोधक हैं। तीनों नेत्र सूर्य, चन्द्रमा और अग्नि-स्वरूप हैं। शिव का मुण्डमाल मरणधर्मा प्राणी को सदैव मृत्यु का स्मरण कराता है जिससे वह दुष्कर्मों से दूर रहे। भगवान शिव द्वारा धारण किए जाने वाले कपाल, कमण्डलु आदि संतोषी, तपस्वी, अपरिग्रही जीवन के प्रतीक हैं। तीन दल वाला बिल्वपत्र, तीन नेत्र, त्रिपुण्ड, त्रिशूल तीनों गुणों–सत, रज, तम में समता करने का संकेत देते हैं। चिताभस्मालेप ज्ञान-वैराग्य व अविनाशी के वरण का संकेत हैं। चन्द्रकला धारण करने का कारण है कि उनके ललाट की ऊष्मा, जो त्रिलोकी को भस्म करने में सक्षम हैं, उन्हें पीड़ित न करे, इसीलिए उन्होंने अपने सिर पर गंगा और चन्द्र दोनों को धारण कर रखा है। डमरू-निनाद आत्मानन्द की आनन्दानुभूति का प्रतीक है। यह योगसाधना में भीतरी अनाहत नाद का संकेत है जिसे नाद ब्रह्म कहते हैं। काला नाग चिर समाधि-भाव का प्रतीक है। विश्व के कल्याण के लिए हलाहल को पी लेना एवं संसार के कोलाहल से दूर रहकर मृदंग, शृंग, घण्टा, डमरू के निनाद में मग्न रहना यानि अपनी आत्मा में स्थित रहना, यही शिवसंदेश है। कितने आश्चर्य की बात है कि कालकूट हलाहल विष का पानकर वे अजर-अमर और अविनाशी बन गए लेकिन देवता लोग जिन्होंने समुद्र-मंथन से उत्पन्न अमृत का पान किया, वे सर्वथा के लिए अजर-अमर नहीं हुए।

शिव पर अविरत टपकने वाली जलधारा जटा में स्थित गंगा का प्रतीक है, यह ज्ञानगंगा, स्वर्गीय दिव्य बुद्धि, गायत्री है, जो ब्रह्माण्ड से अवतरित चेतना है। शिव-मन्दिर की जलधारा उत्तर दिशा को बहती है। उत्तर दिशा में ध्रुव तारा ऊंचे स्थिर लक्ष्य का प्रतीक है। अत: शिव साधक की आत्मा सदा ऊंचे स्थिर लक्ष्य की ओर ही गति करती है। शिवलिंग यदि आत्मा है तो उनके साथ छाया की तरह स्थित पार्वती उनकी शक्ति हैं।

शिव दिगम्बर होते हुए भी भक्तों के ऐश्वर्य को बढ़ाने वाले हैं और मुक्त-हस्त से दान देने के कारण औघढ़दानी हैं। श्मशानवासी होते हुए भी तीनों लोकों के स्वामी हैं। अर्धनारीश्वर होते हुए भी योगाधिराज हैं। मदनजित् (कामदेव को जीतने वाले) होते हुए भी सदैव शक्ति (उमा) के साथ रहते हैं। भस्मधारी होते हुए भी अनेक रत्नराशियों के अधिपति हैं। अजन्मा होते हुए भी शिव अनेक रूपों में आविर्भूत भी हैं। गुणातीत हैं तो गुणाध्यक्ष भी हैं। अव्यक्त हैं तो व्यक्त भी हैं। शिव सगुण भी हैं, निर्गुण भी। वे साकार होकर भी निराकार हैं। शिव मन-बुद्धि से परे होते हुए भी बुद्धिगम्य हैं। शिव अणु से भी परम अणु हैं। महान से भी महान हैं।

भगवान शिव का अनोखा घर-संसार

भगवान शिव की गृहस्थी जितनी अद्भुत है शायद ही किसी की हो। पिता हैं चतुरानन (ब्रह्माजी), आप स्वयं हैं पंचानन (पंचमुख) और अपने एक पुत्र को बना दिया षडानन (छ: मुखवाला), दूसरे पुत्र के सिर पर हाथी का सिर जोड़ दिया। स्वयं हैं भस्मांगधारी, श्मशानविहारी, तो आपकी अर्धांगिनी है साक्षात् अन्नपूर्णा और समस्त ऐश्वर्यों की स्वामिनी पार्वती।
shiv parivar

कस्तूरिकाकुंकुमचर्चितायै चितारज:पुंजविचर्चिताय।
कृतस्मरायै विकृतस्मरायनम: शिवायै च नम: शिवाय।।
मन्दारमालाकलितालकायै कपालमालांकितकन्धराय।
दिव्याम्बरायै च दिगम्बराय नम: शिवायै च नम: शिवाय।।

चम्पापुष्पों-सी गोरी पार्वतीजी के शरीर में कस्तूरी व कुंकुम का लेप लगा है, वहीं कर्पूर से गोरे शंकरजी के शरीर पर चिताभस्म का लेपन है। पार्वतीजी कामदेव को जिलानेवाली हैं तो शंकरजी उसे नष्ट करने वाले हैं। पार्वतीजी के केशपाश मन्दार-पुष्पों की माला से शोभित हैं, जबकि भगवान शंकर के गले में मुण्डों की माला है। पार्वतीजी के अति दिव्य वस्त्र हैं, जबकि शंकरजी दिगम्बर हैं। सवारी के लिए रखा सीधा-सादा बैल और वह भी एकदम बूढ़ा। श्रृंगार के लिए रखे सर्प और मुण्डों की माला। पार्वतीजी लास्य नृत्य करती हैं तो जगत की रचना होती है, और शंकरजी के ताण्डव नृत्य से सृष्टि का संहार होता है।

भगवान शिव का परिवार बहुत बड़ा है। एकादश रूद्र, रुद्राणियां, चौंसठ योगिनियां, मातृकाएं तथा भैरवादि इनके सहचर तथा सहचरी हैं। शिवजी की बारात में उनकी बहिन चण्डीदेवी सांपों के आभूषणों से सजी प्रेत पर सवार हो, शत्रुओं को भयभीत करती हुई चल रहीं थीं। उनके गण कितने निराले हैं–भूत, प्रेत, बेताल, डाकिनी-शाकिनी, पिशाच, ब्रह्मराक्षस, क्षेत्रपाल, भैरव आदि–जिन्होंने उनके विवाह में बराती बनकर तहलका ही मचा दिया–

कोउ मुख हीन विपुल मुख काहू।
बिनु पद कर कोउ बहु पद बाहू।।
बिपुल नयन कोउ नयन बिहीना।
रिष्ट पुष्ट कोउ अति तनु खीना।।

ज्ञानानन्दस्वरूप, ज्ञानरूप, ज्ञानबीज, योगियों के गुरु के भी गुरु भोलानाथ इतने भोले भी नहीं हैं। उन्होंने सम्पूर्ण देव-सेना का सेनापतित्व अपने एक पुत्र (कार्तिकेय) को दे दिया तो सम्पूर्ण देवताओं में प्रथम पूज्य का पद अपने दूसरे पुत्र (गणेश) को प्रदान कर दिया। सम्पूर्ण ऐश्वर्य, सौभाग्य और समृद्धि की स्वामिनी का पद अपनी अर्धांगिनी को सौंप दिया और स्वयं देवों के देव महादेव बन बैठे। ज्ञान, वैराग्य तथा साधुता के परम आदर्श। चन्द्र, सूर्य इनके नेत्र, स्वर्ग सिर, आकाश नाभि, दिशाएं वस्त्र। इनके समान न कोई दाता है, न तपस्वी, न ज्ञानी है न त्यागी न वक्ता है न उपदेष्टा और न कोई ऐश्वर्यशाली। कोई पद बचा ही नहीं। महादेव स्वयं और महादेवी उनकी अर्धांगिनी। समस्त विघ्नों का विनाशक, अग्रपूज्य एक पुत्र तो दूसरा पुत्र सुरसेनानी। ऋद्धि-सिद्धि और देवसेना उनकी पुत्रवधुएं। हिमालय का सर्वोच्च शिखर उनका निवासस्थान है। लेकिन एक तरफ तो इनका इतना ऐश्वर्य दिखाई देता है वहीं दूसरी ओर इनका अद्भुत रूप–श्मशान में वास करते हैं और शरीर में भस्म रमाकर व्याघ्रचर्म पहनते हैं। इसका कारण यही है कि ऐसी वृत्ति को धारणकर भगवान शंकर यही संदेश देते हैं कि वैराग्यसुख से बढ़कर और कोई सुख नहीं है। बरबस ही मुख से इनके लिए  ‘भोलानाथ’ नाम निकल जाता है–

कैसे महेश्वर हैं तन में जब छार लपेटिकै बैल सवार हैं।
भक्तन के अभयंकर साथ भयंकर भूत-प्रेत अपार हैं।।
संकट में परि जात हैं आप यों औढरदान के हेतु तयार हैं।
भोले सदाशिव क्यों न बनैं घर भूलि दिन्हैं रुचे श्वेत पहार हैं।।

जिनका ऐसा अद्भुत वेष हो और गृह पालन की सामग्री–बूढ़ा बैल, खटिये का पाया, फरसा, चर्म, भस्म, सर्प, कपाल–इतनी कम हो, तो भभूतिया बाबा शंकर के घर बड़ी मुसीबत रहती है जगज्जननी को। गृहस्वामी के पांच मुख, बच्चे गजानन और षडानन, सवारी के लिए बुड्ढा बैल, खाने के लिए भांग-धतूरा, रहने के लिए सूनी दिशाएं, खेलने के लिए श्मशान और आभूषणों के लिए फुफकारते सर्प। ऐसी स्थिति में यदि मां अन्नपूर्णा न होतीं तो भोलेबाबा की गृहस्थी चलती कैसे? यह सब ऐश्वर्य पार्वतीजी का ही है। बेचारी पार्वतीजी बड़ी मुश्किल से इस अलबेले, अद्भुत परिवार को सम्भालती हैं। लेकिन शिवजी ने गंगा को सिर पर चढ़ा रखा है जिससे पार्वतीजी को दिन-रात सौतियाडाह हुआ करता है। इस सम्बन्ध ने एक कवि ने बहुत सुन्दर वर्णन किया है–

पार्वती–हे शिव! यह कौन है? शिव–हे सुन्दरी! किसके विषय में पूछ रही हो? पार्वती–जो आपके मस्तक पर स्थित है। शिव–क्या जटा के विषय में पूछ रही हो? पार्वती–नहीं, सफेद-सी वस्तु कौन-सी दिख रही है? शिव–हंस? पार्वती–क्या हंस जटा में रहता है? शिव–नहीं, यह चन्द्रमा है। पार्वती–तो क्या चन्द्रमा जल में रहता है? शिव–मुग्धे! यह विभूति है। पार्वती–इसमें जल कहां से आ गया? शिव–यह जल नहीं वरन् विभूति ही तरंगायमान हो रही है। इस प्रकार भगवान शंकर गंगा को छिपा रहे हैं। शिवजी की गृहस्थी क्या है, मानो झंझट की पिटारी है।

‘रारि सी मची है त्रिपुरारि के तबेला में’

इस परिवार के सदस्य ही अलबेले नहीं हैं बल्कि इनका तबेला जहां इनके वाहन रहते हैं वहां भी एक अद्भुत खटपट चलती रहती है। पिताजी के इस तबेले का हाल बुरा है–

बार बार बैल को निपट ऊँचो नाद सुनि
हुँकरत बाघ बिरझानो रस रेला में।
‘भूधर’ भनत ताकी बास पाइ सोर करि
कुत्ता कोतवाल को बगानो बगमेला में।।
फुंकरत मूषक को दूषक भुजंग तासों
जंग करिबे को झुक्यो मोर हद हेला में।
आपस में पारषद कहत पुकारि कछु
रारि सी मची है त्रिपुरारि के तबेला में।।

भोलेबाबा की सवारी है बैल और पार्वतीजी की सवारी है सिंह। अब भला बैल और सिंह कभी एक ही नाथ से नथे जा सकते हैं। गणेशजी को दिया चूहा और खुद रख लिया सांप और कार्तिकेयजी को दे दिया मोर। अब ये तीनों एक-के-ऊपर-एक सवारी करने को तैयार। क्या दृश्य होगा! फिर मजा ये कि जरा-सी खलबलाहट से भयंकर रूप से भौंकने वाला कुत्ता दे दिया अपने कोतवाल भैरवजी को और यह कुत्ता भी उसी तबेले में डाल दिया गया है, जहां बैल, सिंह, चूहा, मोर व सांप हैं।

शिवशिरोमालिकास्तुति में इससे सम्बन्धित बहुत ही सुन्दर वर्णन है–

कार्तिकेयजी जब अपने वाहन मोर पर चढ़कर अपने माता-पिता के चरणकमलों की सेवा के लिए आते हैं तो शिवजी के आभूषणरूप सर्प मोर से डरकर गहरी लम्बी सांसे लेने लगते हैं जिससे शंकरजी के नेत्र में अग्नि के समान ताप उठने लगता है। उस ताप से जटाजूट में स्थित चन्द्रमा पसीजने लगता है। अमृतमय चन्द्रमा के पसीजने से उससे अमृतधारा बहने लगती है जो शंकरजी के गले में विद्यमान निर्जीव मुण्डमाला पर गिरती है, जिससे वह पुन: जीवित हो उठती है और पूर्वकाल में अध्ययन किए गए शास्त्रों का पाठ करने लगती है।

अब भला बताइए त्रिपुरारि की हालत क्या होगी? इस धमा-चौकड़ी से किसकी तबियत न खीझ उठेगी? जो देखो दूसरे पर गुर्रा रहा है। एक-दूसरे को फाड़ खाने को तैयार है। परन्तु कुशल राजनीतिज्ञ भगवान शिव ने सब अच्छे से सम्हाला है–

मूसे पर साँप राखै, साँप पर मोर राखै, बैल पर सिंह राखै, वाकै कहा भीति है।
पूतनिकों भूत राखै, भूत कों बिभूति राखै, छमुख कों गजमुख यहै बड़ी नीति है।।
काम पर बाम राखै, बिष कों  पियूष राखै, आग पर पानी राखै सोई जग जीति है।
‘देवीदास’ देखौ ज्ञानी संकर की सावधानी, सब विधि लायक पै राखै राजनीति है।।

भगवान शिव का तबेला माने विरोधाभासों का जमघट। कहीं बैल तो कहीं बाघ। कहीं चूहा तो कहीं सांप। तब शिवजी यदि धूनी रमाने को त्रिशूल लेकर चल पड़ें तो इसमें आश्चर्य की क्या बात है? वे योगी भी तो अपने इस घर की गति को देखकर हुए हैं–

भूषन है कबि ‘चैन’ फनिंद के बैर परे सब के सब लेखि कै।
तीनहुं लोक के ईस गिरीस सु जोगी भए घर की गति देखि कै।।

इन सारे विरोधाभासों के बीच हंसते-हंसते कालकूट विष को गटक जाने वाले नीलकण्ठ, सदाशिव, शंकर। भगवान शंकर तो प्रेम और शान्ति के अथाह समुद्र और सच्चे योगी ठहरे। उनके मंगलमय शासन में सभी प्राणी अपना वैर-भाव भुलाकर पूर्ण शान्तिमय जीवन व्यतीत करते हैं। वे इतने अहिंसक हैं कि सर्प, बिच्छू भी उनके आभूषण बने हुए हैं। उनके चारों ओर आनन्द के ही परमाणु फैले रहते हैं इसीलिए ‘शिव’ (कल्याणरूप) एवं ‘शंकर’ (आनन्ददाता) कहलाते हैं।

गरीब-से-गरीब के लिए गुंजाइश है वहां–क्योंकि नंगे, लूले, लंगड़े, सर्वहारा, ऐंड़े-बेंड़े-टेढ़े सभी उनके गण बनकर उनकी बारात में शामिल हुए। जिनका कोई ठिकाना नहीं, उन सबके लिए भोलेबाबा का दरबार खुला है। जहां भूँजी भाँग का ठिकाना न हो, वहां ‘पूत मोदक को मचलते हैं, तो साक्षात् अन्नपूर्णा के सामने भी अर्थसंकट आ जाता है–

बैल-बाघ-बाहन, बसन को गयंद खाल,
भाँग को धतूरे को पसारि देत अँचलै।
घर को हवाल यहै संकर की बाल कहै,
लाज रहै कैसे पूत मोदक को मचलै।।

पार्वतीजी हैं अन्नपूर्णा, महामाया। वे गृहस्थी चलाना जानती हैं। उनके पास इतना ऐश्वर्य आखिर आया कहां से? उन्होंने चतुरता से सिद्धि और बुद्धि को अपनी पुत्रवधुएं बनाया है और क्षेम और लाभ दो पौत्र हैं। उनकी इसी चतुरता पर जगद्गुरु शंकराचार्यजी ने कहा है–

‘‘अनेक गुणविस्तृत सपर्णा (पत्तोंसहित) लताओं का आश्रय भले ही कोई ले, परन्तु मेरे विचार से तो केवल उसी एक अपर्णा (पार्वतीजी) की सेवा करनी चाहिए, जिससे घिरकर पुराना ठूंठ भी (स्थाणु-शिव) मोक्ष का फल देने लगता है।’’

नमो नम: शंकरपार्वतीभ्याम्

पार्वतीजी द्वारा शिवजी को पति रूप में प्राप्त करने के लिए की गई तपस्या को देखने के लिए शिवजी ब्रह्मचारी के वेष में आए और अपना आत्मपरिचय देते समय उन्होंने पार्वतीजी से स्वयं कहा था कि भला देखो तो सही, शिव का रूप कितना कुरुप है, आँखें बंदर जैसी हैं, शरीर में चिताभस्म और सांप लपेटे रहते हैं, उनके कुल, खानदान, माता-पिता, पितामह, जाति, गोत्र आदि का भी कोई पता ही नहीं है। खेती, व्यापार, अन्न, धन, गृह से भी वे शून्य हैं। एक दिन के भोजन के लिए भी उनके पास कुछ नहीं है। तुमने ऐसे व्यक्ति से जो विवाह करने के लिए तप आरम्भ किया है तो भला तुमसे बढ़कर संसार में मूर्ख और कौन हो सकता है!

इसके उत्तर में पार्वतीजी ने यही कहा था कि शिवजी तो विश्वेश्वर हैं। वे ही सम्पूर्ण विश्व के स्वामी हैं। उन्हें खेती, व्यापार नौकरी की क्या आवश्यकता है? वे नंगे रहें, गजचर्म धारण करें या रेशमीवस्त्रों से सुसज्जित हों । वे चाहे शरीर पर सांप लपेटें या दिव्य रत्नजटित आभूषण धारण करें, वे त्रिशूल, खप्पर आदि लें या उनके ललाट पर चन्द्रमा चमकते रहें। इससे उनके तात्विक स्वरूप में कोई अन्तर नहीं आता, न ही इससे उनकी विश्वस्वामिता में कोई अन्तर आने वाला है।

shiv parvatiशिव-पार्वती के विवाह में बरात में पहले कन्या पक्ष के लोग इन्द्र का ऐश्वर्य, माधुर्य देखकर समझे कि यही शंकर हैं और उन्हीं की आरती के लिए प्रवृत्त हुए। किन्तु इन्द्र ने कहा कि ‘हम तो शंकरजी के उपासकों के भी उपासकों में निम्नतम हैं’, तब उन लोगों ने ब्रह्माजी का ऐश्वर्य देखकर उन्हें परमेश्वर समझा। जब उन्होंने भी अपने को शंकरजी का निम्नतम उपासक कहा, तब उन लोगों ने विष्णुजी के अद्भुत ऐश्वर्य-माधुर्य और सौन्दर्य को देखकर उनको शंकरजी समझा, तब विष्णुजी ने भी अपने को शंकरजी का उपासक बतलाया, तब सबको बड़ा आश्चर्य हुआ। स्वयं भगवान श्रीकृष्ण जिनकी उपासना करें, जिन पर मुग्ध रहें, उनकी महिमा, मधुरिमा का कहना ही क्या? ब्रह्मवैवर्तपुराण में भगवान कृष्ण भगवान शिवजी से कहते हैं–’मुझे आपसे बढ़कर कोई प्यारा नहीं है, आप मुझे अपनी आत्मा से भी अधिक प्रिय हैं।’

शिवजी गोपाल (श्रीकृष्ण) के अनन्य भक्त थे। उन्होंने ‘गोपालसहस्त्रनाम’ का उपदेश पार्वतीजी को दिया था। उन्होंने पुत्र प्राप्ति के लिए पार्वतीजी को गोपाल की उपासना के लिए प्रेरित किया, तभी उन्हें कृष्ण के अंशावतार श्रीगणेश पुत्र-रूप में प्राप्त हुए। ब्रह्मवैवर्तपुराण में इस कथा का वर्णन है।

साधारणतया लोग शिवजी को ‘योगीश्वर’ कहते हैं, परन्तु वास्तव में वे ‘गृहस्थों के ईश्वर’ हैं, विवाहित दम्पत्ती के उपास्य देवता हैं। संसार की सारी विषमताओं से घिरे रहने पर भी अपनी चित्तवृत्ति को शान्त एवं स्थिर बनाए रखना ही योग का स्वरूप है। भगवान शिव अपने पारिवारिक सम्बन्धों से हमें इसी योग की शिक्षा देते हैं।

ईश तव कोमल करुण स्वभाव।
जल धारा प्रिय नाथ कहावत, रीझत भाव कुभाव।।
श्रीफल दल पूजत मन वांछित भक्तन को फल पाव।
मृत्युंजय जप निखिल व्याधिहर यम भय हरण प्रभाव।।
पंचाक्षर तव मंत्रराज प्रभु जपि यदि चित्त बढ़ाव।
साक्षात्कार कृतार्थ जन्म भव बंधन कठिन कटाव।। (जगद्गुरु शंकराचार्य श्रीमहेश्वरानन्दजी महाराज)

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